असली दुश्मन को पकड़ो।

August 1945

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(श्री स्वामी सत्यदेव जी परिव्राजक)

जीवन एक संग्राम है- वह संग्राम जिसमें परास्त होने वाले अधिक हैं और जीतने वाले थोड़े। वे ही विजयी होते हैं जो अपने इर्द-गिर्द की दिशाओं को वश में कर प्राकृतिक नियमों के अनुसार अपने जीवन को बनाते हैं। वे ही सर्वश्रेष्ठ और सक्षम प्राणी हैं।

प्रत्येक वर्ष के आरम्भ में हजारों कलियाँ निकलती हैं, उनमें से बहुत थोड़ी सुन्दर विकसित फूलों की दशा में आती हैं, पश्चात् उनमें से थोड़ी ही निर्दोष पुष्प बनती हैं और उन पुष्पों में से थोड़े परिपक्व फलों की अवस्था तक पहुँचते हैं। इसी प्रकार पक्षी हजारों अंडे देते हैं, परन्तु उनमें से थोड़े ही बच्चे अंडों से बाहर निकल कर, प्रौढ़ावस्था ग्रहण करते हैं। इस पृथ्वी पर करोड़ों स्त्री-पुरुष निवास करते हैं, उनमें से थोड़ी संख्या ही ऐसी सन्तान उत्पन्न करती हैं, जो बीज रूप होकर निरंतर सन्तति की वृद्धि कर सकें। करोड़ों बालक संसार में उत्पन्न होते हैं। उनमें से अधिकाँश कमजोर, निर्बल, दुर्व्यसनी ओर पतितावस्था में जीवन व्यतीत कर मिट्टी में मिल जाते हैं और दुनिया उनका नाम भी नहीं जानती।

यहाँ पर प्रश्न यह होता है कि सक्षमता और योग्यता की कसौटी क्या है? हम कैसे जान सकें कि अमुक स्त्री या पुरुष के रजवीर्य में विजेताओं की नस्ल उत्पन्न करने की योग्यता है या केवल अयोग्यों ही संख्या-वृद्धि करने में समर्थ हैं? जीवन संग्राम के इस भयंकर युद्ध में कौन विजयी हो सकता है? यही एक प्रश्न है।

इन प्रश्नों का यदि हम थोड़े शब्दों में उत्तर दें तो हम कह सकते हैं कि विजयी वह है जिसने अपने ऊपर विजय लाभ की है। काम, क्रोध, मोह, लोभ, और अहंकार भयंकर गर्जना करते हुए हम सबको निगल जाने की चेष्टा में रहते हैं। मनुष्य जीवन के नाशक ये शत्रु अन्दर से ही अपना नाशकारी कार्य करते हैं, बाहर से नहीं। इसलिए हमें इन अन्दर के शत्रुओं पर विजय लाभ करनी है।

अब यह स्पष्ट है कि हमारा असली शत्रु वह मनुष्य नहीं जो तलवार, बन्दूक, लकड़ी या गोलियों से हम पर हमला करता है, असली शत्रु वह नहीं है जो ईर्ष्या-द्वेष वश अपने विषैले शब्दों से हम पर चोट करता है। यह बाहर के धावे अधिक हानि पहुँचाने की शक्ति नहीं रखते। ऐसे शत्रु को हम आसानी से वश में कर सकते हैं। मधुर-भाषण, दया से सना हुआ कार्य, उदार वचन-बस इतने से ही वही शत्रु हमारा मित्र और हितैषी बन जाता है। इस प्रकार हम उसको जीत लेते हैं। केवल प्रेम की डोरी, सहृदयता और अहिंसा का उच्च भाव शीघ्र ही उसको अपनी और आकर्षित कर लेता है, क्योंकि ‘प्रेम’ ही परमेश्वर है।

अतएव हमारी निन्दा करने वाला, दिन-रात लोगों में हमारे प्रति बुरे भाव फैलाने वाला मनुष्य हमारा शत्रु नहीं है बल्कि सच्चा मित्र है। वह हमें अपनी आन्तरिक दैवी शक्तियों-उदारता, सहानुभूति, युक्ति कौशल दया और आत्मसंयम-के विकास का अवसर देता है। वह जो हमारे साथ कुश्ती करता है, हमें अधिक मजबूत और शक्तिशाली बनाता है। वह जो हमारी परीक्षा लेता है, हमें शिक्षा देता है, वह जो हमारी शक्तियों की आह्वान करता है, हमें अधिक वीर्यवान बनाता है। हमारी घातक यह बाहरी शत्रु नहीं यह तो हमारा मित्र है। इसके साथ युद्ध करने में हम संसार में विजय करना सीखते हैं और जब हम सैकड़ों वार इसको पराजित कर देते हैं तब संसार को पराजित करना तुच्छ बात हो जाती है।

हमारा असली दुश्मन हमारे अन्दर रहता है। वह बड़ा कठोर, बड़ा दुष्ट, बड़ा मायावी, शक्तिमान, चैतन्य और आजीवन द्वेषी है। बाहर के शत्रुओं को विजय करने की अपेक्षा इस आन्तरिक शत्रु को विजय करना अति दुःसाध्य है। इसके विजय करने में उन शक्तियों की आवश्यकता है, जिनके प्राप्त होने पर अन्य सब प्रकार का विजय श्री लाभ आसान हो जाता है। जिस मनुष्य ने अपने आप को वश में कर लिया वह नगर के विजय करने वाले से श्रेष्ठतर हैं। यूनान के बादशाह सिकंदर ने बहुत से नगर और देश विजय किए किन्तु वह अपने आपको विजय न कर सका। सड़क के किनारे चिथड़े पहने बैठा हुआ डायोग्री, धूल वाली सड़कों पर घूमने वाला महात्मा बुद्ध छोटी सी पाठशाला में बैठ कर पढ़ाने वाला सुकरात और बढ़ई का लड़का ईसामसीह -इन मनुष्यों ने नगर विजय नहीं किये, लाखों मनुष्यों पर आधिपत्य नहीं किया, परन्तु उनकी महत्ता एक दूसरे प्रकार की विजय से थी-जिस विजय के सामने सारा संसार सर झुकाता है और जिसकी प्राप्ति इन्द्रिय निग्रह से होती है।

सचमुच अपनी इन्द्रियों को वश में करने वाला जिसने अपनी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों को इसी एक कार्य में लगा दिया है। उस मनुष्य से लाख दर्जे अच्छा है जिसने अपनी सेना के द्वारा बड़े-बड़े नगरों को वशीभूत किया हो। क्योंकि यद्यपि मनुष्यों पर प्रभुता पाना बड़े गौरव की बात है परन्तु जिसने अपने आपको जीत लिया वह राजाओं का भी राजा है।

पाप में किसी को आनन्द नहीं मिला और न दुर्भावनाओं के बीच किसी ने शान्ति प्राप्त की है।

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सम्पत्ति का अभिमान मत करो क्योंकि प्रकृति के एक ही झोंके में बड़ी से बड़ी सम्पत्ति क्षण भर में चकनाचूर हो सकती है।


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