(लेखक-लक्ष्मीनारायण गुप्त ‘कमलेश’)
जीवन के सरस प्राण तुम हो,
वीरो की निधि -कृपाण तुम हो,
अर्जुन के ‘धनुष-बाण’ तुम हो,
सारे जग के प्रमाण तुम हो,
तुम हो नीरस-वन के वसंत;
तुम हो अनन्त के आदि-अन्त!
अति कोमल कुसम-हार तुम हो,
पवि सम पाहन-प्रहार तुम हो,
मानस के नव-विचार तुम हो,
साकार हो, निराकार तुम हो,
तुम राम, भरत, दशरथ, सुमन्त;
तुम हो अनन्त के आदि-अन्त!
तुम हो नारायण, नर तुम हो,
अविनाशी, अजर, अमर तुम हो,
अमृत के मृदु-निर्झर तुम हो,
तुम उदधि अगम, जलधर तुम हो,
तुम उदय-अस्त, तुम हो दिगन्त;
तुम हो, अनन्त के आदि अन्त!