Quotation

November 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आकाश में तारे दिन के समय भी रहते हैं, पर धूप की चकाचौंध में दीखते नहीं, परमात्मा का दर्शन और सान्निध्य हर समय पाया जा सकता है पर माया की मूढ़ता उसे दृष्टिगोचर नहीं होने देती।

इसलिए तुम्हें उसका फल प्राप्त नहीं हो सका, जबकि राबिआ ने इन सब से सर्वथा मुक्त रह कर मेरी सच्चे हृदय से सेवा की है, फलतः उसका परम पुनीत फल सामने देख रहे हो। “

अब तक राबिआ इब्राहीम के काफी करीब आ चुकी थी। उसने संत को पहचान कर आदाब में सिर झुका लिया। संत ने भी उसका प्रत्युत्तर दिया। इब्राहीम इस आश्चर्य में डालने वाली घटना से कुछ गंभीर और परेशान से लग रहे थे। राबिआ ने इसे भाँप कर संत से पूछा! “यदि इजाजत हो, तो एक सवाल पूछूँ?” हाँ में इब्राहीम ने सिर हिला दिया।

“आप अल्लाह के दरबार में इतने, गंभीर और गमगीन क्यों दिखाई पड़ रहे हैं? यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है, कुछ रोशनी डालेंगे? इसका कारण क्या है? “

एक गंभीर निःश्वास छोड़ते हुए संत की करुण वाणी मुखारित हुई-”क्या बताऊँ राबिआ! तुमने जो कुछ इतनी जल्दी पाया है, उसे मैं अब तक न पा सका। इसे मैं तुम्हारी तपश्चर्या ही कहूँगा, जिसका हाथों हाथ फल तुम्हें मिला है।” उनकी आवाज से दुःखभरी करुणा टपक रही थी। उनने अपनी सन-की-सी श्वेत दाढ़ी को सहलाते हुए पुनः कहना आरंभ किया-”यह देख रही हो? जीवन भर परवरदिगार की इबादत में ही बाल सफेद हो गए, किन्तु आज समझ में आयी कि उनकी बन्दानवाजी के योग्य में क्यों न हो सका? अच्छा एक बात बताओगी राबिआ?”

“अँ! “ अचानक के प्रश्न से वह चिहूँक उठी। “फरमाइए।”

“तुम खुदा की बन्दगी करती हो? यह बता सकोगी।” संत का अनुरोध था।

“क्यों मजाक उड़ा रहे हैं मेरा” राबिआ ने तनिक संकोच भरे लहजे में कहा- “भला आपकी तुलना मुझसे कैसे हो सकती है। तनिक सोचिए तो तप-तप कर सफेद हुए आपके इन बालों और भव्य व्यक्तित्व के समक्ष मेरे श्याम केशों और क्षुद्र अस्तित्व की क्या बिसात!”

“नहीं-नहीं, इसे हँसी में न टालो राबिआ अभी-अभी इलहाम हुआ है कि मुझे तुमसे इबादत का वह रहस्य जान कर उसी में संलग्न हो जाना चाहिए, जिसे सिर्फ तुम्हीं जानती हो।”

“अच्छा!” राबिआ ने आश्चर्य प्रकट किया। “यदि परवरदिगार की यही मर्जी है तो सुनिए” राबिआ कह रही थी- “यदि बन्दगी से आपका मतलब नमाज की अदायगी से है, तो वह तो मैँ दिन में सिर्फ एक ही बार पड़ती हूँ। यही मेरी प्रतिदिन की दिनचर्या है। यहाँ मक्का भी मैं इसी दिनचर्या का पालन करती हुई आयी हूँ। रास्ते में मिलने वाले राहगीरों, अपंगों, अपाहिजों की खिदमत करते-करते आने के कारण ही मुझे यहाँ पहुँचने में पाँच वर्ष लग गये, अन्यथा एक महीने में पहुँच जाती, पर क्या बताऊँ मेरे अजीज! मुझसे इनकी पीड़ा सहन नहीं होती और बरबस इनकी सहायता करने को जी तड़फड़ाने लगता है। मैं तो इसी को खुदा की नेक बन्दगी मान लेती हूँ और प्रार्थना करती रहती हूँ कि जब तक यह शरीर जीवित रहे, इसी काम आये। खुदा इसे स्वीकारे या न स्वीकारे मुझे इसकी कोई परवाह नहीं।”

“नहीं-नहीं राबिआ! ऐसा मत कहो। उस बन्दा नवाज ने तुम्हारी सेवा प्रसन्नतापूर्वक कबूल की है और इसे ही अपनी सच्ची खिदमत बतायी है व मुझे भी इसी राह पर चलने की सलाह दी है। तुम धन्य हो, जो तुम्हें नूरे-इलाही के दीदार होने वाले हैं।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118