सन्तोष का फल मधुर है।

January 1943

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(श्री नारायण प्रसाद जी तिवारी ‘उज्ज्वल’)

किसी कसाई के यहाँ एक बकरा और कुत्ता था, बकरे को वह अच्छे स्थान पर बाँध कर नित्य हरी-हरी घास खिलाता, उसके रहने का स्थान साफ किया करता था। कुत्ते को सूखे रूखे टुकड़े दे दिया करता था। धूप, वर्षा, शीत का कष्ट सहन करते हुए, सूखे टुकड़े पाकर अपने मालिक की सेवा करता हुआ कुत्ता अपने मन में विचार करने लगा, मैं इतना कष्ट सहन कर मालिक की सेवा करता हूँ और बकरा जो कुछ भी सेवा नहीं करता उसे सुस्वाद भोजन मिला करते है। इस प्रकार के विचारों से ईश्वर के अस्तित्व अथवा उसके न्याय पर शंका होने लगी।

बकरा दिन-दिन मोटा होने लगा, जिससे कुत्ते की ईर्ष्या भी बढ़ने लगी। जब बकरा खूब तैयार हो गया तो कुत्ते ने देखा कि कसाई ने अपनी छुरी उसकी गर्दन पर फेर दी और माँस विक्रय कर जितना उस बकरे के लिए व्यय किया था, उससे कई गुना लाभ कमाया।

कुत्ते ने यह देखकर नास्तिक भाव से घृणा कर यह विश्वास किया कि ईश्वर न्यायी हैं, हराम की कमाई किसी दिन इसी प्रकार जान पर संकट लाती है। रूखी सूखी खाकर सन्तोष से जीवन व्यतीत करने का फल मीठा होता है।


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