दुर्दशा का अन्त

January 1943

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अनेक विद्वान, आध्यात्म तत्ववेत्ता, भविष्यदर्शी महानुभाव बहुत दिन पूर्व से ही यह कहते आ रहे हैं कि “सम्वत् 2000 में खण्ड प्रलय होगी। उस वर्ष संसार के ऊपर बड़ी बड़ी विकट आपत्तियाँ आवेंगी एवं बड़ा भारी जन संहार होगा, तत्पश्चात् नवीन युग की सतयुग की स्थापना होगी”।

उपरोक्त कथन से हम पूर्णतया सहमत हैं हमारा विश्वास है कि संवत् 2000 विक्रमी का वर्ष इतना महत्वपूर्ण है कि शायद अगले कई हजार वर्षों में इतना महत्वपूर्ण संवत् दूसरा न आवे। महायुद्ध का पूर्णतः अन्तिम निर्णय होने में तो अभी बहुत समय लगेगा परन्तु संवत् 2000 में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जावेंगी जिनके आधार पर अन्तिम निर्णय की भूमिका का भली प्रकार परिचय प्राप्त हो सकेगा। उलझी हुई गुत्थियाँ धीरे-धीरे सुलझने लगेंगी और यह पता चलने लगेगा कि इसका अन्त किस प्रकार होने वाला है। संवत् दो हजार के अन्त में आकाश साफ होने लगेगा और प्रभात के आगमन की पूर्व सूचना स्पष्ट रूप से प्राप्त होने लगेगी। इस वर्ष में तो कई बार परिस्थितियाँ पलटा खावेगी। कभी एक पक्ष कभी दूसरा पक्ष आगे पीछे बढ़ता दिखाई देगा, इस दरम्यान बुद्धि के मनुष्य कुछ ठीक-ठीक अन्दाजा न लगा सकेंगे, परन्तु वर्ष के अन्तिम दिनों में फैसले का अन्दाजा लगाना सर्वसाधारण के लिए भी सरल हो जायेगा।

संवत् 2000 में ही युद्ध का अन्त हो जायेगा ऐसा हम नहीं कहते। हमारी दृष्टि में यह कलह अभी आगे तक चलेगा। मित्र, शत्रु के रूप में और शत्रु मित्र के रूप में बदलते दिखाई देंगे। शान्ति के स्थानों में आग भड़केगी और आग उगलने वाले ज्वाला मुखी शान्त हो जावेंगे। लोगों को ऐसी ऐसी कई कठिनाइयों के बीच में होकर गुजरना पड़ेगा, जिसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। सोना, चाँदी, गोली, बारूद, तेल, कोयला, रसद, हथियार तथा मनुष्यों की बड़ी भारी क्षति होगी। साधनों के अभाव में थके हुए, परास्त देश प्रत्यक्ष रूप से पराजित, शान्त हो जायेंगे परन्तु उनके भीतर प्रतिहिंसा, क्षोभ तथा क्रोध की अग्नि धधकती रहेगी। यह अग्नि रह रह कर उभरेगी। शान्ति को भंग करके एक दम अशान्ति के चिन्ह प्रकट हो जाया करेंगे। जिन देशों की जीत होगी वह भी करीब-करीब पराजित से ही होंगे, क्योंकि हारे हुए देशों को काबू में रखने के लिये बलपूर्वक दमन की प्रणाली पर विशेष ध्यान देना पड़ेगा और उसमें उनकी शक्ति का बहुत अंश व्यय होता रहेगा। हो सकता है कि एक दो वर्ष में ही इस युद्ध की हार जीत प्रकट हो जाय, परन्तु वह स्थायी न होगी अक्सर अशान्ति, बगावत, खून खराबी, अव्यवस्था के उबाल आते रहेंगे और बार-बार संसार की शान्ति भंग होती रहेगी। शान्ति और व्यवस्था कायम करने में ही अत्यधिक शक्ति खर्च होती रहेगी। नव निर्माण का कार्य जहाँ का तहाँ अधूरा पड़ा रहेगा, क्योंकि शान्ति के बिना कोई नई व्यवस्था न तो स्थायी रूप से बन सकती है और न चल सकती है।

कौन पक्ष जीतेगा, इस प्रश्न का उत्तर देने की कोई आवश्यकता नहीं, केवल इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि निकटवर्ती फैसला जो कि शस्त्र बल से होगा, अस्थायी साबित होगा उसमें पूर्ण रूप से अधर्म का नाश न हो पावेगा और न पूर्ण रूप से धर्म की विजय होगी। यह कार्य अधूरा होगा। शस्त्रों का फैसला अस्थायी और धर्म का फैसला स्थायी होता है। शस्त्र विजय के साथ धर्म विजय की भी आवश्यकता है। संसार में सच्ची शान्ति शस्त्रों से नहीं वरन् ईमानदारी से होती है इस समय शक्ति के नशे में चूर होकर संसार शस्त्रों को प्रधानता दे रहा है, ईमानदारी का मूल्य उसकी समझ में न कुछ के बराबर है। बुद्धिमान लोग इसे भूल नहीं मानते, वरन् इसे अपनी बुद्धि, चातुरी, कूटनीतिकता मानते हैं। हमारा विचार है, कि शस्त्र की अपेक्षा ईमानदारी का बल अधिक है। महाप्रभु ईसा मसीह को सत्ता धारियों ने हथियार के बल से मिटा दिया था, परन्तु पीछे उन्हें पता चला कि हथियार से भी सत्य का बल अधिक है। आज शक्तिवान सत्ताधारी उसी भूल को फिर दुहरा रहे है। किसी भी प्रकार से जीत की लालसा मानवता को तिलाँजलि दे दी जाती है।

यह मनोभावनाएं जब तक काम करती रहेंगी। तब तक संसार में शान्ति कायम न होगी। बहुत ठोकरें खाने के बाद अभी वर्षों का बहुमूल्य समय खो देने के बाद बुद्धिमान लोग यह महसूस करेंगे, कि बारूद से नहीं सद्भावना से शान्ति कायम हो सकती है। जब विजयी और पराजित दोनों ही नाश, क्षोभ, क्रोध, उत्पात, खून खराबी और दमन से ऊब जायेंगे, तब वे भूल को महसूस करेंगे। बहुत कुछ खोने के बाद वे यह समझ पायेंगे कि लूट, आपा-पुती, शोषण और दमन की रीति बुरी है। झूठी-झूठी बातें प्रचारित करने से, बहकावे, और फुसलावे देने से, दूसरों को अपने पक्ष का नहीं बनाया जा सकता, वरन् हृदय परिवर्तन होने पर जो ईमानदारी का प्रत्यक्ष रूप से दिव्य दर्शन होता है, उसी के प्रभाव से परायों के दिल जीत कर उन्हें वे पैसे का और बिना हथकड़ी का गुलाम बनाया जा सकता है।

ऐसी सद्बुद्धि हमारे आज के राष्ट्रपतियों में देर से आवेगी। तब तक धरती माता रक्त से स्नान करती रहेगी। जिस दिन विवेकवान् मनुष्य हथियारों की अपेक्षा ईमानदारी को अधिक महत्व देंगे, उस दिन अन्तरिक्ष से उतरती हुई भगवती शान्ति देवी पृथ्वी पर प्रकट होगी। दोनों ही पक्ष जब थक जायेंगे तो निशस्त्रीकरण की आवश्यकता अनुभव करेंगे और विजय की अपेक्षा विश्व बन्धुत्व को महत्व देंगे। ऐसी भावनायें जब संसार में फैलने लगे तब समझना चाहिए कि सच्ची और स्थायी शान्ति का समय अब निकट आ गया।

सन् दो हजार में युद्ध अपनी भयंकरता पर रहेगा। इसके अन्तिम दिनों में अस्थायी विजय के चिन्ह प्रकट होने लगेंगे। उसके उपरान्त कुछ समय में महायुद्ध का निर्णय हो जायेगा। स्थूल दृष्टि से हथियारों का युद्ध समाप्त हो जावेगा, परन्तु क्रोध और प्रतिहिंसा की भावनाएं जीवित रहने के कारण सूक्ष्म युद्ध जारी रहेगा। इसके कारण कई वर्षों तक अशान्ति बनी रहेगी। साथ ही बीमारियों के प्रबल प्रकोप होंगे। भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़ आदि नाना प्रकार के देवी प्रकोपों से मनुष्य जाति का कष्ट बढ़ता रहेगा। अन्त में एक समय ऐसा आयेगा जब संसार के विचारशील मनुष्य मिलकर स्थायी शान्ति की मन्त्रणा करेंगे। जातिगत, देशगत, दलगत, तुच्छ, स्वार्थों को छोड़कर वे सम्पूर्ण मानव जाति की हित दृष्टि से कोई व्यावहारिक योजना बनायेंगे। सत्य और न्याय की प्रधानता रखने वाली भावनायें लोक में आदर प्राप्त करती हैं। इस सार्वभौम शान्ति की योजना का संसार में सर्वत्र आदर किया जायेगा। भ्रातृभाव, समता, सदाचार, प्रेम, ईमानदारी, न्याय के आधार पर विश्व हितकारी धर्म, नीति, ज्ञान, शिक्षा, समाज, शासन आदि की रचना होंगी। तब सतयुग दृष्टि गोचर होगा। इस कार्य में दस वर्ष भी लग जावें तो क्या उसे अधिक समय कहा जायेगा?

संवत् 2000 के बाद सतयुग आवेगा। इसका अर्थ यही लेना चाहिए, कि आगे के लिये उत्तम परिस्थितियाँ बनना आरम्भ हो जायेगा। आषाढ़ मास में दिन छोटा होना शुरू हो जाता है, परन्तु जिस दिन से दिन छोटा होना शुरू हुआ, उसके दूसरे ही दिन ऐसा नहीं हो सकता कि दिसम्बर की बराबर 10 घन्टे का दिन हो जायेगा। 14 घण्टे के दिन को 10 घन्टे का होने में प्रायः 6 महीने लग जाते हैं। इसी प्रकार संवत् 2000 के बाद श्रेष्ठ युग आने का बीजारोपण हो जायेगा और वह पौधा धीरे-धीरे बढ़ता हुआ अन्त में पल्लवित वृक्ष हो जायेगा। मनुष्य जीवन में जैसे एक घन्टे का कुछ विशेष महत्व नहीं है, वैसे ही विश्वव्यापी किसी भली बुरी व्यवस्था के कायम होने में पच्चीस पचास वर्ष भी अधिक नहीं है, सुन्दर आभूषण बनाने के लिए सोना लेकर सुनार बैठता है। कुछ समय में आभूषण बनकर तैयार हो जायेगा, परन्तु सुनार के सोना छूते ही वह नहीं बना जाता। सोने को गलाना, नये साँचे में डालना, खरादना, पालिस करना, यही सब जलाने, काटने, घिसने, ठोकने, पीटने के कार्य आरम्भ में होते हैं। सतयुग का निर्माण आरम्भ करते हुए परमात्मा भी वर्तमान सृष्टि की ऐसी ही ठोक पीट आरम्भ कर रहा है, जब तक आभूषण बिल्कुल साफ सुन्दर नहीं हो जाता, तब तक सुनार के औजार उस पर चोट करते ही रहते हैं। सर्वत्र पूर्ण रूप से सुव्यवस्था स्थापित होने तक संघर्ष, कष्ट और कठिनाइयों का दौर जारी रहेगा अवश्य ही धर्म युग प्रवर्तित होगा पर उसके आगमन से पूर्व हथौड़े की अनेक चोटें भी सहनी होंगी। केवल एक वर्ष कठिनाइयों में गुजारना है, ऐसा सोचने वाले अपने विचारों को बदल दें। इस निर्माण कार्य में अनेकों को बल पूर्वक नष्ट होना पड़ेगा और अनेकों को इस महान यज्ञ में अपनी स्वेच्छा आहुति देकर ईश्वरीय अवतार की इच्छा पूर्ण करनी होगी। तब कहीं क्रान्ति का समय उपस्थित होगा। उस उत्तम समय के लिए यदि दस वर्ष भी प्रतीक्षा करनी पड़े तो इतना समय इस महान कार्य के पूरा होने की तुलना में कुछ वर्णों के समान ही थोड़े प्रतीत होंगे।


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