ईश्वर प्राप्ति का सरल उपाय

January 1943

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(पं. राधे मोहन जी मिश्र बहराइच)

सरयू तट पर विराजमान स्वामी ओमानंद जी के समीप किसी गाँव का रामलाल नामक एक व्यक्ति आया। उसने स्वामी जी से करबद्ध प्रार्थना करते हुए कहा कि मुझे भी कुछ उपदेश दीजिये कि ईश्वर के दर्शन पा सकूँ स्वामी जी ने रामलाल से कहा- “ओ रामलाल! कृष्ण भगवान का ध्यान इस प्रकार करो कि भगवान कृष्ण पालथी मारे बाँसुरी हाथ में लिये हुये तुम्हारे हृदय कमल में बैठे हुए हैं, यह ध्यान करते हुये “ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय” मन्त्र का मन में जप करो।” रामलाल ने कहा गुरुजी मैं मस्तक शून्य हूँ यह ध्यान मैं नहीं कर सकता और यह मन्त्र इतना बड़ा है जप भी मेरे लिये कठिन है। स्वामी जी ने कहा अच्छा घबराओ नहीं। मैं तुमको एक और सरल मार्ग बता रहा हूँ सुनो पद्मासन पर बैठकर भगवान कृष्ण की पीतल की मूर्ति लेकर अपने सामने रखकर उसी के प्रत्येक अंग को देखना और किसी ओर न देखना फिर नेत्रों को बन्द करके उसी का अनुभव करना। रामलाल ने स्वामी जी के पैरों को पड़कर कहा कि महाराज मैं इस आसन पर इतनी देर बैठकर ध्यान नहीं कर सकता, क्योंकि बैठने से बड़ा कष्ट होगा। यदि मैं अपने कष्ट का ध्यान करूं तो मूर्ति का ध्यान नहीं हो सकेगा। गुरु महाराज कोई इससे सरल उपाय बतलाने की कृपा कीजिये। स्वामी जी ने कहा कि अपने पिता के चित्र को सामने रखकर एकाग्र चित्त से देखिये। स्वामी जी आगे का और वाक्य पूर्ण भी न करने पाये थे कि वह बोल उठा कि स्वामी जी पिता का ध्यान मुझसे नहीं हो सकेगा, क्योंकि वे मुझे बहुत पीटते थे। मैं उनसे बहुत डरता था। यदि कही स्वप्न में भी देख लेता हूँ तो रात्रि काटना कठिन हो जाता है मेरे पैर काँपने लगते हैं प्रभू! कोई सरल उपाय बताइये जिसको मैं कर सकूँ। स्वामी जी कुछ विचार कर थोड़ी देर पश्चात् बोले कि रामलाल! अच्छा, यह बतलाओ कि तुमको कौन वस्तु सबसे प्रिय लगती है। वह बोला कि भैंस, क्योंकि उससे दूध-मक्खन तथा घी बहुत खाया है और यह मेरे आंखों के सामने नाचती रहती है। स्वामी ने कहा कि तुम उस कोठरी में जाओ और दरवाजा बन्द करके बैठ जाओ और उसी भैंस का ध्यान करो और किसी अन्य बात को न सोचना। वह बड़ा प्रसन्न हुआ और स्वामी जी की आज्ञानुसार कार्य आरम्भ कर दिया।

तीन दिन बीत गये खाना पीना छोड़कर उसी ध्यान में लीन हो गया। एक दिन स्वामी जी उसे ध्यान मग्न देखकर पुकारा “ओ रामलाल बाहर आओ कैसी दशा है? रामलाल ने कहा कि मैं कैसे बाहर आऊँ मेरे तो बड़े-बड़े सींगे हैं मैं वृहत काय वाली भैंस हो गया हूँ। तब स्वामी जी समझ गये कि अब एकाग्र चित्त वाला तथा समाधि योग्य हो गया। स्वामी जी ने पुनः पुकार कर कहा कि तुम भैंस नहीं हो तुम अपना ध्यान बदल दो, भैंस का नाम रूप भूल जाओ और भैंस के सत स्वरूप सत, चित्त आनन्द का ध्यान करो यही तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है। रामलाल ने अपना मार्ग बदलकर स्वामी जी के उपदेशानुसार चलते हुए अपने जीवन लक्ष्य मुक्ति को प्राप्त किया। इस कथा से यह तात्पर्य निकलता है कि जो वस्तु प्रिय हो उसी का ध्यान करते हुए आगे बढ़ना चाहिए न कि मन को बलात् खींचकर किसी ध्यान में लगाना इससे मन टिकता नहीं है।

चिन्ता उन्मूलन प्रयोग

(श्री रामनरायण जी श्रीवास्तव “हृदयस्थ”)

साम्प्रत काल में प्रतिदिन उत्तरोत्तर आतंक एवं भविष्य चिन्ताओं का बाहुल्य बढ़ रहा है। मुमुक्षु तथा तत्वज्ञानी महानुभावों को छोड़कर अधिकाँश जन समुदाय आने वाले कल की करालना से दुखी है। इस मानसिक व्यथा का सफल उपचार दिव्य विभूतियों द्वारा पाकर भद्र पाठकों के समक्ष अनुभव की कसौटी पर कसने के लिये रखने का साहस करता हूँ, विश्वास है कि इससे हार्दिक शान्ति और अपूर्वनन्द की प्राप्ति होगी।

सूर्योदय से अनुमानतः दो घड़ी प्रथम शौचादि कृत्य से निवृत्त होकर किसी सुखकर एवं सुसाध्य आसन पर स्वस्थ बैठ जाइये, रीढ़ को जिसे सुषुम्ना नाड़ी का स्थान मानते है सीधी रखते हुये नेत्र बन्द करके मन ही मन (शब्दों से नहीं) ईश्वर के प्रति निम्नलिखित प्रार्थना यानी मूक चितवन कीजिये।

“हे परमपिता आप सर्व शक्तिवान तथा अन्तर्यामी हो, दया सागर होकर अपने प्रिय पुत्रों को मनचाही वस्तु देने वाले हो। हमें सद्ज्ञान दीजिये! गीता आदि सत् शास्त्रों का आदेश है कि यह विश्व तुम्हारी लीला मात्र है। इसका संचालन तुम्हारे भृकुटी विलास मात्र पर निर्भर है आपकी इच्छा के बिना पत्ता तक नहीं हिल सकता। अस्तु!

हम विश्वास करते हैं कि हमारी प्रत्येक क्रियाओं में आपकी इच्छाओं का समावेश है। अतएव हे परम पिता हमें सद्ज्ञान दीजिये! ताकि उचित कर्तव्य कर्म करते हुए, जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिये सजग रहकर शान्तिमय जीवन बितावें।”

उपरोक्त प्रार्थना के अनन्तर “हरे राम-राम” मन्त्र से एक माला (108 जप करें) (हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे) पश्चात् स्वात्मा का अनुभव करते हुए मूक चितवन द्वारा यह भावना करें कि “मैं पवित्र अविनाशी और निलिप्त आत्मा हूँ यह शरीर तो आवरण मात्र है इसके नाश होने पर मेरी मृत्यु नहीं होती। मैं संसार की समस्त नाशवान वस्तुओं से सर्वथा अलग हूँ और उस परब्रह्म परमात्मा का अमर पुत्र हूं- (आगे का श्लोक स्पष्ट उच्चारण करें)

यस्य नाम्नैव नश्यंति खेदा यं हरिं नेति गायन्ति वेदाः।

श्री विराऽव्यय करालं नौमि वंशीधर नन्दवालम्॥”

बन्धुवरो! इस प्रयोग साधन में आपको बीस मिनट से अधिक नहीं लगेंगे। इससे आपके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में क्या चमत्कारिक परिवर्तन होगा वह लिखने का नहीं, किंतु अनुभव का विषय है।


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