ज्ञान-दीप (कविता)

August 1940

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(श्री.-पी.एन शर्मा गि. कानूनगो, साँखनी)

निविड़ निशा फैली अन्तर में, घोर घना अंधियारा छाया।

हाथ पसारा चहुँदिशि ढूंढ़ा, लेकिन कोई मार्ग न पाया॥

भ्रम में भ्रमते बीत गये युग, जन्म अनेकों यों ही बोते-

राह कहाँ से पाती, मैंने मन का दीपक नहीं जलाया।

(2)

राम नाम की प्याली लेकर, भक्ती का घृत डाला होता।

सत् संगति की प्रेममयी बत्ती को, उसमें अगर डुबोता॥

ज्ञान अग्नि से उसे जलाता, जिह्वा की दीवट पर रखता-

तो प्रकाश होता ! क्यों भ्रमता ? क्यों रोता ? क्यों जीवन खोता ?

(3)

दीनानाथ ! देखना अब यह मेरा दीप न बुझने पावे।

तेरी भक्ति न जाने पावे, सब कुछ आवे, सब कुछ जावे॥

बड़ा न बनूँ, न गुणी कहाऊँ, निर्धन रहूँ, न आदर पाऊँ-

लेकिन मेरा दीपक निशिदिन, जलता रहे, प्रभा फैलावे॥


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