प्रसन्न रहो

August 1940

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प्रसन्न रहो-प्रसन्न रहना ही जीवन का सुख है, सौंदर्य है, कारण यही वह चीज है जिसके अभाव में मनुष्य म्लान, दुखी व नीरस दिखाई देता है। हंसना-जी खोलकर हंसना-वह कला है जो मनुष्य के पहाड़ समान दुख को भी लघुकाय बना देती है, जो जीवन में उत्साह आमोद और प्रमोद का संदेश लाती है, जो जीवन को रस व स्नेह से स्निग्ध बनाती है।

जिसके मुँह पर मृदुल हंसी की रेखा खिंची होती है उसके प्रति कौन आकर्षित नहीं होता। किसी इच्छा उससे दो बातें कर अपने आपको तृप्त करने की नहीं होती ? परिचित उसके संसर्ग में स्वर्गीय आनंद अनुभव करते हैं, अपरिचित भी उससे परिचय प्राप्त करने को उत्कंठित हो उठते हैं-ऐसा है इस हंसी में-प्रसन्नता में वशीकरण।

प्रसन्न बने रहने के बाहर साधन ढूंढ़ने की जरूरत नहीं-घर में जिज्ञासु दृष्टि डालो और उसी घर में जहाँ तुम्हें पहिले फीकापन-सा अनुभव होता था, तुम हंसी का-प्रसन्नता का फव्वारा चलता हुआ पाओगे। देखो, किलकारी मारता हुआ वह बच्चा तुम्हारी और दौड़ता हुआ चला आ रहा है, उसे झिड़को नहीं, गोद में उठाओ और उससे बातें करो-देखो अपने मौन और अर्धमुखरित भाव में वह मनो-विनोद का कैसा रहस्य छिपाये है। वह देखो, मुन्नी आपके कंधे पर चढ़ बैठी, उससे बात पूछो और सुनो कि अपनी तुतलाती बोली में वह कैसा मधुर जवाब देती है। और, उधर दृष्टि डालो वह ‘बेबी’ भी आ रहा है। उससे पूछो, तुम्हें कैसी बहू चाहिए, वह कहेगा फूल-सी कोमल और खिल-खिल कर हंसती हुई और उसके खिल-खिलाकर हंसने के साथ आप भी अपने आपको उसी अवस्था में पायेंगे। जब बच्चों में प्रकृति के इन सरल अबोध निश्चल खिलौनों में रस का सरोवर बह रहा है, तो आप और कहाँ अपने लिए आनंद ढूंढ़ने जा रहे हैं ?

यदि तुम व्यवसायी हो, अपने काम को ठीक प्रकार समझते हो तो अवश्य घर आते ही अपनी चिन्ताओं को दूर कर दो; घर में जब तक रहो कामकाज को बातों से दूर रहो, छोटे बच्चों के साथ खेलो, घर में माँ बहिन, स्त्री के साथ जी भरकर दिल खोलकर पेट भरकर बात करो। मित्रों के साथ हंसी दिल्लगी करो, खेलो-कूदो, तुम देखोगे दूसरे रोज पहले रोज का कठिन काम कितना सरल और आनन्ददायक हो जाता है।

तुम खूनी हो पर फाँसी लटकने जा रहे हो फिर भी हंसो। जिस शरीर से पाप बन पड़ा उसी का अन्त हो रहा है क्या यह हंसने के लिए कम बात है ? वेश्या को क्या तुमने दिल खोलकर हंसते नहीं देखा, उनके प्रसन्न रहे बिना-रोजगार भी न चलेगा। क्या हुआ यदि तुम्हारा कुटुम्ब बड़ा है उसके पालन पोषण करने में तुम्हारा विवाह न हुआ, विद्याध्ययन न कर सके, तुम्हारे लिए भरसक परिश्रम करने के दूसरा कोई रास्ता नहीं पर फिर भी प्रसन्न क्यों नहीं रहते हो ? गरीब आदमी क्या अपनी झोंपड़ी में अपने बाल बच्चों के साथ हंसते-खेलते नहीं ?

जब पास में पैसा न हो तब भी जरा देर के लिए दिल खोल कर हंस लो। ईश्वर पर विश्वास रखो, जब वह सुख दे तब हंसो और विपत्ति में डाल दे तब रोओ यह तो, ठगबाजी है।

जगत में सभी कुछ दबा दिया जा सकता है पर राख की तरह बाह्य आचरणों से अन्तरात्मा में छुपी हुई आग ढकी नहीं जा सकती। हंसने के लिए इस वास्ते यह जरूरी है कि सारी दुनिया की परवाह न कर अपनी आत्मा की आवाज सुनो और उसके आदेश का पालन करो। बच्चों की भाँति भोला, सरल, पवित्र हृदय बना लो, किसी भी बात का बुद्धि द्वारा उलट फेर कर मन को समझा दो पर अन्तरात्मा में जब तक भगवान के स्वच्छ प्रकाश का आलोक न होगा तब तक सुख कहाँ रखा है?


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