(पी. जगन्नाथ राव नाइडू, नागपुर)
एक बढ़िया इत्र अनेक रंग, रूप और आकार प्रकार की शीशियों में भरा हुआ है लेकिन देखने वालों में से किसी को कोई शीशी पसन्द आती है और किसी को कोई। जिसे जो शीशी सुहावनी मालूम पड़ती है वह उसे खरीद लेता है। यहाँ तक तो सब ठीक है। इसके आगे बढ़कर वे ग्राहक जब शीशियों के आकार प्रकार की आलोचना शुरू करते हैं, तब अपनी अपनी शीशी की सब प्रशंसा करते हैं और उसकी खूबसूरती को बखानते हैं यहाँ तक भी किसी हद तक ठीक ही है।
परन्तु उस मूर्खता के लिए क्या कहा जाये, जब इत्र खरीदने वाले, एक दूसरे की शीशी को बुरा बताने पर उतर आते हैं। भर पेट निन्दा करते हैं और अपनी शीशी की अन्धभक्ति में दूसरे की को तोड़ फोड़ डालने के लिये उद्यत हो जाते हैं। जब एक सम्प्रदाय दूसरे से झगड़ता है तब प्रतीत होता है कि वे लोग सम्प्रदाय का वास्तविक तात्पर्य ही नहीं समझते। सभी धर्मों के मूल में एक ही महान सत्य विराजमान है। फिर लड़ाई झगड़े का क्या काम? शीशियाँ अपनी अपनी रुचि की पसंद की जा सकती हैं, सम्प्रदाय अपनी इच्छानुसार रखे जा सकते हैं परन्तु यह न भूल जाना चाहिए सब के अन्दर एक ही इत्र भरा हुआ है। मजहबों में जो फर्क दिखाई पड़ता है वह उनके बाहरी आवरण का है भीतर तो सब में एकता है। यदि इस मर्म को लोग समझ लें तो साम्प्रदायिक कलहों का अन्त होने में देर न लगे।