(गा. उमादत्त सारस्वत, कविरत्न, बिसबाँ, (सीतापुर)
(1)
भोले-भाले सौदागर ! पग समझ-बूझ कर धरना।
निपट-गंवारों की बस्ती है, व्यर्थ न सौदा करना।
माणिक है या काँच’ न कोई यहाँ परखने वाला।
‘विष’ के आगे यहाँ कौन है ‘अमृत’ चखने वाला ?
(2)
दर-दर क्यों चिल्लाता फिरता, लगा रहा है फेरी!
भला-बुरा कुछ नहीं समझता, भ्रष्ट हुई मति तेरी!
एक नहीं, अगणित-ठग बैठे, तुझ पर दृष्टि लगाये!
लुट जायेगा सौदागर ! तब होगा क्या पछताये ?
(3)
तेरे जैसे जाने कितने आये भूले-भटके !
ठगे गये वे यहीं, जहाँ तू घूम रहा बेखटके!
अभी नहीं बिगड़ा है कुछ भी चेत चतुर सौदागर !
कहाँ ढूंढ़ता क्षुद्र-तलैया, छोड़ द्वार का सागर !!