भोगे बिना छुटकारा नहीं

August 1940

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(पं. जगन्नाथप्रसाद शर्मा, दाँता)

वह दोनों सगे भाई थे। गुरु और माता पिता के द्वारा शिक्षा पाई थी, पूजनीय आचार्यों से प्रोत्साहन पाया था, मित्रों द्वारा सलाह पाई थी। उन्होंने वर्षों के अध्ययन, चिन्तन और अन्वेषण के पश्चात जाना था कि दुनिया में सबसे बड़ा काम जो मनुष्य के करने का है वह यह है कि अपनी आत्मा का उद्धार करे। मूर्ख इसे नहीं जानते। वे पत्ते-पत्ते को सींचते फिरते हैं फिर भी पेड़ मुरझाता ही चला जाता है। संसार की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक शारीरिक सभी प्रकार की समस्यायें इसी एक बात पर निर्भर हैं कि आदमी ईमानदार बने, सदाचारी हो, आत्म कल्याण करे।

वे दोनों भाई शंख और लिखित इस तत्व को भली प्रकार जान लेने के बाद तपस्या करने लगे। पास पास ही दोनों के कुटीर थे। मधुर फलों के वृक्षों से वह स्थान और भी सुन्दर एवं सुविधाजनक बन गए। ये दोनों भाई अपनी-अपनी तपोभूमि में तप करते और यथा अवसर आपस में मिलते-जुलते थी।

एक दिन लिखित भूखे थे। वे भाई के आश्रम में गये और वहाँ से कुछ फल तोड़ लाये। उन्हें खा रहे थे कि शंख भी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने पूछा यह फल तुम कहाँ से लाये ? लिखित ने उन्हें हंसकर उत्तर दिया-तुम्हारे आश्रम से।

शंख यह सुनकर बड़े दुखी हुए। फल स्वयं कोई बहुत मूल्यवान वस्तु न थे। दोनों भाई आपस में फल लेते देते भी रहते थे किन्तु चोरी से बिना पूछे नहीं उन्होंने कहा-भाई ! यह तुमने बुरा किया। किसी की वस्तु बिना पूछे लेने से तुम्हें चोरी का पाप लग गया। लिखित को अब पता चला कि वास्तव में उन्होंने पाप किया है और पाप के फल का बिना भोगे छुटकारा नहीं हो सकता।

दोनों भाई इस समस्या में उलझ गये कि अब क्या करना चाहिए। पाप का फल तुरंत ही मिल जाय तो ठीक अन्यथा प्रारब्ध में जाकर वह बढ़ता ही रहता है। और आगे चलकर ब्याज समेत चुकाना पड़ता है। निश्चय हुआ कि इस पाप का फल शीघ्र ही भोग लिया जाय। चूँकि दंड देने का अधिकार राजा को होता है इसलिए लिखित अपने कार्य का दंड पाने के लिए राजा सुद्युम्न के पास पहुँचे।

इस तेज मूर्ति तपस्वी को देखकर राजा सिंहासन से उठ खड़े हुए और बड़े आदर के साथ उन्हें उच्च सिंहासन पर बिठाया। तदुपरान्त राजा ने हाथ जोड़कर तपस्वी से पूछा-महाराज कहिये मेरे योग्य क्या आज्ञा है ? लिखित ने कहा-राजन्! मैंने अपने भाई के पेड़ से चोरी करके फल खाये हैं सो मुझे दंड दीजिए इसीलिए आपके पास आया हूँ।

राजा बड़े असमंजस में पड़ा। इस छोटे से अपराध पर इतने बड़े तपस्वी को वह क्या दंड दे। और वह भी ऐसे समय जबकि वह स्वयं अपना अपराध स्वीकार करते हुए दंड पाने के लिए आया है। राजा कुछ भी उत्तर न दे सका।

तपस्वी ने उसके मन की बात जान ली। और उन्होंने न्यायाधिपति से स्वयं ही पूछा कि बताइये शास्त्र के अनुसार चोरों को क्या दंड दिया जाता है? न्यायाधीश अपनी ओर से बिना कुछ कहे शास्त्र का चोर प्रकरण निकाल लाये। उसमें विधान था कि चोर के हाथ काट लिये जायें।

‘यही दंड मुझे मिलना चाहिए।’ तपस्वी ने कहा - न्याय दंड किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। व्यक्तियों का ख्याल किये बिना निष्पक्ष भाव से जो व्यवहार किया जाता है वही सच्चा न्याय है। राजन् तुमने मुझसे आते समय यह पूछा था मेरे योग्य क्या आज्ञा है? मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि शीघ्र ही मेरे दोनों हाथ कटवा डालो।’ राजा विवश था, उसे तपस्वी की आज्ञा पालन करनी पड़ी।

अपने अपराध का दंड पाकर तपस्वी लिखित प्रसन्नतापूर्वक आश्रम को लौट आये। अपने भाई की कर्त्तव्य परायणता और कष्ट सहनशीलता को देखकर शंख का गला भर आया और वे उनके गले से लिपट गये। शंख ने कहा-अपराधी हाथों को लेकर जीने की अपेक्षा बिना हाथों के जीना अधिक श्रेष्ठ है। लिखित ! पाप का फल पाकर अब तुम विशुद्ध हो गये।

शंख की आज्ञानुसार लिखित ने पास की नदी में जाकर स्नान किया। स्नान करते ही उनके दोनों हाथ फिर वैसे ही उग आये। वे दौड़े हुए भाई के पास गए और उन नये हाथों को आश्चर्य पूर्वक दिखाया।

शंख ने कहा-भैया, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। हम लोगों की तपस्या के कारण ही यह क्षतिपूर्ति हुई है। तब लिखित ने और अधिक अचंभित होकर पूछा-यदि हम लोगों की इतनी तपस्या है तो क्या उसके बल से उस छोटे से पाप को दूर नहीं किया जा सकता था ?

शंख ने कहा- ‘न’ पाप का परिणाम भोगना ही पड़ता है। उसे बिना भोगे छुटकारा नहीं मिल सकता।

(महाभारत)


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