साधक के लक्षण

August 1945

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(ले.- श्री रामशरण जी “व्यास”)

जिन मनुष्यों की वासनाएं शाँत हो गई हैं, उनके मन मन्दिर में आठोंयाम प्रेम ज्योति प्रज्ज्वलित है। वे इंद्रियों के दास नहीं, इंद्रियाँ स्वयं उनकी दासता में रहती हैं। साँसारिक प्रपंच किसे कहते हैं, इससे उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। वे समय पर धर्म की वेदी पर प्राण न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहते हैं और धर्म संस्थापन के लिए ही जीवित हैं। सरलता, नम्रता, सहनशीलता सम्प्रीति ही उनके जीवन के मुख्य साधन हैं। उनमें अहं भाव का नाम-मात्र भी नहीं होता। ऐसे मनुष्य सत्य की शीतल छाया में जीवन व्यतीत करते हैं। जिन मनुष्यों ने परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया है। ऐसे मनुष्यों का अंतःकरण पूर्ण-चन्द की किरणों की भाँति उज्ज्वल बना रहता है, आत्मा गंगाजल के समान निर्मल हो जाती है। अबलाओं की लाज रखने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे देना उनके लिए बच्चों का सा एक खेल होता है।

भाग्यशाली हैं वे मनुष्य, जिनके रोम-रोम में, श्वांस-श्वांस में सर्वव्यापी भगवान विद्यमान हैं। उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। श्रद्धालु मनुष्यों की दृष्टि से वे दूर कब हैं? उन्हें हर रूप में परमात्मा का ही अनुभव होता है। वे भयंकर रूपधारी मायावी जीवों से निर्भीक रहते हैं। किसी जीवनधारी को कष्ट पहुँचाना तो नीचे मनुष्यों का तुच्छ विचार होता है। वह तो अपने प्रतिद्वन्द्वियों के प्रति भी सद्विचार रखते हैं। ऐसे ही मनुष्यों ने जीते जी परमात्मा को पा लिया है। ऐसे आत्म साधना के साधक धन्य हैं।


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