आस्था की ज्योति बुझने न पाये

November 1991

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धर्म तंत्र के प्रति विद्यमान लोक आस्था इस बात का संकेत है कि उसके द्वारा मानवीय अन्तःकरण के परिष्कार एवं समाज के कल्याण की सम्भावना के प्रति जनमानस गहनतापूर्वक आस्थावान रहा है। किन्तु लगातार इसके दोहन किए जाने और बदले में लोक मानस को समुचित मार्गदर्शन न दिए जाने के कारण आज यह छीजती हुई दिखाई देती है।

इसके इस तरह घटने का कारण सिर्फ यही है कि यह विद्या अनगढ़ लोगों के हाथ में आ गई। कोई भी उपकरण जानकारियाँ सूत्र जब इस तरह के गैर समझदार हाथों में पड़ जाते हैं तो उनका स्वाभाविक और समुचित उपयोग नहीं हो पाता। कुशल एवं लम्बे समय प्रशिक्षण पाया हुआ चिकित्सक ही लोगों का इलाज कर सकता है। यदि कोई अनाड़ी आदमी बीमारी ठीक करने का जिम्मा ले ले तो “नीम हकीम खतरे जान” वाली कहावत सत्य प्रमाणित होगी। यही बात भव निर्माण कला के सम्बन्ध में है। कुशल इंजीनियर शानदार गगनचुम्बी इमारतें सहजता से खड़ी कर सकता है। पर यही काम यदि अनजान आदमी ले ले तो इमारत में ढेरों कमियाँ, कुरूपताएं दिखाई पड़ेंगी। इन सारी कमियों का दोष चिकित्सा शास्त्र या भवन निर्माण विधा का नहीं है। इनमें निहित सत्य तो अपने आप में निर्दोष है पर गलत हाथों में पड़ जाने से उनकी अभिव्यक्ति विकृत रूपों में होती है।

अभिव्यक्ति की विकृति को विधा की विकृति समझ बैठना समझदारी की कमी ही मानी जाएगी। धार्मिकता और इसके प्रति आस्था के बारे में भी यही बात इसमें निहित सूत्रों के अनुकरण से क्रियाकलापों में पवित्रता, प्रखरता एवं उत्कृष्टता का समावेश होता है। यदि किसी धार्मिक कहे जाने वाले में ये गुण न दिखाई दें तो इसका सीधा मतलब है कि उसने इसके सूत्रों सिद्धाँतों को ठीक-ठीक समझा नहीं।

इसी तथ्य से सहमति व्यक्त करते हुए प्रख्यात मनीषी अल्डुअस हक्सले का अपनी रचना “द पेरीनियल फिलॉसफी” में कहना है कि धार्मिकता व आध्यात्मिकता का तात्पर्य उन विधाओं से है जिनकी अनिवार्य जरूरत मानवीय कल्याण एवं मानव जीवन के उत्थान के लिए है। इनसे जीवन में समरसता, सामंजस्य, शक्ति और सन्तुलन आता है। डॉ. राधाकृष्णन और पी.टी. राजू अपनी रचना “द कॉन्सेप्ट आफ मैन” में कहते हैं कि धार्मिकता ही वह नीति है जो सामाजिक व्यवस्था, जीवन की स्वस्थता तथा कल्याण का प्रसार करती है। इसका महत्व लोक जीवन के साथ स्वयं के जीवन में भी है। इसे सुख आनन्द की स्थापना की विधा के रूप में जाना जा सकता है। मानवता की भूमि में प्रेम से, द्वेष पर न्याय से, अन्याय पर सेवा से, स्वार्थ पर गुणों के द्वारा दोषों पर विजय पाने की एक मात्र प्रणाली यही है।

परन्तु इस प्रणाली की उपरोक्त परिणतियाँ स्वयं के जीवन में तभी अनुभव की जा सकती हैं, जब प्रणाली के प्रति गहन आस्था और क्रिया के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण हो। अन्यथा आलस्य प्रमाद को आश्रय देकर अधूरे मन से अपनाई गई पद्धति अपने परिणाम प्रस्तुत नहीं करती। वैज्ञानिक को अपनी विधा में गहन आस्था होती है। इसके साथ ही वह प्रयोग की विधियों में किसी तरह की कोई कमी भूल किसी तरह बर्दाश्त नहीं करता। उसकी दत्तचित्तता व एक निष्ठ मनोयोग के बारे में कहना ही क्या? ये सारी चीजें मिलकर ही चमत्कृत कर देने वाले नतीजे सामने लाती हैं। लोग सोचने पर विवश हो जाते हैं कि इसके ऐसे अकल्पनीय परिणाम भी हो सकते थे। धार्मिक प्रणाली के बारे में भी यह सत्य लागू होता है। धर्म जीवन विज्ञान है। इसके प्रयोगकर्ता में इसके प्रति गहन आस्था का होना आवश्यक है। साथ ही सारी कमियों, भूलों को दूर कर प्रमोद को दूर फेंककर समूचे जीवन को इसके अनुरूप ढालना होगा। ऐसा कर पाने पर परिणाम भी आश्चर्यचकित करने वाले आएँगे।

प्राचीन काल के ऋषियों ने अपने शोध प्रयासों तथा स्वयं के जीवन पर अनेकानेक प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों के बलबूते न केवल स्वयं को श्रेष्ठ विभूति सम्पन्न बनाया था बल्कि जन मानस में इसकी सैद्धान्तिकता व व्यावहारिकता के प्रति आस्था भी जगाई थी। आज यदि यह घट रही है तो इसका कारण पिछली कुछ शताब्दियों से प्रतिभाशालियों के द्वारा इसकी उपेक्षा तथा उस प्रतिगामी तत्वों का एकाधिपत्य है। इस कारण ही उसमें विकृतियों की भरमार हो चली है। आज धार्मिकता सिर्फ सिद्धाँतों की बक-झक होकर रह गई है और भी न जाने कितनी विडम्बनाएँ इस क्षेत्र में चल पड़ी हैं। समाज के श्रम, धन, समय का शोषण होने लगा। जिस आदर्शवादी दृष्टिकोण, परिष्कार, धर्म तन्त्र की स्थापना का उद्देश्य था वह तो भूलता, बिसरता, गायब होता चला गया। फैलता गया झूठा आडम्बर, भाग्यवाद, पलायनवाद के साथ वह विकृत दृष्टिकोण जिसके अनुसार नदी स्नान, देवदर्शन, तीर्थ-भ्रमण जैसे छुटपुट कर्मकाण्डों से पाप के दण्ड भुगतने से छुटकारा मिल जाता है। अनैतिकता और अकर्मण्यता को बढ़ाया देने वाली मान्यताएँ इस क्षेत्र में लम्बे समय तक छाई रहीं। उस मृगमरीचिका में भटक रही जनता भ्रान्त क्लाँत हो चली है। विचारशील वर्ग में धर्मतन्त्र के प्रति आस्था वैसी अविचल नहीं रही। वे इसकी उपयोगिता को संशय की दृष्टि से देखने लगे हैं।

विचारणीय यह है कि भारत के लोक मानस में मानवतावादी सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों की स्थापना किस पृष्ठभूमि पर हो सकती है? उपयोगी गतिविधियाँ अपनाने के लिए जनसामान्य को सहमत करने की सबसे अधिक सरल प्रक्रिया क्या होगी?

धार्मिकता भारतीय जनता का प्रिय तत्व रहा है। इसकी आस्थाओं के प्रति विचलन सामयिक है। कुछ ऐसे लोग अथवा समूह इस पवित्र कार्य हेतु सन्नद्ध हो जायँ जिनकी वैचारिकता, भावना तथा कार्य प्रणाली में समरूपता हो तो यह संकट दूर हो सकता है। श्री राम कृष्ण परमहंस के शब्दों में धार्मिक व्यक्ति जब सोलह आने आदर्शवादी होगा तो उसे देखकर लोग एक आने आदर्श का पालन जरूर करेंगे। अतएव उपदेशकों में राई रत्ती कमी को जनमानस बर्दाश्त नहीं करेगा। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में “भारत आह्वान कर रहा है ऐसे पुरुषार्थी एवं त्यागी लोगों का, जो स्वार्थ, वासना, कामना सभी कुछ को धार्मिक आस्थाओं की स्थापना की पवित्र वेदी पर अर्पित कर सकें। इससे कम में मानववादी विचार, आदर्शवादी मान्यताएँ सरलतापूर्वक जनसमुदाय को नहीं समझायी जा सकती।”

ऐसे लोग ही धार्मिक कलेवर का उपयोग विवेकपूर्ण विचारों के शिक्षण के लिए सफलता पूर्वक कर सकते हैं।

आज भी जनता के धन, समय और मनोयोग का बहुत बड़ा भाग धर्मतन्त्र के लिए स्वेच्छा से समर्पित होता रहता है। अतः उस शक्ति का सदुपयोग करना एक जरूरी कर्तव्य कर्म है। धर्म कलेवर में नए प्राण फूँकना भारत में एक राष्ट्रीय कर्तव्य है।

इसी के द्वारा लोकमानस का परिष्कार व परिमार्जन सम्भव है। प्राणी भी पदार्थों की तरह अनगढ़ होते हैं। पदार्थों को पकाना, गलाना, ढालना, खरादना जरूरी होता है तभी वे काँतिमान, सुन्दर, सुडौल और उपयोगी बनते है। किन्तु इस प्रक्रिया के लिए पहली जरूरत साँचे की है जिसके आधार पर यह महत्वपूर्ण कार्य सम्भव बन पड़े। ऐसा बन सकने के लिए सामर्थ्य वालों को आगे की पंक्ति में आना होगा।

एक लम्बे उसे से धर्मतन्त्र का काफी दुरुपयोग हुआ है और वह मनुष्य के लिए हानिकारक विकृतियों का पोषण केन्द्र बनता जा रहा है। इस पर भी इसके प्रति लोक आस्था हुई है। इसकी ज्योति को स्वास्थ्यप्रद प्राणवायु से प्रखर-प्रदीप्त बनाया


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