शब्द-योग का साधन

August 1945

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(संकीर्तन)

शास्त्रकार कहते हैं कि “नहि शब्द सदृशोलयः” शब्द के समान मन को लय करने का और कोई सुगम मार्ग नहीं हैं। अधिकाँश सन्त शब्द मार्गीय हुये हैं। कबीर जी प्राचीन सन्तों में शब्द मार्ग का अच्छा वर्णन कर गये हैं। वर्तमान राधा स्वामी सम्प्रदाय में शब्द साधना ही चलती है। इस प्रकार का शब्द साधन कोई नवीन साधन नहीं है। इस साधन से ऋषिगण भली प्रकार अवगत थे। उपनिषदों में इस साधन का विस्तृत वर्णन है। योग के ग्रन्थों में भी विस्तृत विवेचन है। नाद-विन्दोपनिषद का तो यही विषय है। अवश्य ही दूसरे साधनों की भाँति इसके आचार्यों के मतों में भी कुछ अन्तर मिलता है, लेकिन वह अन्तर केवल भावना भेद का है। सबका उद्देश्य मनोलय में है।

शब्द श्रवण के सम्बन्ध में आवश्यक यह है कि पहले नाड़ी शुद्धि कर ली जावे। कस्तूरी जायफल और मोम के संयोग से दो छोटी-छोटी गुटिका लाल रेशमी वस्त्र में बाँधकर बना लेना चाहिये, जिससे कर्ण छिद्र बन्द हो सकें। गुटिका कान कि भीतर न चली जावे अतः वस्त्र का कुछ अंश बाहर रहने देना चाहिये। कान के भीतर से मैल आकर उसमें लग जाया करता है। यदि गुटिका बड़ी हो और कानों को कष्ट होता हो तो छोटी कर लें। जब कानों को वह सह्य हो जावे तब पर्याप्त बढ़ा सकते हैं।

कुछ लोग तुलसी काष्ट से कानों को बन्द करते हैं। लेकिन वह कठोर होने से पीड़ा देता है। रुई, मोम और कडुए तेल के संयोग से भी गुटिका बनती है, किन्तु वह मैल को खींचती नहीं। कुछ लोग अभ्यास के काल में हाथों की अंगुलियों से कान बन्द करते हैं। ऐसा करने में हाथ जल्दी थक जाते हैं और देर तक अभ्यास नहीं चलाया जा सकता।

कुछ लोग साधकों को उष्ण औषधियों का सेवन कराते हैं। इससे नाड़ियाँ संतप्त होती हैं और नादोत्थान शीघ्र होता है। फिर भी ऐसा करना ठीक नहीं। मादक वस्तुओं के आवेश की भाँति यह अस्थायी आवेश होता है। उसके पश्चात शिथिलता आ जाती है। इससे साधक की शारीरिक और मानसिक दोनों हानि होती है। मनोलय को भूलकर वह नाद को प्रधान मान लेता है और दवा का आदी बन जाता है।

अभ्यास का समय ग्यारह बजे रात्रि के पश्चात् प्रातः तीन बजे के भीतर रखना चाहिये। जब सब लोग सो गये हों, चारों ओर सन्नाटा हो तो नाद सुनने में अधिक सुविधा होगी।

गुटिका को भली प्रकार कानों में लगाकर, किसी बराबर स्थान पर कम्बल, मृगचर्म या कुशासन डालकर बैठ जाइये। अभ्यास के लिए किसी एक आसन पर बैठने में समर्थ होना आवश्यक है। बीच-बीच में आसन बदलने से अभ्यास में बाधा पड़ेगी। मेरुदण्ड सीधा होना चाहिए और मन से सारी बातों को भुला देना चाहिए।

आरम्भ में दो-तीन प्राणायाम करके सोऽहं, ॐ या दूसरे किसी मन्त्र का मानसिक जप, चार-पाँच मिनट मन को एकाग्र करने में सहायता देगा। तदन्तर पूरा ध्यान शब्द की ओर लगा देना चाहिए। पहले आँधी चलने या रेल के समान शब्द सुनाई देगा। उसके बाद झींगुर के बोलने के समान और फिर छोटी घंटियों के बजने का शब्द।

घण्टियों के पश्चात घण्टे घड़ियाल बजने की ध्वनि होगी। उसके भीतर शंख का शब्द सुनाई देगा। शंखनाद के पीछे मेरी नाद, मेघ गर्जन और मुरली ध्वनि ये क्रमशः सुनाई पड़ेंगे। यह आवश्यक नहीं कि ये सब शब्द इसी क्रम से सुनाई दें। इनके क्रम में उलट फेर भी हो सकता है। कभी किसी साधक को सहसा कोई ऊपर के क्रम का शब्द भी सुनाई देने लगता है और कभी वह पिछला शब्द असंयम या नाड़ी दोष से फिर आ जाता है, जिसे वह पहले सुन चुका है।

साधना के समय हल्का सात्विक भोजन, ब्रह्मचर्य अपनाना चाहिए और मानसिक उत्तेजनाओं से बचना आवश्यक है। आहार-विहार सर्वथा सात्विक रखने से ही सफलता प्राप्त होती है।

साधक को अनेक प्रकार के दृश्य ध्यान में दिखलाई पड़ेंगे। अनेक प्रकार के स्वादों का अनुभव होगा। योग ग्रन्थों एवं संतों की वाणियों में दनडडडडड दृश्यों तथा रसों का विशद वर्णन है। उन सबको देने के लिए न तो यहाँ स्थान है और न उसकी आवश्यकता।

चाहे कोई भी दृश्य दिखलाई पड़े या कोई भी रस अनुभव में आवे, दृश्य सुन्दर हो या भयानक, रस मधुर हो या कटु साधक को उन पर ध्यान नहीं देना चाहिये। उसे न तो आकर्षित होना चाहिये और न घबड़ाना या डरना चाहिये। उसे अपना ध्यान केवल शब्द पर केन्द्रित रखना चाहिये। यदि मन बहुत चंचल हो उठे तो उसी शब्द में अपने अभीष्ट मन्त्र की कल्पना करके उसको सुनने का प्रयत्न करना चाहिए।

इस प्रकार अभ्यास करते-करते साधक का मन धीरे-धीरे तमोगुण और रजोगुण का त्याग करके शुद्ध होता है। अन्त में वह शुद्ध सात्विक रूप में स्थिर हो जाता है। तत्पश्चात् साधक समाधि को प्राप्त करता है। शुद्ध सत्व को प्राप्त मन लय होता है और साधक समाधि अवस्था में पहुँच जाता है। बिना अन्तर दिये, नित्य निश्चित समय पर संयम पूर्वक साधना करने वाला सदाचारी साधक शीघ्र ही इस मार्ग से अपने मूल लक्ष्य को प्राप्त करता है।


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