ब्राह्मणों से श्रेष्ठ

August 1940

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(श्री पदमचंद गर्ग ‘पद्म’ इंदौर)

दुनियादारी के चक्कर में चिरकाल तक पिसने के बाद आत्मा को एक विशेष शाँति की आवश्यकता होती है। भगवान भास्कर दिन भर अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए एक विश्राम चाहते थे। वे एकान्त सेवन के लिए अस्त ही हुआ चाहते थे। इस संध्या समय में महर्षि गौतम का आश्रम बड़ा शोभायमान हो रहा था। संध्या की सुनहरी धूप ने मानो उस उपवन में स्वर्ण बखेर दिया हो। गुरु चरणों के निकट बैठकर छात्रगण अपना पाठ पढ़ रहे थे।

इसी समय एक अपरिचित बालक आया। उसने परिक्रमा करके गुरुचरणों में प्रणाम किया और विनम्र भाव से कहने लगा-भगवान ! मैं विद्या पढ़ने के लिए आपके चरणों में उपस्थिति हुआ हूँ। मुझे विद्या दान दीजिए।

गुरु ने बालक को आशीर्वाद दिया और पूछा - वत्स, तुम्हारा क्या वर्ण है ? वर्ण के अनुसार ही विभिन्न विद्याएं प्राप्त करनी चाहिए। ब्रह्म विद्या का अधिकार ब्राह्मणों को ही है।

बालक ने मस्तक झुकाकर उत्तर दिया - ‘भगवान मुझे अपने वर्ण का पता नहीं है। मैं जाकर अपना वर्ण पूछ आता हूँ।’

आश्रम में चलकर नदी को पार करता हुआ बालक अपनी कुटी पर पहुँचा। भीतर पुत्र की प्रतीक्षा में मरतर बैठी हुई थी एक मन्द दीपक पास में टिलटिला रहा था। पुत्र को आया देखकर माता को चिन्ता प्रसन्नता में परिणत हो गई।

बालक ने माता से गुरु का प्रश्न कह सुनाया। पूछा -”माता ! मैं किस वर्ण का हूँ? मेरे पिता कौन हैं?”

माता की आंखें लज्जा से पृथ्वी में गड़ गई। उसने धीमे स्वर में कहा-”पुत्र! बड़ी दरिद्रता की दशा में मैंने अपना जीवन काटा है। युवावस्था में पेट के लिए मुझे अनेक पुरुषों की सेवा करनी पड़ी है। मेरी गोदी है, किन्तु पति कोई नहीं।’

कर्म सबको करना होता है। रूप धारण करके कोई निःचेष्ट नहीं रह सकता। प्रकृति के चक्र पर संपूर्ण पदार्थ चाक पर चढ़ी हुई मिट्टी की तरह घूमते रहते हैं। दूसरा दिन आया। प्रातःकाल होते ही सूर्य ने पुनः अपना कर्तव्य कर्म आरंभ कर दिया। वन पर्वत सभी प्रातः रश्मियों से चमक उठे। गुरु गौतम के आश्रम की पाठशाला में वेद ध्वनि सुनाई पड़ने लगी।

बालक सत्य काम आया और ऋषि के चरणों में प्रणाम करने चुपचाप खड़ा हो गया।

गुरु ने पूछा - पूछ आये ? बताओ किस वर्ण के हो ?

बालक ने कहा - भगवन् मेरी माता ने कहा है - ‘बड़ी दरिद्रता की दशा में मैंने अपना जीवन काटा है। युवावस्था में पेट के लिए मुझे अनेक पुरुषों की सेवा करनी पड़ी है। मेरी गोदी है, किन्तु पति कोई नहीं।’

छत्ते की क्रुद्ध बर्रों की तरह छात्रगण आपस में भिनभिनाने लगे। धर्म का वास्तविक तत्व से अपरिचित वर्ण धर्म का मूल रहस्य न जानने वाले किसी कुल में जन्म लेने मात्र के कारण ही से उस व्यक्ति के संबंध में मत निर्धारित कर लेते हैं।

परन्तु गुरु दृष्टा थे। उनने जान लिया कि आत्म दोष को सबके सामने निस्संकोच प्रकट कर देने वाला, अपमान के भय से विचलित न होने वाला और हानि होने की संभावना देखते हुए भी सत्य पर दृढ़ रहने वाला नीच नहीं हो सकता।

महर्षि गौतम अपने आसन पर से उठे और भुजाएं पसार कर बालक को छाती से लगा लिया और कहा- वत्स सत्य काम! तुम ब्राह्मणों से श्रेष्ठ हो।

(छाँदोग्य उपनिषद्)


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