हिन्दुओं की जातीय भावना

August 1940

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(ले. पं. लक्ष्मण नारायण गर्दे)

हिंदू किसी से द्वेष नहीं करते। यह उनका जन्म जात संस्कार है। इस संस्कार को कोई नष्ट नहीं कर सकता, क्योंकि हिंदुओं के जातीय चिरंजीव का मूल इसी संस्कार से सींचा गया है। विभिन्न संस्कृत के अपने ही कुछ बेगानों के बेसुरे आलाप से तंग आकर हम कितनी ही बार यह सोचते हैं कि हिन्दुओं में यदि शाँति न होती तो बड़ा अच्छा होता। परन्तु यह सोचना ठीक नहीं है। ऐसा हो ही नहीं सकता। कारण, हिन्दु जाति का यह मूलगत संस्कार है। मूलगत संस्कारों के उखाड़ने की चेष्टा मूल को ही उखाड़ने की सी चेष्टा हो जाती है। हिंदुस्तान पर कितनी ही बार विदेशियों के आक्रमण हुए, कितनी ही बार हिन्दुओं को विदेशियों ने लूटा-खसोटा, कितने ही बार भयंकर से भयंकर अत्याचार किये, पर हिन्दुओं के हृदय, रक्त, माँस, मज्जा में उनके प्रति कहीं भी कोई द्वेष नहीं है। इतना शाँत रक्त संसार में अन्य किसी भी जाति का न होगा। कुछ लोगों का यह कहना है कि यह शाँति कायरता है। परन्तु यह सदा स्मरण रहे कि, यह शाँति कायरता में नहीं होती। कायरता अशान्ति की एक देन है। कायर वही होता है, जिसमें सत्य नहीं होता, सत्य पर विश्वास नहीं होता। हिन्दू जिस शाँति के रक्षक हैं, वह सत्यमूलक है। ऐसी शान्ति यदि जगत में सब देशों को प्राप्त हो, तो उनका कल्याण हो जाये। हिन्दुओं की यह द्वेषरहित शाँति जगत के लिए वरेण्य है और इसका हिन्दुओं में सुरक्षित रहना हिन्दुओं के अभ्युदय और जगत के सुख के लिए अत्यंत आवश्यक है। हिन्दू आज संसार को कुछ देना चाहें तो क्या दे सकते हैं। हिन्दू सब कुछ तो खो चुके हैं, इस शाँति के सिवाय अब उनके पास है ही क्या ? इस शाँति को भी यदि वे खो दें, तो वे कहीं के भी न रहेंगे। आवश्यक यह है कि हिन्दू जाति के इस मूलगत संस्कार को हम लोग समझें और जाति के उत्थान के लिए जो कुछ करना चाहें, वह इसी बुनियाद पर करें।

हिन्दुओं की यह शाँति अवश्य ही दोषों से बिलकुल खाली नहीं है। शाँति तो है, पर उसके साथ कुछ दोष भी हैं, जिनको दूर करना होगा। ये दोष वे ही हैं, जिनके कारण हम आज वह नहीं हैं, जो कुछ कि हम होना चाहते हैं, जिसके लिए हिन्दुओं का हिन्दू जातीय जीवन है। वे दोष क्या हैं ? हम बहुत से दोषों की चर्चा नहीं करेंगे, एक मुख्य दोष ही सामने रखते हैं, जिसमें पाठक देखेंगे कि अन्य कई दोषों का समावेश हो जाता है। वह दोष यही है कि हिन्दुओं में जाति की मर्यादा की अपेक्षा व्यक्ति की मर्यादा बहुत अधिक बढ़ गयी है। व्यक्ति सदा ही शाँति का एक छोटा सा अंग मात्र है, पर जातीय शरीर का यह छोटा सा अंग जाति के विराट शरीर से भी बड़ा हो गया है- आकार में नहीं, मनोभाव में। तरंग समुद्र का एक अंग है, वह समुद्र से कभी बड़ा नहीं हो सकता, पर मान लीजिए कि कोई तरंग अपने आपको समुद्र से बड़ा मान ले, तो इसे आप जितना उपहासास्पद समझेंगे, उससे किसी व्यक्ति का अपने आपको जाति से बड़ा मान लेना कम हास्यास्पद नहीं है। व्यक्ति का भी एक स्वातंत्र्य होता है, पर वह जाति के एकाँश में होता है। जाति के बाहर नहीं, जैसे तरंग समुद्र के अन्दर रहकर ही चाहे जितना ऊँचा उछल सकता है, समुद्र से अलग होकर नहीं। व्यक्ति का कोई अस्तित्व ही नहीं है, यदि वह जाति के अन्दर न हो। व्यक्ति जाति का अभिन्न अंग है। प्रत्येक हिन्दू, हिन्दू जाति का अभिन्न अंग है, किसी को हम अपने से अलग नहीं कर सकते, अलग किया जाना बरदाश्त नहीं कर सकते और कोई अलग होकर हिन्दू रह भी नहीं सकता। विचारकाल में यह बात तो हमें जंचती है, पर क्या व्यवहार में हमें इसका कोई अनुभव होता है ? यदि होता तो हिंदुओं की जन्मजात सत्यमूल शाँति बदनाम न होती और हम लोग इतने हीन, इतने दीन, इतने असहाय न होते।

लोग कहते हैं और उनका यह कहना ठीक है कि, मुसलमानों में जैसी जातीय एकता है, वैसी हिन्दुओं में नहीं है। हिन्दुओं में जो शाँति है वह चाहे मुसलमानों में न हो, पर मुसलमानों में जो जातीय एकता है वह हिंदुओं में नहीं है, यह बात तो माननी पड़ेगी क्या ही अच्छा होता यदि मुसलमान हिंदुओं से शाँति ले लेते और हिन्दू मुसलमानों से जातीय एकता सीख लेते।

जातीय एकता क्या है ? इस एकता का, सबकी समझ में आने योग्य एक छोटा सा नाम है अभिमान। हमें इस बात का अभिमान होना चाहिए कि, हम हिन्दू हैं और कोई भी हिन्दू, चाहे वह किसी जाति का हो, हमारा भाई है-केवल विचार में नहीं व्यवहार में भी। कोई गृहस्थ जब ईश्वर से अपने सुख के लिए प्रार्थना करता है, तो उस प्रार्थना का क्या आशय होता है? उसकी प्रार्थना अपने घर के सब लोगों के सब प्रकार के सुख के लिए होती है। इसी तरह प्रत्येक हिन्दू की कामना-प्रार्थना सब हिंदुओं के लिए-हिन्दूमात्र के लिए होनी चाहिए। ईश्वर हमारी रक्षा करे। यह जब हम कहते हैं, तो चित्त में यह भाव जागता हुआ होना चाहिए कि, ईश्वर हम सब हिंदुओं की रक्षा करें। हम जो ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय हैं, वैश्य हैं, शूद्र हैं और अंत्यज हैं-वे सब हमारे अंग हैं, हमसे भिन्न नहीं, हमारा सुख इन सबके सुख में है हमारा जीवन इन सबका जीवन है। मनुष्य का जैसा मन होता है, वैसा ही उसके द्वारा आप ही प्रचार हुआ करता है, चाहे वह सुख से एक शब्द भी न बोले। व्याख्यानों में बड़ी-बड़ी बातें कहकर पीछे उन्हें भूल जाने की अपेक्षा बिना कुछ कहे ही मन को ऐसा बना लेना कि, वह जातीय मन हो जाय। जाति की हितकामना से सर्वथा सहज अभिन्न-बहुत अधिक काम करता है, क्योंकि ऐसे मन से वे ही परमाणु निकला करते हैं। यह बात तो वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा भी सिद्ध हो चुकी है। यदि हम ब्राह्मण होकर भी चांडाल को अपना भाई समझते हैं, तो बिना कुछ कहे-सुने ही चांडाल भी हमें देखने के साथ ही अपना भाई मानता है। हिंदुओं का मन तो अत्यंत वैयक्तिक होकर जाति की मर्यादा को बराबर लाँघता आ रहा है, यही हिंदुओं के समष्टिगत और व्यक्तिगत दुख का कारण है। यही दोष है, जो हिंदुओं की स्वभावगत शाँति की अव्यर्थ शक्ति को ऊपर उठने नहीं देता।

स्कूलों में, कालेजों में, पाठशालाओं और विद्यालयों में हिंदू बालकों की शिक्षा का यह प्रधान अंग होना चाहिए कि, वे हिंदूमात्र को अपने से अभिन्न समझें, उसके सुख-दुख को अपना सुख-दुख मानना सीखे और हिंदू जाति के किसी अंग पर किसी प्रकार का आघात होने पर उसे अपने ऊपर होने वाला आघात अनुभव करे। यह शिक्षा का काम है। घरों में, विद्यालयों में, सभाओं में और समाचार पत्रों में इसी मर्म को ध्यान में रखकर यथा प्रसंग लोकमत को ऐसा ही बनाने का सच्चे हृदय से जो भी प्रयत्न किया जायगा, यह अवश्य हितकर होगा।

दो ही बातें ध्यान में रखने की हैं- (1) हिंदुओं की शाँति हिंदू जाति का मूलगत संस्कार है, इसके विपरीत छेड़छाड़ न कर इसे पुष्ट ही करना चाहिए और (2) हिंदूमात्र मा मन जातीय भावना से इस तरह भर जाय कि हिंदूमात्र की व्यक्तिगत कामना और जातीय हितकामना एक ही चीज हो। हिंदुओं का आगे जो कुछ करना है, उसके ये दो मूल सिद्धाँत हैं।

-गृहस्थ


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