सूर्योः देवता

August 1945

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(श्री विट्ठलदास मोदी, संचालक, आरोग्य मन्दिर, गोरखपुर)

प्रातःकाल अँगड़ाई लेते हुए आदिम पुरुष ने जब प्रकृति पर नजर डाली तो उसने देखा कि पक्षीगण स्वागत गाना गा रहे हैं, पशु दौड़-दौड़कर किसी के आने की खुशियाँ मना रहे हैं और तरुगण रास्ता देने को श्रद्धापूर्वक सिर झुकाये खड़े हैं। नजर दौड़ाई तो पूर्व दिशा की ओर उसने उदित होते हुये बाल रवि को देखा। उसके तेज और सौंदर्य ने उसे अभिभूत कर लिया। सूर्य रश्मियों का उसके शरीर पर एक स्फुरणकारी प्रभाव पड़ा। हृदयगत सारी भावनाओं को उड़ेल कर वह बोल उठा “सूर्योःदेवता”।

हजारों वर्षों से वेद के इस मंत्र खंड को लाखों नर नारी सायं-प्रातः गाते आये हैं। यह इतना गाया गया है कि आज इसका अर्थ समझना भी कठिन हो गया है। भावना का स्थान मश्क ने ले लिया है। आज तो जब कहीं हम सूर्योःदेवता सुनते हैं तो यह मंत्र अपने को मोटे-मोटे कपड़ों से ढंके रखने की हमारी आदत, सूर्य प्रकाश से हमें छिपाये रहने वाले हमारे महल एवं अट्टालिकाओं पर व्यंग करता ही जान पड़ता है।

पर वैज्ञानिक उन्नति के साथ-साथ सूर्य प्रकाश एवं स्वास्थ्य के संबंध को अधिकाधिक समझा जाने लगा है। आधुनिक युग में रोग छुड़ाने के लिए सूर्य रश्मियों का प्रयोग पहले पहले डेनमार्क निवासी डॉ. एन. आर. फिनसेन ने सन् 1893 ई. में किया था। इसके दस वर्ष बाद स्विट्जरलैंड में डॉक्टर रोलियर ने यक्ष्मा के रोगियों के लिए पहली धूपशाला खोली। उनके लिए किये गए प्रयोगों के परिणाम को देखकर तो धूप की रोग नाशक शक्ति का कायल सारा चिकित्सा संसार हो गया है।

प्रायः उन सभी लोगों का जिन्होंने धूप की रोग नाशक शक्ति के संबंध में अनुसंधान किया है, कहना है कि सूर्य किरण में पाई जाने वाली अल्ट्रावायलेट किरणें ही मनुष्य के विशेष काम की हैं। अधिक तादाद में अल्ट्रावायलेट किरणें उपजाने वाली मशीनें भी बना ली गई हैं पर देखा गया है कि इन मशीनों द्वारा प्राप्त किरणें उतनी लाभदायक नहीं होती जितनी सूर्य की किरणें। ऐसी भी मशीनें बनी हैं जो अल्ट्रावायलेट किरणें बिल्कुल ही नहीं देती वे केवल इन्फ्रारेड किरण डालकर रोगों पर अपना प्रभाव दिखाती हैं। घर में इस्तेमाल किए जाने वाले साधारण बल्ब में भी यदि कुछ खास तौर के रिफ्लेक्टर लगा दिये जायें तो उनके प्रकाश में भी कुछ न कुछ औषधगुण अवश्य उत्पन्न हो जायगा यद्यपि उनमें न अल्ट्रावायलेट किरणें होती हैं न इन्फ्रा रेड। इससे यह साबित होता है कि सूर्य की किसी भी अकेली किरण में चाहे वह सूर्य से ली जाय या किसी मशीन से पैदा की जाय वह प्रभाव नहीं होता जो सूर्य की सीधी इकट्ठी किरणों में।

अब किसी ऐसे व्यक्ति के शरीर पर ध्यान दीजिये जिसे अधिकतर धूप में रहना पड़ता है। उसकी तपे ताँबे की सी देह को उनकी देह से मिलाइये जो कपड़ों, छातों और ऊँचे-ऊँचे घरों की सहायता से अपने को धूप से दूर रखते हैं। पीली मुरझाई निस्तेज त्वचा में न तो ठंडक गर्मी बर्दाश्त करने की ताकत होती है और न रक्त की गंदगी को पसीने के रूप में बाहर निकाल डालने की शक्ति।

यह आवश्यक नहीं है कि हर समय धूप में ही रहा जाय। ऐसे अवसर का उपयोग अवश्य किया जाय जब दिन भर बाहर रहने का मौका मिले। पर दस पंद्रह मिनट रोज तो धूप ली ही जाय। इसके लिए खुले बदन धूप में लेटना चाहिये, केवल सिर ढ़का रहे। जो लोग देर से स्नान करते हैं वे धूप लेने के बाद स्नान करें तो उनके चर्म रोग होने की कभी संभावना ही न रहे। धूप लेने के बाद यदि स्नान न किया जा सके तो सारे बदन को गीले कपड़े से अवश्य ही पोंछ डालना चाहिये।

भोजन शास्त्री जब गरीबों के लिए भोजन बताने लगते हैं तो वे इस चक्कर में पड़ जाते हैं विटामिन डी. उनके भोजन में किस प्रकार दी जाय। दूध, मक्खन, क्रीम, अंडे से दूर उनकी नजर नहीं जा पाती। यह काम धूप से पूरी तौर से लिया जा सकता है। धूप को गरीबों का दूध, मक्खन, क्रीम ही समझिये।

हमारे स्कूलों में बच्चों को पाँचवें दर्जे से हाइजीन पढ़ाई जाती है और यह पढ़ाई आठवें दर्जे तक जारी रहती है। बच्चे उसे किताबों में पढ़ते हैं, अध्यापक किताबों से पढ़ाते हैं। अध्ययन एवं शिक्षण, ज्ञान के लिए होता है व्यवहार के लिये नहीं। यदि केवल धूप लेने की बात भी लोगों के गले उतर जाय तो हमारी पौध बढ़ जाय और यक्ष्मा की बढ़ती ही न रुक जाय बल्कि उसकी जड़ भी कट जाय।

हमारे स्कूलों में बच्चों को पाँचवें दर्जे से हाइजीन पढ़ाई जाती है और यह पढ़ाई आठवें दर्जे तक जारी रहती है। बच्चे उसे किताबों में पढ़ते हैं, अध्यापक किताबों से पढ़ाते हैं। अध्ययन एवं शिक्षण, ज्ञान के लिए होता है व्यवहार के लिये नहीं। यदि केवल धूप लेने की बात भी लोगों के गले उतर जाय तो हमारी पौध बढ़ जाय और यक्ष्मा की बढ़ती ही न रुक जाय बल्कि उसकी जड़ भी कट जाय।

चेहरे की प्रसन्नता एक ताली है जो दूसरों के हृदय का दरवाजा आपके लिए खोल देती है।

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फसल को नष्ट करने से पहले ओले स्वयं नष्ट हो जाते हैं इसी प्रकार दूसरों को सताने वाले अत्याचारी सफल मनोरथ होने से पहले स्वयं मिट जाते हैं।

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तिनके पानी के ऊपर तैरते-फिरते हैं परन्तु मोती प्राप्त करने के लिए समुद्र की तली तलाश करनी पड़ती है। इसी प्रकार ओछे मनुष्य का संग तो चाहे जहाँ मिल जाता है पर सत्पुरुषों की ढूँढ़ खोज करनी पड़ती है।

तिनके पानी के ऊपर तैरते-फिरते हैं परन्तु मोती प्राप्त करने के लिए समुद्र की तली तलाश करनी पड़ती है। इसी प्रकार ओछे मनुष्य का संग तो चाहे जहाँ मिल जाता है पर सत्पुरुषों की ढूँढ़ खोज करनी पड़ती है।


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