क्या तुम यही हो?

August 1940

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ईश्वर के अमर पुत्र-मनुष्य का आज कैसा विकृत रूप बना हुआ है ? जिस नर तन के लिए देवता भी ललचाते हैं उसे पाकर भी हम कैसा नीच आवरण धारण किए हुए हैं ? उसकी क्षुद्रता और पामरता के स्वरूप को देख कर मनुष्यता को भी लज्जा आती है।

रमजानी फकीर हाथ पाँव स्वस्थ रहते हुए भी भीख का पेशा अख़्तियार किये हुए है, दिन भर पेट दिखा कर अन्न माँगता है और उसी से अपना निर्वाह करता है। नसीबन रंडी कोठे पर बैठी हुई आगतों की प्रतीक्षा करती है दुष्ट, दुराचारी घृणित रोगों को लिए हुए, कैसा ही व्यक्ति क्यों न हो पैसे के लिए वह अपने सतीत्व को उसके आगे पटक देती है। प्यारे खवास अपने मालिक की गालियाँ सुनता है, लात-घूँसे खाता है, समय पर वेतन भी नहीं पाता फिर भी दूसरी जगह नौकरी न मिलने के डर से उसी मालिक की नौकरी करता है। सुक्खा मेहतर पकवान् और मिष्ठान्नों का लोभ संवरण नहीं कर सकता और दावतों में बची हुई झूठी, थूक लार लगी हुई झूठन को पाने के लिए उत्सुकता पूर्वक पहुँचता है। लीला धीमर सैकड़ों मछलियाँ रोज मार कर लाता है, जीवा बहेलिये की बैंगी में रोज दर्जनों कबूतर होते हैं, बूचा कसाई को कई पशुओं का रोज पेट चीरना पड़ता है। जीवा, मुसाफिरों की पोटलियाँ उठाता है, भीखा ताले चटकाता है, गणपति का गिरोह डकैतियां डालने में प्रसिद्ध है। चोरी, ठगी, अन्याय, दुराचार, मद्यपान, हत्या, हिंसा का सर्वत्र साम्राज्य छाया हुआ है।

धर्म की उन पवित्र वेदियों से जिनका उद्देश्य मनुष्य को ईश्वर के समीप पहुँचाना है, क्या-क्या दुष्कर्म नहीं होते ? चन्दन जैसी सुगंधि से पुते हुए और सोने जैसे मनोहर रंग वाले इन धर्म घटों का ढक्कन उठाकर भीतर देखना चाहेंगे तो दुर्गन्ध के मारे नाक सड़ने लगेगी।

जिसके पास शक्ति है, जो शासक है, जो पैसे वाला है, जिसके शरीर में पर्याप्त माँस है, जिसके पास विद्या है, जिसके मस्तिष्क में तीक्ष्ण बुद्धि है उनका एक ही पेशा है। अपने से छोटों का शोषण करना। चालक ढोंग रचता है, बलवान जुल्म करता है, कायर पाप करता है और निर्बल भीख माँगता है। समाज के चारों ही अंग विकृत रूप धारण किए हुए आसुरी भावनाओं में लिप्त हो रहे हैं।

और बेचारी मनुष्यता एक कोने पर खड़ी-खड़ी सिसक रही है। विशुद्ध लोक कल्याण के लिए दान कौन देता है ? पराये की विपत्ति को देख कर किसकी आँखों में आँसू आते हैं ? भूखे के सामने कौन अपनी थाली सरकाता है ? पीड़ितों की मदद के लिए कौन अपनी जान होमता है। ईमानदारी की कमाई पर किस की रोटी चलती है ? औरों का सौंदर्य और वैभव देखकर उस पर न ललचाता हुआ कौन प्रसन्न होता है। अपने बल, बुद्धि, विद्या सुख को निस्वार्थ भाव से संसार की सेवा में अर्पण करने वाले मनुष्य कितने हैं? बेचारी मनुष्यता युगों से ऐसे मनुष्यों को ढूंढ़ रही है पर उसे उंगलियों पर गिनने लायक ही मिल सके हैं।

अभागा मनुष्य आखिर जा कहाँ रहा है आखिर इसे हो क्या गया है ? ईश्वर के अतुल्य वैभव का अधिकारी, प्रकृति की संपूर्ण शक्तियों का स्वामी, शाश्वत और अविनाशी, संसार को पवित्र कर सकने की क्षमता रखने वाला आदमी आखिर कर क्या रहा है ? उसका इतना प्रतिभाशाली मस्तिष्क इतनी सुंदर बुद्धि और इतनी सुँदर कार्य क्षमता जिन फिजूल और उल्टे कार्यों में लग रही है। उन्हें देख कर आश्चर्य और आन्तरिक कष्ट होता है।

काश, मनुष्य अपने को पहचान सका होता, अपने वास्तविक स्वरूप को समझ सका होता, अपने और संसार के रिश्ते को जान गया होता तो कैसा सुन्दर होता। तब यह संसार नरक न रह कर स्वर्ग बन जाता और मनुष्य शैतान का गुलाम न बन कर सम्राटों का भी सम्राट कहलाता।

हमारा विश्वास है कि अखंड ज्योति के पाठक कुछ न कुछ भजन, पूजा, साधन अनुष्ठान अवश्य करते होंगे। वे जैसे भी कुछ अपने विश्वास के कारण करते हों करें। परन्तु एक साधन के करने के लिए हम उन्हें अनुरोध पूर्वक प्रेरित करेंगे कि वह दिन रात में से कोई भी पन्द्रह मिनट का समय निकालें और एकान्त स्थान में शाँति पूर्वक यह विचार करें कि हम क्या हैं? हमारा जो कर्तव्य है उसे पूरा कर रहे हैं ? शैतानी आदतें और वृत्तियाँ हमारे अंदर कौन-कौन कितने परिमाण में घुस आई हैं ? और उनने हमारे दैवी अंश को कितना ग्रस लिया है ? इन प्रश्नों का उत्तर देने से पूर्व अपने मन से कहिए कि वह बिलकुल निष्पक्ष बन जाए। झूठी गवाही न दे। एक निर्भीक सत्य वक्ता की तरह अपने अवगुण साफ-साफ बतावें। अखंड ज्योति के पाठक इस प्रकार नित्य किसी नियमित समय पर आत्म परीक्षण करें। और जो दोष दृष्टिगोचर हों उनके परिणाम के संबंध में सोचें कि क्या यही हमारे कल्याण का मार्ग है?

अपने अनुभव के आधार पर हम शपथपूर्वक कह सकते हैं कि जो आत्म परीक्षण करेंगे उन्हें वास्तविकता दिखाई देगी। और जो वास्तविकता को समझेंगे उन्हें अपने कल्याण का मार्ग भी मिल ही जाएगा।

कुछ परिवर्तन

अब तक अखंड ज्योति में केवल लेख ही रहते थे। गत मास देश के कई प्रतिष्ठित और धुरंधर तत्वदर्शी ‘ज्योति’ के कार्यालय में आगरा पधारे थे। उन सबने यही सम्मति दी कि ‘धन तत्व को सरलता पूर्वक समझाने के लिए कथाओं का रूप सब से सुँदर है। प्राचीन ऋषियों ने इसीलिए अनेक कथा ग्रन्थों की रचना की थी और कहने-सुनने को इतना अधिक महत्व दिया था। अतएव धर्म चर्चा के लिए कथाओं की शैली प्रारंभ की जाय।”

तदनुसार इस अंक से कथाएं देना आरंभ कर रहे हैं। प्रयत्न यही होगा कि यह कथाएं जहाँ तक हो सके प्राचीन धर्म ग्रन्थों से ही ली जायं। हमें विश्वास है पाठक, इस प्रयत्न को पसंद करेंगे।


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