मंगलदीप जलाओ साथी (Kavita)

November 1991

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चलो, गुरु-ज्ञान का दीपक, हमें घर-घर जलाना है।

अँधेरे से डरे हैं जो, उन्हें हिम्मत बँधाना है॥

अँधेरी रात पाकर के, निराशा ने जिन्हें घेरा।

निराशा में जमाना चाहते पीड़ा-पतन डेरा॥

नहीं वे सोच पाते हैं, लड़ें कैसे अँधेरे से।

निकल पाते निराशा के, न जब तक क्रूर घेरे से ॥

उन्हें आशा-किरण का करिश्मा, जाकर बताना है ॥

अरे! क्यों हारते हिम्मत, अँधेरा कब सदा रहता।

सुबह की ही प्रतीक्षा में, इसे संसार सह लेता॥

कहीं सूरज निकलने की, सुनिश्चित तैयारी में है।

अँधेरा हमेशा को ही, न किस्मत तुम्हारी में है॥

तिमिर से जूझने की, भोर तक हिम्मत दिखाना है॥

न घबराओ, पतन, पीड़ा पराभव से तनिक भाई।

समय इतना निकट है, अन्त होने की घड़ी आई॥

कि युग-ऋषि ने पुनः देवत्व मानव का जगाया है॥

दनुजता को मिटाने का, अरे! बीड़ा उठाया है॥

निराशा छोड़ दो, मन में तुम्हें आशा जगाना है॥

नया युग आ रहा है, फिर निराशा टिक न पाएगी।

नगर में, गाँव में, घर में, अँधेरी दिख न पाएगी॥

उदय होगा नये दिनमान का, पथ जगमगाएगा।

यही दीपक हमें गुरु-ज्ञान सूरज से मिलाएगा॥

यही है सूर्य का प्रतिनिधि, इसे साथी बनाना है॥

-मंगल विजय


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