पशुता बनाम वीरता

August 1945

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(काका कालेलकर)

लोक-व्यवहार में भी वीर रस एक सीमा तक कार्यत्व की अपेक्षा तो रखता ही है। पशुओं में जोश होता है, पर वीर्य नहीं होता। जब वे जोश में आकर आपे से बाहर होते हैं तो आपस में अंधाधुंध लड़ पड़ते हैं, यही उनकी पशुता है। पर कहीं जरा सा भी भय का संचार उन में हुआ कि अपनी दुम दबाकर भागने में उन्हें देर नहीं लगती और भय की लज्जा का भाव तो वे जानते ही नहीं। भय की लज्जा तो आत्मा का गुण है। जानवरों में जिसका विकास नहीं होता। आवेश हो या न हो, लेकिन तीव्र कर्त्तव्य बुद्धि के कारण अथवा आर्यत्व के विकसित होने से मनुष्य भय पर विजय पा लेता है। आलस्य, सुखोपभोग, भय, स्वार्थ-इन सब का त्याग करके देह रक्षा की चिन्ता से निर्मुक्त हो, जब मनुष्य अपना बलिदान करने के लिये तैयार हो जाता है तभी वह जड़ के ऊपर अपनी देह पर विजय पाकर आत्म गुणों का उत्कर्ष स्थापित करता है। ऐसा वीर कर्म, ऐसी वीर वृत्ति देखने वाले या सुनने वाले के हृदय में वीर भाव जागृत करता है और इसी में वीर रस का आकर्षण और उसकी सफलता है।

हमारे पास कोई रक्षक वीर पुरुष है इसलिए हम बेफिक्र हैं, सही सलामत हैं, भय का कोई कारण नहीं, इस तरह की तसल्ली दुर्बलों और अबलाओं को होती है। जिसे कुछ वीर रस का सर्वोच्च परिणाम नहीं कह सकते।

वीर रस की कद्र वीर करें, यह एक बात है और शरणागत जन करें, यह दूसरी बात है। जो वीर है वह वीर रस को हमेशा विशुद्ध और आर्योचित रखने की चेष्टा करता है। आश्रय परायण व्यक्ति के अपनी प्राण रक्षा के लिए आतुर होने के कारण उसमें आर्य-अनार्य वृत्ति का विवेक नहीं रहता। अपने रक्षक के प्रति ‘नाथनिष्ठा’ रख कर उसके तमाम गुण दोषों को समान भाव से वह उज्ज्वल ही देखता है।

जब पीठ फेरना असम्भव हो जाता है, तब आत्मरक्षा की वृत्ति वीर वृत्ति की सहायक बन जाती है। जिसे अपनी जान ज्यादा प्यारी होती है वही इस मौके पर अधिक शूर बन जाता है। परन्तु जब कोई मनुष्य पानी में डूब रहा हो अथवा जलते हुए घर के अंदर से किसी असहाय बालक के चीखने की आवाज सुनाई पड़ रही हो, उस समय अपने बचाव की, जीवन को जोखिम की जरा भी परवाह न करते हुए कोई भी तेजस्वी पुरुष अपने हृदय धर्म का वफादार बनकर पानी में या धधकती हुई आग में कूद पड़ता है, तब वह अपनी वीर वृत्ति का परम उत्कर्ष प्रकट करता है। माफी माँगकर जीने की अपेक्षा फाँसी पर चढ़ जाना मनुष्य ज्यादा पसंद करता है। करोड़ों रुपये के लालच के वश में न होकर केवल न्याय बुद्धि को जो मनुष्य पहचानता है वह भी अपने अलौकिक वीरत्व का परिचय देता है। जिसे दुनिया चाहे जो कहे, पर अन्तरात्मा की आवाज को बेवफा नहीं होने दूँगा। ऐसी वीर वृत्ति जिस मनुष्य में स्वभाव से होती है वह धीरेश्वर है।

किसी बहू-बेटी या स्त्री का अपहरण करते समय भी कई एक बदमाश गुण्डे विकार के वश होकर अपनी असाधारण बहादुरी व्यक्त करते हैं। बड़े-बड़े डाकू भी अपनी जान हथेली पर रखकर घरों में सेंध लगाते हैं अथवा लूटमार मचाते हैं और जब पकड़े जाते हैं, पुलिस भले ही उन्हें प्राणान्त कष्ट पहुँचावे, अपने षड़यंत्र का भेद नहीं बतलाते। उनकी यह शक्ति हमें चकित जरूर कर सकती है पर शरीफ लोगों का धन हरण या पर स्त्री का अपहरण करने की नीचातिनीच पशु वृत्ति से प्रेरित बहादुरी की कोई आर्य पुरुष कद्र नहीं कर सकता।


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