(ले.- श्री डॉ. दुर्गाशंकर नागर संपादक ‘कल्पवृक्ष’)
जगत में जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है वह वास्तव में हमारी दृष्टि के अनुरूप ही है। जैसी प्रकृति है जैसा मन है उसी के अनुसार मन की रचना संसार में दिखाई देती है।
हमारे जीवन में कभी-कभी ऐसे प्रसंग आते हैं कि उस समय हमें कुछ अच्छा नहीं लगता, अन्तःकरण बड़ा व्याकुल हो जाता है। कुछ सूझ नहीं पड़ता। कहाँ जाना, क्या करना, किस से सलाह लेना, किसी से कुछ कहा नहीं जाता। इस स्थिति के लिए किसे दोषी ठहराएं? इसका कारण केवल हमारी दृष्टि ही है।
जब हम संसार को प्रतिकूल दृष्टि से देखते हैं तो उस समय संसार में प्रत्येक वस्तु हमें प्रतिकूल ही नजर आती है। जब हम अंधेरे में बैठे हुए हैं तो हमें सब दूर अंधकार ही अंधकार दिखाई देता है, परन्तु जब हम प्रकाश में आते हैं और निरन्तर प्रकाश में ही रहते हैं तो हमें प्रत्येक वस्तु ठीक प्रकार दिखाई देती है।
अपने दृष्टि बिन्दु को बदलो और शान्त हृदय से विचार करो। संसार और संसार के पदार्थ अपने स्वभाव को छोड़कर तुम्हारी इच्छानुकूल नहीं बदल सकते। तुम अपने मन को अनुकूल दृष्टिवाला बनाओ और जब तुम्हारा मन सुखमय स्थिति में होगा तो प्राणी-मात्र से ओर संसार के पदार्थ मात्र से तुम्हें सुख मालूम होने लगेगा।
जब तक तुम अपनी परमात्म-दृष्टि नहीं बनाओगे तब तक संसार के दुःखों से छुटकारा पाना असम्भव है। परमात्म-दृष्टि बनाने से ही सर्व कष्टों की निवृत्ति हो सकती है।
हम रात-दिन ऐसे परेशान और व्याकुल रहते हैं मानो सारे संसार का ठेका हमने ही ले लिया है। सहनशीलता का नाम-निशान नहीं, संतोष का पता नहीं जरा-जरा सी बातों पर बिगड़ जाना, आग-बबूला हो जाना और जीवन को भाररूप समझकर सदैव दुखी रहना, क्या यही हमारे जीवन का स्वरूप है?
संसार की दशा तो इस प्रकार ही रहती आई है ओर रहेगी। यदि संसार में अप्रिय घटनाएं होती हैं तो उनसे दूर भागने की चेष्टा न करो ओर न घबराओ। हृदय में धैर्य रखो। साहस के साथ उनका सामना करो। अपनी दृष्टि में परिवर्तन करो और प्रयत्न करो कि तुम किस प्रकार शान्त रह सकते हो।
बाहरी जगत में फेर-फार करने के पूर्व प्रथम अपने अन्तरात्मा में परिवर्तन करो। कैसा ही विकट प्रसंग हो, शान्त हो जाओ और नेत्र मूँदकर अपने अन्तर में गहरे उतरो। बाहरी जगत के तूफान को भूल जाओ। अपूर्व शान्ति में विलीन हो जाओ और तुम्हें क्या करना चाहिये-इसका उत्तर तुम्हारे अन्तर से तुम्हें प्राप्त होगा।
जो कुछ तुम और जगत में ढूँढ़ रहे हो वह तुम में ही है। तुम्हारा हृदय परमात्मा का सच्चा मन्दिर है। हृदय केन्द्र है। जब हमारे ध्यान की वृत्ति इस पर केन्द्रित होती है तो समस्त मलीनता दूर हो जाती है और नीच मानसिक विकार वहाँ प्रवेश नहीं कर सकते और हृदय उत्तेजित नहीं हो सकता। यही परमात्मा का गुप्त प्रदेश है और इसी हृद्देश में चित्त को संलग्न करने से परमात्मा दृष्टि की प्राप्ति होती है। जब इस प्रकार तुम यथार्थ दृष्टि प्राप्त कर लोगे तो प्रतिकूल वातावरण पर शासन कर सकोगे और जीवन को सुखमय बना सकोगे।