स्वार्थ त्याग में अनन्त आनंद

August 1945

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सब लोग प्रतिदिन लेन-देन से भली भाँति परिचित है। सेर भर शक्कर की यदि जरूरत पड़ती है तो बनिये की दुकान से पैसे देकर शक्कर खरीद सकते हैं। इसी भाँति अपने देश के अनाज को भेजकर उसके पलटे में दूसरे देश से हम कपड़ा माँग सकते हैं, परन्तु यदि हमें आरोग्यता की आवश्यकता हो तो आपको आने या चार आने की छटाँक, आध पाव आरोग्यता बाजार में बिकती हुई नजर नहीं आती। इसी भाँति यदि हम पाँच सौ रुपये में भी एक सेर विद्या खरीदना चाहें तो भी न मिल सकेगी। मिलने की तो बात ही क्या लोग हमारे इस सौदे की बात सुनकर हमें पागल समझेंगे। सिद्धाँत यह है कि जड़ पदार्थों के द्वारा जड़ पदार्थों की ही प्राप्ति हो सकती है। जब धन के द्वारा विद्या, आरोग्यता अथवा कुलीनता प्राप्त होना असम्भव है तब क्या आत्मिक बल को प्राप्त करने के लिए धन का भरोसा करना ठीक है? यदि केवल शारीरिक कष्टों को सहन करने से ही अपनी भीतरी शक्तियों का बढ़ना सम्भव हो तो रोगी, दुखी, लूले और लंगड़े सभी महात्मा बन जायं, परन्तु प्रत्यक्ष में हम उल्टा ही देखते हैं। इससे मानना पड़ेगा कि आत्मिक बल को प्राप्त करने के लिए यदि जड़ साधनों का हम उपयोग कर रहे हैं तो वे झूठे हैं।

यदि मनुष्य वास्तव में आत्मिक बल को खरीदना चाहे तो उसे इसके बदले में उसी जाति की चीज देनी होगी। यदि वास्तव में हम संयम, सहिष्णुता, धैर्य, सहानुभूति और प्रेम को अपने हृदय में उत्पन्न करना चाहें तो हमें इनके बदले में अपनी मनोवृत्तियों की उच्छृंखलता, स्वार्थ, लम्पटता और मानसिक चपलता से विदा लेनी होगी। लोभी मनुष्य को द्रव्य से चाहे कितना ही प्रेम क्यों न हो यदि वह अपने शारीरिक आराम को चाहता है तो उसे अपना द्रव्य अवश्य खर्च करना ही पड़ेगा। इसी भाँति स्वार्थ का त्याग करने में हमें कितना ही कष्ट क्यों न हो, बिना उससे छुटकारा पाये हम आत्मिक उन्नति प्राप्त नहीं कर सकते। धन का सच्चा उपयोग यही है कि उसके द्वारा मनुष्य जाति को अपनी सुख शान्ति जुटाने में सुविधा हो। वह कृपण, जो लक्ष-लक्ष मुद्राओं के रहते भी द्रव्य प्रेम के कारण आवश्यक सामग्रियों को नहीं जुटाता, निस्संदेह दया का पात्र है। इसी भाँति चैतन्य जगत में भी जो व्यक्ति अपनी मानसिक वृत्तियों के बदले में सच्चे सुख और शाँति को प्राप्त करने में हिचकता है वह मूढ़ बुद्धि है। प्रकृति ने मनुष्य के हृदय में क्रोध की सृष्टि इसीलिए की है कि उस पर विजय प्राप्त करके क्षमा कर दी जाय। स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य दूसरों की सुख सामग्री को छीन-छीन कर अपने सुख के लिए एकत्र करता है। दूसरों की उसे जरा भी चिन्ता नहीं रहती। अतएव वह कृपण मनुष्य के सदृश्य अपना द्रव्य अपने ही पास रखना चाहता है, परन्तु धर्म का सिद्धाँत इसके विपरीत है। धर्म चाहता है कि मनुष्य अपने सुख का उपभोग स्वतः भी करे और दूसरे मनुष्यों को सुख देने के लिए तत्पर रहे।

वे आत्मिक शक्तियाँ कौन-कौन हैं-जिनकी वृद्धि के लिए हमें प्रयत्न करना चाहिये। दयालुता, मैत्रीभाव, संवेदना, संयम, धैर्य, सत्य, शाँति और विश्वव्यापी प्रेम। ये सारे भाव जिस समय मनुष्य के हृदय में पूर्ण रूप से विकसित हो जाते हैं। उसी समय उसकी आत्मा विस्तीर्ण होते-होते सारे विश्व में फैल जाती है। यदि इन भावों को प्राप्त करना चाहते हो तो आज ही से अधीरता, क्रोध, निर्दयता, घृणा और स्वार्थ तथा अपनी वृत्तियों को दमन करने का प्रण कर लो। ज्यों-ज्यों इनकी मात्रा हृदय से घटती जायगी, त्यों-त्यों ही सुख और शाँति की मात्रा बढ़ चलेगी।


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