गायत्री साधना के दो रूप- दक्षिण मार्ग ही ग्राह्य

November 1991

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दक्षिण मार्गी सौम्य गायत्री साधना से उल्टा दूसरा मार्ग है ‘वाममार्ग।’ वाम अर्थात् टेढ़ा-उलटा। यह दैत्य पथ है। इसी को तंत्र कहते है। रावण, मारीच, कुँभकरण, भस्मासुर आदि तंत्र मार्ग के साधक थे। जो अपना, अपनों का स्वार्थ साधन करने के लिए दूसरों का शोषण, उत्पीड़न करते हैं। हिरण्यकश्यपु, वृत्तासुर, अघासुर, बकासुर, कंस आदि का पराक्रम और वैभव इसी स्तर का था। जरासंध इसी मार्ग का अनुयायी था।

गायत्री उपासना जैसे दक्षिण मार्ग में आत्मा की उच्चस्तरीय शक्तियों का उपयोग किया जाता है और इसके लिए तप संयम का मार्ग अपनाया जाता है, इसका प्रतिफल आत्मशान्ति और दूसरों को सद्गति प्रदान करने में होता है।

तंत्र का उपयोग प्रायः अनैतिक-अवाँछनीय कार्यों में ही होता है जैसे मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तंभन, सम्मोहन आदि। इन उपाय उपचारों से दूसरों का अहित ही हो सकता है, लाभ की आशा तो की नहीं जा सकती। किसी शत्रु से प्रतिरोध चुकाया जा सकता है या अपने से दुर्बल को भयभीत करके उसका मनमाना उपयोग किया जा सकता है। भले ही वह अनुचित अनैतिक ही क्यों न हो?

ऐसे क्रूर कर्म करने वाले को प्रायः पहले स्वयं इस प्रकार का जीवन ढालना पड़ता है जिसमें आत्मा की पुकार को दबाने-दबोचने में सफलता मिल जाय। ऐसे अनौचित्य का अभ्यास कर लेने के उपरान्त ही निर्भय होकर दूसरों पर हाथ छोड़ना संभव होता है।

तंत्र को वाममार्ग के अनुरूप पाँच साधनाएँ करनी पड़ती हैं (1) मद्यं (2) मास (3) मीनं (4) मुद्रा (5) मैथुन एवं च। यह पाँच मकार ही तंत्रमार्ग के आराध्य हैं। वे माँस खाते हैं और देवी देवताओं के नाम पर पशुओं का ही नहीं मनुष्यों तक का वध करते हैं, ताकि उनकी निष्ठुरता बधिकों की तरह अभ्यास में आ सके और स्वभाव का अंग बन सके। नशे की स्थिति में भी मनुष्य अर्धविक्षिप्त हो जाता है और वैसी स्थिति में क्रूर कर्म करते हुए संकोच नहीं होता। मछलियों को पकड़ना, तड़पाना, मारना भी उसी स्तर का क्रूर कर्म है। मुद्राएँ एक प्रकार की साधना हैं जिसमें वज्रोली मुद्रा का उद्देश्य वीर्यपात को रोकना भर है। कामोत्तेजना तो उसके लिए चाहिए ही। मुद्रा का अर्थ येन-येन प्रकारेण धन कमाना भी है। भले ही वह किराये के हत्यारों की तरह ही क्यों न करना पड़े। ऐसे अनुचित तरीकों से ही विपुल धन कमाने में चोर डाकू हत्यारे सफल होते हैं और उस धन को दुर्व्यसनों की पूर्ति में उड़ाते रहते हैं।

इस मार्ग को अपनाने वालों को सर्वप्रथम आत्महनन का अभ्यास करना पड़ता है, तदुपरान्त वे निर्भय हो कर दूसरों को अपंग करने, मनमर्जी के अनुरूप नचाने, विक्षिप्त करने आदि में सफल होते हैं, मारण के लिए किया गया ‘कृत्या’ घात-अभिचार इसी वर्ग के कृत्यों में सम्मिलित है। भावुकों को वशवर्ती बनाकर उन्हें वशवर्ती सहयोगी बनाने में भी वे सफल हो जाते हैं। ऐसे लोग त्रिपुरा, भैरवी, महाकाली, बगलामुखी, भैरव महाकाल आदि को अपना इष्ट बनाते देखे गये हैं।

सामान्य ताँत्रिक लोगों को छुटपुट हानियाँ पहुँचा सकते हैं, किन्तु बड़े अनर्थ करने में बड़ी श्रेणी के ताँत्रिक ही सफल हो पाते हैं। उन्हें अघोरी, कापालिक आदि कहते है। अघोरी, सरभंगी, अखाद्यों को, मलमूत्र आदि तक का सेवन करते रहते हैं। कापालिक श्मशान सेवन करते है मुर्दों की चिताओं पर भोजन पकाते, श्मशानों में निवास करते देखे गये हैं, वे प्रेत-पिशाचों को सिद्ध कर लेते हैं और धन ऐंठने, कुकर्म में सहयोग देने या उत्पीड़न का मजा देखने के लिए उनका उपयोग करते रहते हैं। ऐसे लोगों को बेताल, ब्रह्मराक्षस, कर्ण पिशाचिनी आदि की सिद्धि होती है, जिनके माध्यम से वे दूसरों को डराने-सताने में समर्थ होते हैं।

कुकर्मों में आरंभिक लाभ तो है ही। आततायी असावधानों पर अनायास आक्रमण करते हैं और उस हालत में तात्कालिक लाभ भी उठा लेते हैं। भले ही पीछे उन्हें उसका कितना ही भयंकर दुष्परिणाम क्यों न भुगतना पड़े, दैत्य प्रायः इसी नीति को अपनाते हैं, और दूसरों को हानि पहुँचाने के उपरान्त अपना-अपनों का भी कम अनर्थ नहीं करते। वाममार्गी प्रायः इसी मार्ग का अनुकरण कर अपना सब कुछ गँवा बैठते हैं।

भगवान बुद्ध के अवतार काल में ऐसे ही वामाचार का बोलबाला था। समर्थ लोग मदान्ध हो कर यही रीति-नीति अपनाते थे। उसका विरोध उनने प्राणपण से किया था और सदाचार की स्थापना में सर्वतोभावेन प्रयत्न करके सफलता पाई थी।

अफ्रीका के जंगली आदिवासियों में अभी भी ऐसी प्रथायें विद्यमान हैं। अपने देश का नैतिक स्तर अब बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य गाँधी, विवेकानन्द आदि के प्रयत्नों से काफी सुधर गया है। इसलिए वैसे प्रचलन अब नहीं रहे। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए पशुबलि का प्रयोग भी दिनोंदिन घटता जा रहा है। ‘कृत्या-घात’ आदि मारण क्रियायें भी किसी-किसी को ही सिद्ध होती हैं। अधिकाँश ताँत्रिक दूसरों को डराने भर की क्रिया कर पाते हैं। वस्तुतः उनमें वैसी सामर्थ्य पर्याप्त अभ्यास के अभाव में विकसित नहीं हो पाती। जो करते हैं वे बदनाम होने के अतिरिक्त तिरस्कार और दंड के भाजन भी बनते हैं।

यह बातें यहाँ इसलिए लिखी गई हैं कि ‘विलोम’ गायत्री के अभ्यास से तंत्र कृत्य भी हो सकते हैं, रावण वेदों का भाष्यकार था, पर वह दक्षिण मार्ग पर चलने की अपेक्षा वाममार्ग की ओर मुड़ गया, फलतः दूसरे असंख्यों को दुख देने के अतिरिक्त अपना तथा अपने कुटुम्ब का भी सर्वनाश करा बैठा। रावण ‘कृत लंकेश तंत्र’ प्रसिद्ध है।

विचारशील मनीषियों ने हर अध्यात्म साधक को दक्षिणमार्गी देव साधनायें ही करने के लिए परामर्श दिया है और तंत्र से दूर रहने के लिए कहा है। जिन्हें तंत्र विज्ञान की दृष्टि से ज्ञान भी हो उनके लिए भी आदेश है कि कुपात्र को न बतायें, अन्यथा वह दूसरों का अनर्थ करने के प्रलोभन से अपने को बचा न सकेगा। इसी दृष्टि से गायत्री तंत्र के प्रथम श्लोक में ही इसे कुपात्र को न बताने का निषेध कर दिया गया है।

‘अति गुह्यामिदं पुष्ट’ त्वया ब्रह्म तनुद्भव।

वक्तव्यं न कस्मैचित् दुष्टय पिशुनाय च॥

-गायत्री तंत्र

अर्थात् हे नारद! तूने गायत्री का रहस्य पूछा तो है, पर किसी दुष्ट, अनाचारी, कृपाल से इसका जिक्र भी न करना चाहिए।

पुस्तकों में ऐसे प्रयोगों का कई जगह वर्णन है। यहाँ तक कि छलपूर्वक सिद्धियाँ दिखाने की इन्द्रजाल विद्या का भी उल्लेख है। आग्नेयास्त्र आदि के प्रयोगों का वर्णन है। इतने पर भी उन प्रयोगों को सिद्ध करने की विधियों को गुप्त रखने और संकेत मात्र करने की विधियाँ तंत्र ग्रन्थों में वर्णित है। उन्हें बिना रहस्यों को समझे प्रयोग पर निष्फलता ही हाथ लगती है और उलटे अपने निज के पागल आदि हो जाने का डर रहता है।

वाममार्ग वस्तुतः शरीरगत विद्युतशक्ति का प्रयोग है। उसमें आत्मा को तो उलटा कुचलना ही पड़ता है, शरीरगत प्राणविद्युत को भी प्रचण्ड बनाना पड़ता है। मूलाधार और ब्रह्मरंध्र की मस्तिष्कीय क्षमताओं के समन्वय से कुण्डलिनी जाग्रत की जाती है। इस आधार पर ताँत्रिक अपने प्राणतत्व बढ़ाता और


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