मित्रता-निबाहना

August 1945

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(सेठ प्रतापमल जी, नाहटा)

तत्ववेत्ता इपिकरीटस का यह कहना है कि मित्रों के साथ निरर्थक विषयों पर बातचीत न करनी चाहिये, यानी काम की ही बात-चीत करनी चाहिए। परन्तु निरर्थक क्या है और सार्थक क्या है, इस विषय में मतभेद हो सकता है। ‘घोड़े, कुत्ते, कसरत, खाना-पीना इत्यादि’ इपिकरीटस के कथनानुसार क्षुद्र विषय हैं और ऐसे विषयों पर बातचीत न करनी चाहिए। इपिकरीटस और उनके मित्रों के लिए सम्भव है, यह ठीक हो। पर उसका यह अर्थ बहुत ठीक है कि मित्र ‘पर-निन्दा अथवा स्तुति पाठ न किया करें।” पर-निन्दा की लत सचमुच ही बहुत बुरी होती है। जिसे यह लत लग जाती है वह जिस तिस की निन्दा ही करता फिरता है, यहाँ तक कि अपने मित्रों को भी नहीं छोड़ता। परोक्ष में मित्रों की निन्दा करना मित्र धर्म के विरुद्ध है और इससे मैत्री टूट जाती है। पर इस लत का इतना प्रचार है कि इस विषय में एक लेखक कहता है, कि ‘एक दूसरे के पीछे उसके विषय में क्या कहता है, यह अगर सबको मालूम हो जाये, तो संसार में चार मित्रों का भी मिलना कठिन होगा।

पर-निन्दा से मन को कलुषित करने के बदले मार्कसआरी लियस का यह उपदेश अधिक मनोरंजक और साथ ही बोध-प्रद होगा,-”जिस समय तुम्हें अपना मनोरंजन करना हो, उस समय अपने संगी-साथियों के अच्छे गुणों का स्मरण किया करो। किसी की बुद्धि तीक्ष्ण है। कोई सदाचारी है, किसी में उदारता विशेष है, अपने साथियों के ऐसे-ऐसे गुणों का ध्यान करो।” जहाँ पर-निन्दा होती हो वहाँ ऐसी चर्चा होने से बहुत अधिक और बड़ा सात्विक तथा लाभकारी मनोरंजन होगा। दोषों को ढूँढ़ निकालना कुछ कठिन नहीं है, जल के ऊपर वे तैरते रहते हैं, पर सद्गुणों के मोती ढूँढ़ निकालने के लिए समुद्र में गोता लगाना पड़ता है। मित्र के गुण बढ़ाकर कहने में उतना दोष नहीं है। पर उसके गुणों पर परदा डालना और दोष बढ़ाकर कहना पाप है।

गुण ग्राही मित्र गुण का आदर करता है। मित्र के गुणों का आदर करना और उन गुणों की वृद्धि में उसे बढ़ावा देना काम है। अपने मित्र के गुणों की कदर न करने वाले मनुष्य की मित्रता केवल नदी नाव संयोग है। ऐसी मित्रता निभ नहीं सकती। सुख-दुःख में, संपद-विषद में, अध्ययन और मनोरंजन में, साथ रह सकने वाले मित्रों की मित्रता शुक्लेन्दुवत् बढ़ती ही जाती है। कई मित्र प्रयोजनाभाव से परस्पर मिलना तक छोड़ देते हैं, पर यह बड़ी भूल है। मित्रों को एक दूसरे से बराबर मिलते रहना चाहिये और बिना मिले कल ही न पड़नी चाहिये। मित्रों का एक दूसरे से न मिलना भी मित्रता के शिथिल हो जाने का कारण होता है।

धनादि से मित्र की सहायता करने में कभी अपने मन में भी उसका थोड़ा भी तिरस्कार न करो। मित्र की सहायता कर सकना अहो-भाग्य है।

मित्र की सहायता करना जैसा मित्र धर्म है, वैसा ही मित्र धर्म मित्र को कष्ट न देना भी है। सरल और सहृदय देखकर किसी को बारबार सहायता के लिए कष्ट देना अनुचित है, यही नहीं, प्रत्युत मित्र का यह धर्म है कि वह जहाँ तक हो सके, ऐसा अवसर ही न आने दे कि मित्र को कष्ट हो।

किसी समय यदि मित्र सहायता न कर सके, तो उतने से रुष्ट हो जाना भी ठीक नहीं। मित्र से अनुचित आशा करना तो मैत्री का केवल दुरुपयोग है। हमें सदा अपने को अपने मित्र की स्थिति में मान कर विचारना चाहिए। अयुक्त परिस्थिति में हम अपने मित्र के लिए क्या कर सकते हैं, जो काम हम न कर सकते, उसकी आशा अपने मित्र से कदापि न करनी चाहिये।

मित्रता के निर्वाह के सम्बन्ध में यह सुभाषित प्रसिद्ध है-

इच्छेच्चेद्विपुलाँ मैत्रीं त्रीणि तत्रन कारयेत्। वाग्वादमर्थ सम्बन्धं परोक्षे दारभाषणम्॥

अर्थात् जो विपुल मैत्री चाहता हो, वह इन तीन बातों से अवश्य दूर रहे-बाग्वाद अर्थ-सम्बन्ध और मित्र के परोक्ष में मित्र-पत्नी से बात चीत।

“वादे वादे जायते तत्वबोधः” यह सुभाषित ही सत्य है पर तत्वबोध के लिए जहाँ वाद होता है, वहीं के लिए यह ठीक है, अन्यथा अपनी बात रखने के लिये जो वाद-विवाद किया जाता है, वह केवल निरर्थक नहीं, अनेक बार हानिकारक भी होता है। कई बार शास्त्रार्थ होते शास्त्रार्थ आरम्भ हो गया है। वाद-वाद के जोश में कितनों को होश नहीं रहता और एक दूसरे के दिलों पर बाग्वाण बरसाने लगते हैं। जिसका परिणाम यह होता है, कि वाद करने वाले ऐसे मित्रों का चित्त एक दूसरे से हट जाता है, कभी-कभी दिल फट जाने की भी नौबत आती हैं। किसी विषय में मित्रों में मतभेद हो, तो उसके लिए बाग्वाद न करके एक दूसरे के मत का आदर करना चाहिए। ऐसी चर्चा ही न चलाना अच्छा, जिसमें मित्रों को अपने-2 मत का आग्रह हो।

अर्थ-सम्बन्ध की बात ऐसी ही है मित्र एक दूसरे की सहायता करें, यह तो मित्र धर्म ही है। पर मित्रों में इस प्रकार का लेन-देन का व्यवहार रहना, जैसा महाजन और आसामी में होता है, अनुचित है। लेने देने में जो लाभ की आशा रहती है वह बढ़ते-बढ़ते मैत्री को कुचल डालती है। अंग्रेजी में एक कहावत है-

“Short reckonings make long friends”

“लेन-देन जितना थोड़ा मित्र प्रेम भी उतना गाढ़ा” होता है इसलिए मित्रों को आपस में लेन-देन न करना चाहिए। अर्थ सम्बन्ध से मित्र जितना दूर रहेगा, उतना ही मैत्री निभाने के विषय में सुखी होगा।

मित्र के परोक्ष में मित्र की पत्नी से बातचीत करना कई देशों के आचार में अशिष्ट नहीं समझा जाता। उन देशों का इस विषय में कोई भिन्न अनुभव हो सकता है। परन्तु हमारे देश में शिष्ट व्यवहार यही है कि पुरुष के परोक्ष में स्त्री से भाषण न करना चाहिए। जो लोग अपने मित्रों से मित्रता निभाना चाहते हैं, उन्हें मित्र की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी से कभी बातचीत न करनी चाहिए। मित्र की अनुपस्थिति में मित्र-पत्नी से वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा लक्ष्मण का सीताजी के साथ था। लक्ष्मण ने सीताजी के चरणों के सिवाय और किसी अंग का दर्शन नहीं किया था। किसी भी पर-स्त्री से भाषण करते हुए अपनी दृष्टि को उसके पैरों पर ही रखना चाहिए।

अनेक मित्रों की यह धारणा रहती है कि मित्र से किसी बात का परदा न रखना चाहिये-कोई बात उससे न छिपानी चाहिए, पर यह कोई नियम नहीं, यह आवश्यक भी नहीं है। जिसके योग्य जो बात हो वही उससे कहनी चाहिये, यही साधारण नियम है। यदि कोई मित्र ऐसा है, कि उसके पेट में कोई बात नहीं पचती, तो उससे सब तरह के गुह्य कह देना अपने आपको धोखा देना है। इपिकरीटस ने जो कहा है कि मित्रों से क्षुद्र विषयों पर बात न करो, इसका अर्थ और व्यापक कर यह कहा जा सकता है कि मित्रों से व्यर्थ बातचीत करके अपना और उसका समय नष्ट न करो। ऐसा करने से जो बात न कहनी चाहिये, वह कभी न कही जायगी। व्यर्थ बाते करने वाले लोग अनेक बार ऐसी बाते कह डालते हैं जिनके कहने से पीछे उन्हें अनुताप करना पड़ता है। मित्र से कोई छल न करना चाहिये, इसका मतलब यह नहीं है कि उससे कोई बात न छिपानी चाहिये।

मित्रों को एक बात का ध्यान रखना चाहिये, वह यह कि अनेक मित्रों में परस्पर कलह करा देने वाले चुगलखोर नामक जीव पैदा हो जाते हैं। कभी सच्ची, कभी झूठी और “राई का पर्वत” बनाकर एक बातें दूसरे को सुनाया करते हैं। इनसे मित्रों को बहुत सावधान रहना चाहिए। इनकी बातें सुनकर इन्हें मैत्री में विष फैलाने का अवकाश ही न देना चाहिये।

शक्की मिज़ाज के मित्रों से कभी सुख नहीं होता। शक्की मिज़ाज वाले मित्रता के अधिकारी ही नहीं होते। ऐसे लोगों से जहाँ तक बने, दूर रहना चाहिये।

सन्मित्र से समृद्धि सौभाग्यशालिनी होती है और संकट सुसाध्य होता है। दोनों अवस्थाओं में उससे उपकार होता है। इसलिए सन्मित्र का अभिनन्दन करो, सहायता करो, उसके लिए परिश्रम करो, संकट में उसकी रक्षा करो, उस पर कोई आक्रमण करे तो उसके कंधे से कंधा लगाकर खड़े हो, उसके सुख से सुखी और दुःख से दुखी हुआ करो और जब वह विपद ग्रस्त हो, तब उसे साँत्वना दिया करो। ऐसा करो, तब समझा जायगा कि तुम अपना कर्त्तव्य पालन करते हो ।


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