तुम (कविता)

August 1940

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(लेखक-लक्ष्मीनारायण गुप्त ‘कमलेश’)

जीवन के सरस प्राण तुम हो,

वीरो की निधि -कृपाण तुम हो,

अर्जुन के ‘धनुष-बाण’ तुम हो,

सारे जग के प्रमाण तुम हो,

तुम हो नीरस-वन के वसंत;

तुम हो अनन्त के आदि-अन्त!

अति कोमल कुसम-हार तुम हो,

पवि सम पाहन-प्रहार तुम हो,

मानस के नव-विचार तुम हो,

साकार हो, निराकार तुम हो,

तुम राम, भरत, दशरथ, सुमन्त;

तुम हो अनन्त के आदि-अन्त!

तुम हो नारायण, नर तुम हो,

अविनाशी, अजर, अमर तुम हो,

अमृत के मृदु-निर्झर तुम हो,

तुम उदधि अगम, जलधर तुम हो,

तुम उदय-अस्त, तुम हो दिगन्त;

तुम हो, अनन्त के आदि अन्त!


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