अहंभाव का प्रसार करो !

August 1940

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विवाह का उद्देश्य

(प. शिवनारायण शर्मा, हैड मास्टर, वि.घ.व. पाठशाला, आगरा)

भारतवर्ष के प्राचीन ऋषियों ने इस अहंभाव का प्रसार बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के उत्कृष्ट उपाय दिखाये हैं। उन्हीं में से एक उपाय विवाह संस्कार है। विवाह का उद्देश्य वही अहं (मैं) का प्रसार है। पाठक एकाग्रचित्त से विचार करें कि विवाह विधान किस लिये हुआ है। अन्यान्य धर्मों में विवाह अवश्य कर्त्तव्य कर्मों में नहीं है। समाज शृंखला साधन के लिए सामाजिक युक्ति मात्र है। किन्तु गृहस्थ हिन्दु के पक्ष में विवाह एक अवश्य कर्तव्य कर्म और सर्व प्रधान संसार धर्म है। प्राचीन ऋषियों की जीवनी पढ़ने पर आप देखेंगे कि व्यास वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, याज्ञवल्क्य आदि महापुरुषों ने विवाह किये थे। वेद पढ़ने पर आप देखेंगे कि ऋषियों के पुत्र, पौत्रादि ने भी अपने पूर्व पुरुषों की भाँति आध्यात्मिक सामर्थ्य के प्रभाव से ऋषि पद पर अधिकार किया था। हिन्दू मात्र का विवाह एक विशेष धर्मानुष्ठान है।

अविद्या के कारण मनुष्य अहंकार व ‘अहंभाव’ से परिपूर्ण है, मैं के सिवाय और कुछ विचारते ही नहीं। जिसमें ‘मैं’ देखते या जिसको ‘मैं’ जानते हैं, उसी में प्रीति करते हैं। ‘मैं’ के सिवाय और किसी में भी प्रीति नहीं है। शिक्षा अधिकार भेद से होती है। बिलकुल धनवान को एकदम अति उच्च ब्रह्म ज्ञान नहीं दिया जाता, ऐसा ज्ञान दिया जाए तो वह कुछ भी नहीं समझ सकता जिस स्थान में पहले था वहीं रह जाता है। अतएव इसको शनैः-शनि उस दिशा में ले आते हैं। अब विचारपूर्वक देखिए। विवाह करने से स्त्री मिलेगी, इन्द्रिय परिचर्या होगी, साँसारिक अनेक प्रकार की सुविधा होगी, पुत्र-पौत्र सहित आनन्द से समय व्यतीत करेंगे, इत्यादि अनेक आशायें विवाह के पूर्णकाल से ही मनुष्य के मन उठती हैं। विवाह हुआ कुछ दिन बाद पूर्व का वह सुख स्वप्न दूर हो गया। बड़ी आपदा ! जब अकेला था तब अच्छा था, आज मद्रास, कल बम्बई, परसों लाहौर, फिर काश्मीर, फिर तिब्बत, इत्यादि जगह- जगह मनमानी सैर करता था। अकेला पेट चाहे जैसे भर लेता था, कुछ श्रम करें या न करें दिन कट जाता था। अब वह विपद है कि सवेरे से रात के दोपहर तक खटते हैं विश्राम नहीं मिलता तब सुख कहाँ ? स्त्री बीमार रहती है, आप इतना श्रम करता हूँ फिर उसकी शुश्रूषा। क्रम से लड़के-लड़की हुये, उनका पढ़ाने-लिखाने और विवाह आदि का खर्च गले पड़ा। उनके सुख-दुख बीमारी आदि ने आच्छन्न कर डाला। अब देखिये कि विवाहित पुरुष अपने सुख की कुछ भी चिन्ता न करके, किस तरह पुत्र परिवार का पालन करूं किस तरह उनको सुख हो, कैसे वह सुशिक्षित हों किस तरह निरोग रहें, किस तरह कन्या का उत्तम सुयोग्य वर के साथ विवाह करूंगा, इत्यादि चिन्ताओं में अपना सुख भूल गया, विवाह का उद्देश्य भी सिद्ध हो गया।

विवाह का उद्देश्य आत्म-सुख नहीं है बल्कि विवाह का उद्देश्य है ‘अहंभाव’ का व आत्म प्रसार विवाह का उद्देश्य अपनी संकुचित ‘मैं’ को प्रसारित करके धीरे-धीरे दूसरों की ‘मैं’ में मिला देना। अविद्या ग्रस्त मनुष्य क्या एकदम अपरिचित व्यक्ति में अपना ‘मैं’ त्याग कर सकता है ? कभी नहीं, इसलिए विवाह का विधान है। ज्यों ही विवाह हुआ त्यों ही आपका मैं, जो केवल तुम्हें था दूसरे एक मनुष्य में जाकर फैल गया। और एक जन के सुख-दुख के साथ आपका सुख-दुख मिल गया जो एक में सीमाबद्ध था वह दो में हो गया, क्रम से बहुत से परिवार में फैल गया। आप अपने ‘मैं’ को छोड़ अन्ततः और एक जन के ‘मैं’ को अपना ‘मैं’ मानने लगे। अहंभाव (मेरेपन) की सीमा खूब बढ़ चली। अब केवल आप ही अच्छे कपड़े पहनने से काम नहीं चलेगा, स्त्री को भी कपड़े लेने होंगे, केवल आप घड़ी की चैन लटकाने से अच्छे नहीं लगेंगे, बल्कि स्त्री को भी जेवर पहनाना होगा, केवल अपनी ही चिकित्सा कराने से निश्चित न होंगे बल्कि बीमार स्त्री की भी चिकित्सा और शुश्रूषा आवश्यक होगी। अब आपका असंयत ‘मैं’ विस्तृत हुआ। आपने अपनी देह के अतिरिक्त स्त्री की देह को भी अपना जानना आरंभ कर दिया। किस काल्पनिक सुख की आशा से आपने विवाह किया था, देखते हैं कि वह अब कुछ नहीं है। आपका चित्त सुखी और हृदय उदार होने लगा, आप स्वार्थ त्याग करना सीखें, आपका मेरापन दिन-दिन शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की कला की तरह बढ़ने लगा। जब विवाह नहीं हुआ था। तब तुम जो कमाते थे वह सब अपने सुख पर खर्च कर डालते थे। जब विवाह हो गया तब आपको भविष्य की चिन्ता आरंभ हुई और एक प्राणी का समस्त भार ग्रहण करके उसका दायित्व समझने लगे। विवाह का उद्देश्य सिद्ध हो गया।

क्रम से पुत्र कन्यादि उत्पन्न हुए तब आपका यह दायित्व ज्ञान और भी बढ़ने लगा। पहले आपका एक मैं था, अब अनेक मैं हो गया। खुद नहीं खाते-पहनते पर बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में खर्च करने लगे। बहुत सा रुपया खर्च कर कन्या का सुपात्र के साथ विवाह किया अब आपके पुत्र, पौत्र, दौहित्र आदि अनेक मैं हो गये। अब आपको उस पुराने खास ‘मैं’ की कुछ चिन्ता नहीं रही-बल्कि और जो अनेक मैं अपने बना लिये है उनकी चिन्ता होने लगी, क्यों ऐसा ही हुआ न ? आपके विवाह से इस तरह आपके मैं का विस्तार हुआ।

परन्तु यदि आप शुकदेव या शंकराचार्य की भाँति विवेकी पुरुष हैं तब आपके विवाह की कुछ आवश्यकता नहीं क्योंकि जिस उद्देश्य से विवाह किया जाता है वह पहले ही आप प्राप्त कर चुके हैं। आपने यदि विवाह के पूर्व ही विश्व को ‘मैं’ रूप जानना सीख लिया है तो फिर विवाह आपको क्या सिखायेगा।

जब आपने जगत को मित्र भाव से देखना आरंभ किया है तब फिर विवाह आपको और क्या शिक्षा देगा? वेद को जानने वाला मनुष्य फिर वर्णमाला (क-ख) क्यों पड़ेगा? सनातन शास्त्र ने भी ऐसे लोगों के लिए विवाह अनावश्यक लिखा है। गुरुगृह में ब्रह्मचर्यावस्था में ही यदि आत्मज्ञान अथवा ‘मैं’ का पूर्ण विकास या प्रसार हो जाय तो फिर विवाह की आवश्यकता नहीं रहती तब फिर संबंध स्थापन पूर्वक मैं के प्रसार की आवश्यकता नहीं रही। यदि ब्रह्मचर्य अवस्था में ऐसा प्रसार न हो तो ब्रह्मचर्य पूरा होने पर विवाह करना आवश्यक है। सनातन शास्त्र का ऐसा ही विधान है। गृहस्थ का अवश्य विवाह करना चाहिए। आर्यशास्त्र में कहे हुए दस संस्कार और नित्य नैमित्तिक आचार-प्रणाली यह सब ही आत्म-प्रसार साधन के शिक्षक और सहाय स्वरूप हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118