धर्म-दर्शन कैसे आचरण में उतरे?

November 1991

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कार्य में श्रेष्ठता की अभिव्यक्ति होना तभी सम्भव है, जब उसके मूल में चिन्तन की उत्कृष्टता हो। क्रिया-कलाप मूल्यवान अवश्य हैं किन्तु उसके पीछे लगे चिन्तन के महत्व को भी अस्वीकार नहीं जा सकता। करने के महत्व का आधार वह अव्यक्त चिन्तन ही है जो अपने प्रेरणा-प्रवाह के सातत्य से इसे जीवन्त बनाता है।

क्रिया का विश्लेषणात्मक विवेचन करने पर स्पष्ट होता है कि उसका स्वरूप एक वृक्ष के सदृश है जिसकी जड़े चिन्तन परिक्षेत्र में गहरी जमी होने के कारण अदृश्य होती हैं। दीख पड़ने वाला कार्य तने और टहनियों के सदृश है। इसके परिणाम ही वह फूल-फल हैं जो उद्देश्यों का स्वरूप अभिव्यक्त करते हैं।

आज मानवीय क्रिया-कलापों में एक मूल्यात्मक ह्रास की अनुभूति हो रही है, विश्व के विभिन्न चिंतक समाज विज्ञानी इसी उधेड़ बुन में पड़े हैं कि मानव के वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन को श्रेष्ठ कैसे बनाया जाय? मनोअध्येता एरिक फ्राम ने इस संकट को मानव मन का संकट कह कर निरूपित किया है।

निश्चित ही वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में श्रेष्ठता की प्रतिष्ठापना तभी सम्भव है, जब चिन्तन में व्याप्त विकृति को दूर किया जा सके। चिन्तन परिक्षेत्र बंजर हो जाने के कारण कार्य भी नागफनी, बबूल जैसे हो रहे हैं। इनसे मानवता का कष्ट पीड़ित होना स्वाभाविक ही है। स्थिति का मूल्याँकन करते हुए आध्यात्मविदों ने इसे “आस्था संकट” का नाम दिया है। उद्योग विज्ञान एवं तर्कवाद की विकृति ने मानव मन से श्रेष्ठता का मूलोच्छेद करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। फलतः पशु प्रवृत्तियाँ, संचित कुसंस्कार भी भड़के हैं और समूची मानव जाति को स्वार्थान्धता की विडम्बना ग्रसित करती चली जा रही है।

इसका परित्राण तभी सम्भव है जबकि श्रेष्ठता का प्राण इसमें संचारित हो। किन्तु इसे होना भी अनिवार्य है। व्यापकता के साथ इसके संयुग्मन को ही आध्यात्मवादियों ने आस्तिकता का नाम दिया है। आस्तिक होने का सीधा तात्पर्य है कि सर्वज्ञ परिव्याप्त श्रेष्ठ तत्व की धारणा कर तदनुरूप ही जीवन जिया जाय।

धर्म ऐसी जीवन-प्रणाली का विस्तृत विवेचन है, जिसे सूत्रमय भाषा में “शालीनता” और “नीतिमत्ता” कहकर निरूपित किया जा सकता है। इसकी पूर्ति उच्चस्तरीय आस्थाओं के सहारे ही बन पड़ती है। दैनिक जीवन में प्रत्येक क्रिया कृत्य के साथ सज्जनता और उदारता के तत्वों को सँजो देने की विचार पद्धति ही आध्यात्म है। आध्यात्मिकता का समूचा चक्र आस्तिकता की धुरी के इर्द-गिर्द घूमता है। आध्यात्मिकता, आस्तिकता और धर्म सभी एक दूसरे से गहनता से संबंध हैं। इन सभी का एक दूसरे से तारतम्य है। एक कड़ी तोड़ देने से यह समूची जंजीर ही बिखर जाती है। वैयक्तिक जीवन में जिसे नीतिमत्ता कहा जाता है, वही सामूहिक रूप से विकसित होने के उपरान्त सामाजिक सुव्यवस्था बन जाती है। नीति क्या है? इसकी मीमाँसा करना सरल नहीं है। उसका स्वरूप विभिन्न विचारकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। सिजविक अपने ग्रन्थ “मैथड्स आफ इथिक्स” में लिखते हैं कि अधिक लोगों के अधिक सुख का ध्यान रखते हुए नीति निर्धारण किया जाना चाहिए। लेस्ली स्टीफे न का अपने ग्रन्थ “साइन्स आफ एथिक्स” में मानना है- किसी के कार्य के स्वरूप का बाह्य अवलोकन करके उसे नीति या अनीति की संज्ञा नहीं दी जा सकती। कर्ता की नीयत और कर्म के परिणाम की विवेचना करने पर ही उसे स्पष्ट किया जा सकता है।

लेस्ली का कथन यथार्थ ही है। सम्भव है कोई व्यक्ति भीतर से छनी होने पर भी बाह्यतः धार्मिकता का आवरण ओढ़े हो। यह भी हो सकता है कि कोई धार्मिक प्रक्रियाओं से उदासीन रहकर चरित्र और चिन्तन की दृष्टि से बहुत ऊँची स्थिति में रह रहा हो। व्यक्ति की गरिमा का आकलन मात्र उसकी आँतरिक आस्थाओं को देखकर ही किया जा सकता है। नीयत सच्ची ऊँची रहने पर यदि व्यवहार में भूल अथवा भ्रम से कोई ऐसा काम बन पड़े जो देखने वालों को भला न लगे तो भी यथार्थता जहाँ की तहाँ होगी। व्यवस्था में गड़बड़ फैलाने के कारण उसे दण्डित तो अवश्य किया जा सकता है। किन्तु इतने पर भी उसकी उत्कृष्टता अक्षुण्ण बनी रहेगी। व्यक्तित्व और कर्तृत्व की सही परख उसकी आस्थाओं को समझे बिना नहीं हो सकती। धर्म तत्व की गहन गति इसीलिए कही गई है कि उसे मात्र क्रिया के आधार पर नहीं जाना जा सकता। नीयत या ईमान की व्यापक श्रेष्ठता ही उसका प्राण भूत मध्य बिन्दु है।

इसका निरीक्षण, परीक्षण, विवेचन तथा विश्लेषण आप्त वचनों व शास्त्र सूत्रों के मार्ग दर्शन में किया जा सकता है। पर ऐसा करना तभी सम्भव है जबकि मन पूर्वाग्रहों से मुक्त हो। अन्यथा उनकी व्याख्याएँ इस प्रकार तोड़ी, मरोड़ी जाने लगेंगी कि तर्क की दृष्टि से चमत्कारी कहा जाने वाला प्रतिपादन भी शास्त्रकारों एवं आप्त पुरुषों, शास्त्रकारों के मूल मन्तव्य की वास्तविकता को कुबड़ा बनाने वाला ही होगा।

धार्मिकता के इतिहास में सदियों यही होता आया है। होना यह चाहिए कि प्राज्ञ पुरुष अथवा ग्रन्थ के अनुरूप चिन्तन एवं क्रिया की संरचना तथा कार्य विधि को ढाला जाता है। किन्तु हुआ यह कि महापुरुषों के वचनों आर्ष ग्रंथों के प्रतिपादनों की अपने-अपने पूर्वाग्रहों के अनुसार चित्र विचित्र व्याख्याएँ की गई। फलतः स्वयं की भी आस्थाओं का परिष्कार परिमार्जन न हो सका और लोक मानस भी भ्रम में पड़ा।

उपनिषद्कार ऋषि इसी भाव को स्पष्ट करता हुआ कहता है “नायमात्मा प्रव्रचनेन लभ्य न मेधया न बहुना श्रुतेन।” अर्थात् परम सत्य की प्राप्ति न बहुत भाषण देने से होती है और न ही बौद्धिक, तार्किकता अथवा लगातार सुनते रहने से होती है। इसके लिए स्वयं की मनोभूमि का परिष्कार करना होगा। चिन्तन क्षेत्र में व्यापक श्रेष्ठता के तत्व की प्रतिष्ठापना के साथ कार्यों में इसकी बाह्याभिव्यक्ति का उत्कट प्रयास करना होगा।

समूचा आध्यात्मवादी तत्वदर्शन इन्हीं उच्चस्तरीय आस्थाओं के प्रति निष्ठावान रहने को प्रेरित करता है। धर्म व दर्शन की उपयोगिता इसी में है कि वह मानवीय चिंतन के स्तर को ऊंचा उठाए, उसे आत्म में उतारने का साहस भी प्रदान करे। वस्तुतः न तो नीत्शे का व्यक्तिवाद ही व्यावहारिक है और न ही मार्क्स का समाजवाद। उनमें से प्रथम व्यक्ति को ही सब कुछ मानता है द्वितीय समाज को। किन्तु व्यावहारिकता की कसौटी दोनों को ही असफल सिद्ध करती है।

एक मात्र आध्यात्मवादी चिंतन ही ऐसा है जो इन दोनों के मध्य सुरुचि पूर्ण से सामंजस्य का संस्थापन करता है, जहाँ वैयक्तिक उन्नति की ऊँचाइयों को आत्मा के शीर्ष स्थल पर ले जाता है वहीं यह भी उपदिष्ट करता है कि व्यक्ति और कुछ नहीं समष्टि का एक अभिन्न अंश है।

मानव के मानसिक संकट अथवा आस्था संकट के इस दुष्कर काल में इस आध्यात्मवादी चिंतन की आवश्यकता मरुभूमि में बरसात के सदृश है।


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