सौदागर ! (कविता)

August 1940

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(गा. उमादत्त सारस्वत, कविरत्न, बिसबाँ, (सीतापुर)

(1)

भोले-भाले सौदागर ! पग समझ-बूझ कर धरना।

निपट-गंवारों की बस्ती है, व्यर्थ न सौदा करना।

माणिक है या काँच’ न कोई यहाँ परखने वाला।

‘विष’ के आगे यहाँ कौन है ‘अमृत’ चखने वाला ?

(2)

दर-दर क्यों चिल्लाता फिरता, लगा रहा है फेरी!

भला-बुरा कुछ नहीं समझता, भ्रष्ट हुई मति तेरी!

एक नहीं, अगणित-ठग बैठे, तुझ पर दृष्टि लगाये!

लुट जायेगा सौदागर ! तब होगा क्या पछताये ?

(3)

तेरे जैसे जाने कितने आये भूले-भटके !

ठगे गये वे यहीं, जहाँ तू घूम रहा बेखटके!

अभी नहीं बिगड़ा है कुछ भी चेत चतुर सौदागर !

कहाँ ढूंढ़ता क्षुद्र-तलैया, छोड़ द्वार का सागर !!


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