परमात्मा की अखण्ड-ज्योति

August 1945

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(ले.- योगी अरविन्द)

यह आदि और अंत रहित ब्रह्म अखण्ड है। इसके खण्ड नहीं हो सकता। इस अवनीतल की समस्त वस्तुएं इसी ब्रह्म की योजना से पूर्ण हैं। अनन्त कोटि ब्रह्माँड भी इसी ब्रह्म के द्वारा प्रकाशित है। इस विश्व के समस्त तथा प्रत्येक पदार्थों में व्याप्त रहने पर भी इसकी पूर्णता में किसी प्रकार का अंतर नहीं आने पाता क्योंकि वह सदा और सर्वदा परिपूर्ण है पूर्णता ही उसका प्राकृतिक गुण और स्वभाव है।

यह परमेश्वर पूर्ण है बल्कि पूर्ण से भी पूर्ण हैं। इसलिए जिस वस्तु में इस पूर्ण का पूर्णरूप से समावेश होगा, वह सदा पूर्ण रहेगा। इस भाव को अंतर्गत करके केवल चैतन्य पदार्थों में ही नारायण शिव तथा शक्ति का ज्ञान प्राप्त करना होगा, यह बात नहीं है, बल्कि इस संसार की सभी जड़ वस्तुओं में भी श्री भगवान की उपस्थिति की भावना करनी होगी। पर हमारे जड़ चक्षु अवनीतल को अंगुल-अंगुल खोज डालने पर भी ब्रह्म का दर्शन नहीं कर पातीं। अन्धों की भाँति केवल भगवान की रट लगाने से तो कई जन्म में भी भगवान का दर्शन नहीं हो सकता। जिस दिन स्वर्ग की पवित्र तेजमय किरण से हमारी बुद्धि प्रकाश प्राप्त कर माया के अंधकार से निकल भागेगी, जिस दिन ज्ञानरूपी सूर्य के प्रकाश से हमारे मन की शंकाएं और भ्रम दूर हो जायेंगे, उसी दिन हम धन्य तथा कृतकृत्य हो जायेंगे। उस दिन संसार को मोहित करने वाला सत्-चित् आनन्दमय भगवान का रूप देखकर, उसके दर्शन करके हम धन्य होंगे।

जब तक इस दिव्य चक्षु का उद्घाटन नहीं होता, अर्थात् जब तक यह दिव्य नेत्र नहीं खुलते तब तक साधन निष्फल और निष्प्रयोजन है, केवल माया जाल है। ओर जिस दिन यह ज्ञान चक्षु खुल जायेंगे उस दिन प्रतीत होगा कि इस संसार में कोई भी पदार्थ अचेतन नहीं है, संसार की सभी वस्तुओं में सच्चिदानंद परमेश्वर का निवास है। सबों के अंतर्गत, प्राण, चेतना, मन तथा विज्ञान अधिष्ठित हैं, सब वस्तुओं के बीच में लीलामय श्रीहरि निवास करके अपने अनंत गुणों का अपार आनंद उपभोग करते हैं। संसार की सभी व्यक्त-अव्यक्त प्रकाशोन्मुख वस्तु में जिसके बीच में परात्पर पुरुष पूर्ण रूप से अव्यक्त रूपेणा विद्यमान हैं, अथवा जिसके प्रकाश में चैतन्य का कोई भी रूप देखने में नहीं आता दिव्य चक्षु प्राप्त हो जाने पर उसके बीच में श्री आनन्द स्वरूप भगवान की दिव्य लीला देखने को मिलेगी। पत्र, पुष्प, पत्थर, मिट्टी, पेड़, पौधा-इन सभी वस्तुओं की रचना में विशेष प्रकार का आनन्द है। उस आनन्द का आभास उसकी रचना चातुरी से प्रकट होता है। प्रत्येक वस्तु के अंतर्गत श्री हरि चित रूप से विराजमान होकर मित्र रसों का उपभोग कर आनन्द लेते हैं। पर एक ही ब्रह्म का अनन्त रूप से अनेक वस्तुओं में निवास देखकर कभी भी इस बात की कल्पना नहीं करनी चाहिये कि ब्रह्मखण्ड है, वह विभक्त होकर आँशिक रूप से इन नाना विधि वस्तुओं में विराजमान है। भगवान द्विधा या विभक्त नहीं हो सकता। काल स्थान अथवा समय का उस पर किसी तरह का प्रभाव नहीं पड़ सकता। अभेद व अखंड होकर ही वह संसार की सभी वस्तुओं में समभाव से विराजमान होकर लीला करता है।

कठिन परिश्रम ओर एकनिष्ठा यह दो तपस्यायें ऐसी हैं, जिनको करने वाले अपनी मनोवाँछा पूरा होने का वरदान प्राप्त कर लेते हैं।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: