(भगवान वेदव्यास)
परत्र स्ववोध संक्रान्तये वागुक्ता सा यदि न वंचिता भ्रान्ता व प्रतिपत्ति बन्ध्या वा भवेदिति। एषा सर्वभूतोपकारार्थ प्रवृत्ता, न भूतोपघाताय। यदि चैवमप्यभिघीयमाना भूतोपघात परैव स्यान्न सत्यं भवेत् पापमेव भवेत्।
योग भाष्य 2/30
‘सत्य’ वह है, (चाहे वह वंचिता, भ्रान्ता और प्रति पत्ति बन्ध्या युक्त हो अथवा रहित) जो प्राणी मात्र के उपकारार्थ प्रयुक्त किया जाय न कि किसी प्राणी के अनिष्ट के लिए। यदि सत्यता पूर्वक कही गई यथार्थ बात से प्राणियों का अहित होता है - तो वह “सत्य” नहीं। प्रत्युत सत्या मास ही है और ऐसा सत्य भाषण असत्य में परिणत होकर पाप कारक बन जाता है। जैसे किसी गौ के अमुक मार्ग से जाने विषयक -गौ- घातक के पूछे जाने पर सत्य भाषी के यह कहने पर कि हाँ, गाय अभी अभी इस मार्ग से उधर को गई है। यह सत्य प्रतीत होने पर भी सत्य नहीं, प्रत्युत प्राणी घातक है। अतः आत्म रक्षार्थ एवं पर परित्राणार्थ अन्य उपायों के असंभव हो जाने पर असत्य भाषण करना भी सत्य ही है।