(महात्मा गाँधी)
प्रार्थना करना याचना नहीं है। वह तो आत्मा की पुकार है। वह अपनी त्रुटियों को नित्य स्वीकार करता है। हममें से बड़े को मृत्यु रोग वृद्धावस्था, दुर्घटना इत्यादि के सामने अपनी तुच्छता का भाव हर दम हुआ करता है। जब अपने मनसूबे लहम भर में मिट्टी में मिलायें जा सकते हैं। जब अचानक या पल भर में हमारी खुद हस्ती मिटाई जा सकती है। तब हमारे मनसूबों को मूल क्या है। लेकिन अगर हम यह कह सकें कि हम तो ईश्वर के निमित्त तथा उसी की रचना अनुसार ही काम करते हैं। तब हम अपने को मेरु की भाँति अचल मान सकते हैं। तब तो कुछ फसाद ही नहीं रह सकता है उस हालत में नाशवान कुछ भी नहीं है तथा दृश्य जगत ही नाशवान मालूम होगा। तब लेकिन केवल मृत्यु और विनाश सब असत मालूम होते हैं। क्योंकि मृत्यु विनाश उस हालत में एक रूपांतर मात्र है। उसी प्रकार जिस प्रकार कि एक शिल्पी अपने चित्र को इससे उत्तम चिर बनाने के हेतु नष्ट कर देता है। और जिस प्रकार एक घड़ी साज अच्छी कमानी लगाने के अभिप्राय से रद्दी को फेंक देता है।