तत्र विद्या की उपयोगिता

August 1940

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(ले. एक तान्त्रिक)

प्रकृति अनन्त शक्तियों का भंडार है। वैज्ञानिकों ने वायुयान, रेडियो, विद्युत, वाष्प आदि के अनेक आश्चर्यजनक आविष्कार किये हैं और नित्यप्रति होते जा रहे हैं। पर प्रकृति का शक्ति भंडार इतना अनन्त और अपार है कि धुरंधर वैज्ञानिक अब तक यही कह रहे हैं कि हमने उस महासागर में से अभी कुछ सीपें और घोंघे ही ढूंढ़ पाये हैं। उस अनन्त तत्व के शक्ति परमाणुओं की महान् शक्ति का उल्लेख करते हुए सर्व-मान्य वैज्ञानिक डॉक्टर टामसन कहते हैं कि एक ‘शक्ति-परमाणु’ की ताकत से लंदन जैसे तीन नगरों को भस्म किया जा सकता है। ऐसे अरबों-खरबों परमाणु एक-एक इंच जगह में घूम रहे हैं फिर समस्त ब्रह्माण्ड की शक्ति की तुलना ही क्या हो सकती है। हमारी आत्मा भी इसी चैतन्य तत्व का अंश है हमारे शरीर में भी असंख्य इलेक्ट्रस व्याप्त हैं इसलिए मानवीय शरीर और आत्मा भी अपनी अनन्त शक्ति सम्पन्न है उसे हाड़-माँस का पुतला मात्र न समझना चाहिए।

काल चक्र सदैव घूमता रहता है। उसी के अनुसार संसार की अनन्त विधाओं में से समय पाकर कोई लुप्त हो जाती है तो कोई प्रकाश में आती है। अब तक कितनी ही विधायें लुप्त और प्रकट हो चुकी हैं और आगे कितनी लुप्त और प्रकट होनी वाली हैं इसे हम नहीं जानते। आज जिस प्रकार भौतिक तत्वों के अन्वेषण से योरोप में नित्य नये वैज्ञानिक यन्त्रों का आविष्कार हो रहा है उसी प्रकार अब से कुछ सहस्राब्दियों पूर्व भारत वर्ष में आध्यात्म विद्या और ब्रह्मविद्या का बोलबाला था। उस समय योग के ऐसे साधनों का आविष्कार हुआ था जिनके द्वारा नाना प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त करके साधक लोग ईश्वर का साक्षात्कार करते थे और जीवन मुक्त हो जाते थे। आज लोग अपने अज्ञान के आधार पर उन बातों की सचाई में भले ही संदेह करें पर सत्य सत्य ही रहेगा।

अब भी उस महान अध्यात्म विद्या का पूर्ण लोप नहीं हुआ है। भारतवर्ष की पुण्य भूमि में अभी असंख्य सिद्ध योगी भरे पड़े हैं और उनका विश्वास है कि भौतिक आविष्कारों की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्तियाँ करोड़ों गुनी बलवान और स्थायी हैं वे मनुष्य और समाज का कल्याण आध्यात्म उन्नति में ही समझते है, अप्रत्यक्ष उदाहरणों में धुरंधर विद्वान और महान नेता एवं विचारक योगी अरविंद की योग साधना हमारे सामने है। इस शक्ति भंडार में से एक सीप यूरोप के पण्डितों के हाथ भी लगी है। मैस्मरेजम और हिप्नोटिज्म नामक उनके दो छोटे आध्यात्मिक आविष्कार है। जिनके द्वारा, सिद्ध की आत्मशक्ति साधक में प्रवेश करके उस पर अपना पूर्ण आधिपत्य जमा लेती हैं। तब मोह निद्रा में डूबा हुआ साधक अनेक आश्चर्यजनक और गुप्त बातें बताता है। आँखों से पट्टी बाँधकर पूरी तरह से संदूक या कोठरी में बन्द कर लेने पर भी वह लोगों के मन की बात, उनके पास छिपी हुई चीजें, गुप्त बातें आदि बताता है। मोह निद्रित साधक, सिद्ध की इच्छा का पूर्ण अनुचर बन जाता है। उससे कहा जाय कि यह नीम का पत्ता पेड़े के समान मीठा है तो सचमुच उसकी बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियाँ इस कड़ुए पत्ते को मीठा अनुभव करती हैं और वह बड़े प्रेम से उन्हें खाता है। इस विधि से वे सिद्ध, रोगियों की चिकित्सा भी करते हैं। अब से दो शताब्दी पूर्व जब सुँघा कर बेहोश करने की ‘क्लोरोफार्म’ नामक दवा का आविष्कार नहीं हुआ था तब पश्चिमोय डॉक्टर मैस्मरेजम की विधि से ही रोगी के पीड़ित स्थान को संज्ञा शून्य करके तब आपरेशन करते थे। कलकत्ता के बड़े अस्पताल में एक प्रसिद्ध डॉक्टर ने मैस्मरेजम के तरीके से ही कई सो रोगियों को या उनके पीड़ित स्थान को बेहोश करके बड़े-बड़े आपरेशन किये थे। यह यह ध्यान रखना चाहिए कि मैस्मरेजम योग महासागर की एक बिन्दु मात्र है।

प्राचीन काल में योग को शक्तियों द्वारा संसार की बड़ी सेवा की गई थी। अनेक योगी, दुखियों के दुख निवारण में ही अपना जीवन लगा देते थे। महाप्रभु ईसा मसीह ने जीवन भर अपनी आत्मशक्ति के बल से दुखियों के दुख दूर किये। उन्होंने बीमारी को रोग मुक्त किया। अन्धों की आँखें दी, कोढ़ियों के शरीर शुद्ध कर दिये, लोगों की आत्मा से चिपटे हुए दुष्वृत्तियों के भूतों को छुड़ाया, जो अशांति और नाना प्रकार के दुखों से चिल्ला रहे थे उनको सुख और शाँति प्रदान की। अन्त में उस महात्मा ने दूसरों के दुख और पापों को अपने ऊपर ओढ़ कर उनको भार मुक्त कर दिया। भारतवर्ष में शंकर, अश्विनी कुमार, धन्वंतरि, गोरखनाथ, सत्येन्द्रनाथ, नागार्जुन, चरक आदि के बारे में ऐसी कथाएं मिलती हैं जिनसे प्रतीत होता है कि जीवन भर वे लोगों के दुख दूर करने में ही लगे रहे। दुर्भाग्य वश उस समय के महात्माओं में भी दो दल हो गये। एक दल ईश्वर प्राप्ति के कार्य को ही अपना लक्ष्य मानता था दूसरा जन-दुख निवारक का भी समर्थक था। यह मतभेद बहुत बढ़ा और जन-दुख निवारकों की शक्ति पूजक, शक्ति, तान्त्रिक संज्ञा बनाकर उनको अपनी श्रेणी से अलग कर दिया गया। तान्त्रिक या शक्ति अपने आरंभ काल में परमत्व की आराधना से शक्ति प्राप्त करने और उसके द्वारा सिद्धि प्राप्त करके जनता के शारीरिक एवं मानसिक दुखों को दूर करते थे। समय के परिवर्तन के साथ इस महान विज्ञान का भी दुर्दिन आया। महासिद्ध नागार्जुन के अवसान के बाद तंत्र विद्या कुपात्रों के हाथ में चली गई और उन्होंने उसका रावण की भाँति दुरुपयोग प्रारंभ कर दिया। मारण, मोहन, उद्घाटन, वशीकरण आदि का प्रयोग अपनी इन्द्रियों के सुख या धन लालसा के लिए किया जाने लगा। जिस तलवार से दस्युओं और हिंसक पशुओं का मुकाबला किया जाता है उसी से अबोध शिशुओं, ब्राह्मणों और गायों की गर्दनें भी काटी जा सकती हैं। परन्तु ईश्वर के यहाँ सुव्यवस्था है। उसने जालिम की उम्र थोड़ी रख छोड़ी है। अवश्यंभावी परिणाम के अनुसार तान्त्रिक नष्ट हो गये। जनता में उनके कार्य के विरुद्ध तीव्र घृणा फैल गई। वाममार्गी और तान्त्रिक, हिंसक पशु समझे जाने लगे। अन्त में तंत्र विद्या का वैज्ञानिक और उच्च कोटि का स्वरूप लुप्त हो गया। यवन राज्य में तन्त्र शास्त्र के हजार महान प्रबन्धों को जला डाला गया। इस प्रकार इस महाविद्या का दुखद अन्त हुआ।

चूँकि तन्त्र विद्या की उपयोगिता और उसके आश्चर्य-जनक लोभों की जनता कायल थी इसलिए उनकी वैज्ञानिकता और उच्च साधन का अभाव हो जाने पर भी अधूरे तान्त्रिक बने रहे और अपनी सामर्थ्य के अनुसार लोगों का हित करते रहे। इतना समय बीत जाने के बाद जो लंगड़ी, लूली तंत्र विद्या बच रही है वह भी अच्छे से अच्छे वैज्ञानिक को अचम्भे में डालने के लिए पर्याप्त है। अभी भी ताँत्रिक लोग, जहरीले साँपों के काटे हुए आदमी को मन्त्र द्वारा अच्छा कर देते हैं। उस साँप को मन्त्रबल से बुलाकर काटे हुए स्थान से जहर चुसवाते हैं, बिच्छू आदि का जहर उतारते हैं, वृक्षों की टहनी या मोरपंख की झाडू लगाकर फोड़ों को अच्छा करते हैं, मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण अब भी होते हैं। भूत, प्रेतों के ऐसे आक्रमण जिन्हें देखकर डॉक्टर लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते है, ताँत्रिक ही ठीक करते हैं। वैज्ञानिक लोग तन्त्र विद्या द्वारा दिया हुआ मन्त्र (सजेशन) साधक के अन्तरमन (सब कॉन्शसनेस) में गहरा चला जाता है और वहाँ जाकर ऐसी विद्युत शक्ति उत्पन्न करता है जिससे साधक या रोगी का मन एवं शरीर उसी के अनुसार कार्य करने लगता है। फलस्वरूप इच्छित लाभ प्राप्त हो जाता है। एक और वैज्ञानिक डॉक्टर जिन्होंने मनुष्य शरीर की बिजली का अनुसंधान किया है, इस विषय पर और अधिक प्रकाश डाला है उनका कथन है कि मनुष्य शरीर से एक प्रकार का तेज निकल कर आकाश में प्रवाहित होता है। यह तज अपनी इच्छानुसार ऐसा बनाया जा सकता है जिससे निश्चित व्यक्तियों को हानि या लाभ पहुँचाया जा सके। एक अन्य वैज्ञानिक डॉक्टर फ्रेडन का कहना है कि मनुष्य के सुदृढ़ संकल्प संयुक्त विचार ईथर तत्व में मिलकर क्षण भर में निश्चित व्यक्ति तक पहुँचते है और उसका हित अनहित करते है। सामूहिक प्रार्थना इसलिए की जाती है कि वह अधिक शक्तिशाली होकर अधिक असर दिखा सके। विद्वानों का कहना है कि तान्त्रिकों के मंत्र से उत्पन्न हुए कम्पन तथा तत्सम्बन्धी उपचार क्रियाओं की लहरें मिलकर बहुत शक्तिशाली हो जाती हैं और जो लोग उन्हें ग्रहण करते हैं उन पर आश्चर्यजनक चमत्कार दिखाती है। विद्वानों की बात छोड़िये हम अपने दैनिक जीवन में देखते हैं कि अपने दूरस्थ प्रियजनों में से किसी की मृत्यु या हानि होने पर हमें दुःस्वप्न आते है और अनिष्ट की आशंका से मन काँप उठता हैं। कई बार तो अचानक जागृत और स्वप्न की अवस्था में ऐसी आशंकाएं उठ खड़ी होती हैं कि अमुक व्यक्ति का अमुक अनिष्ट हो गया और कुछ देर बाद सचमुच वह बात सत्य होने का समाचार मिलता है। दूरस्थ पुत्र पर दुख आने पर माता के स्तन से दूध उमड़ने लगता है। पति का अनिष्ट होने पर स्त्री के अंग टूटने लगते हैं। प्रेमी जब अपनी प्रेमिका के लिए विरह में तड़पता है तब उसी समय दूरस्थ प्रेमिका भी व्याकुल हो उठती है। यह सब उस महान सत्य की अनुभूतियाँ मात्र हैं। जिसके आधार पर तन्त्र शास्त्र स्थित है और रेडियो या टेलीविजन का आविष्कार हुआ है। शक्तिशाली और एकाग्र मन द्वारा निश्चित रूप से दूसरों के लिए-सुख दुख की लहरें भेज सकते हैं। हाँ उनसे लाभ उठाना साधक की इच्छा पर निर्भर है। जब शक्ति के साथ ब्रॉडकास्ट की हुई आकाशवाणी को तब तक ठीक तरह नहीं सुना जा सकता जब तक आपका रेडियो दोष रहित न हो।

इस महाविज्ञान से लाभ उठाने की एक शर्त है वह है-साधन में अटूट श्रद्धा और विश्वास का होना। बिना इसके लाभ नहीं मिल सकता। मोती लेने के लिए समुद्र में गहरा घुसना पड़ेगा, शकर का मधुर स्वाद चखने के लिए ईख बोनी पड़ेगी, पेट भरने के लिए मुँह चलाना पड़ेगा। जो सज्जन श्रद्धा और विश्वास स्थिर नहीं रख सकते वे इधर कदम बढ़ाने का व्यर्थ प्रयत्न न करें। अपने टूटे हुए रेडियो सैट पर आप विशुद्ध ब्रॉडकास्ट को नहीं सुन पायेंगे। जो लोग तन्त्र विज्ञान पर विश्वास नहीं करते वे इसकी परीक्षा कर देखें। हमारे अनुभव में ऐसे बीसियों कट्टर अविश्वासी आये हैं जो इसे ढोंग, अन्धविश्वास और मूर्खता कहकर मजाक उड़ाते थे। पर जब उन्होंने कुछ दिन अभ्यास किया तो तन्त्र विद्या के प्रत्यक्ष लाभों को देखकर उसके अनन्य भक्त बन गये। हमारा कहना इतना ही है कि आज भी सज्जन अविश्वास करते हों, वे इसकी परीक्षा करें।

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