संत के संकल्प से हुआ कायाकल्प

November 1991

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नर्मदा तट पर बसे एक गाँव मेखलमती में एक धर्म सभा आयोजित की गयी। उसी दिन यहाँ मंत्र दीक्षा संस्कार सम्पन्न हुए थे। बहुत बड़ी संख्या में ग्रामवासियों ने पशुबलि न करने का संकल्प लिया था और काली के स्थान पर गायत्री महाशक्ति की उपासना का व्रत लिया था। धर्म सभा का आयोजन उन्हीं के उद्बोधन के लिए हुआ था।

बात उस समय की है जब गोंडवाना प्रदेश में व्यापक रूप से पशु हिंसा का प्रचलन था। काली को प्रसन्न करने के नाम पर निरीह जीवों की हत्या का क्रम इस तेजी से चलता था कि नवरात्रियों पर कई बार एक एक लाख पशुओं को देव बलि के नाम पर वध कर दिया जाता था। इन्हीं दिनों वहाँ चतुर्भुज नामक एक महापुरुष का अवतरण हुआ। वे उपासना के नाम पर होने वाली ऐसी निर्दय जीव हिंसा देखकर द्रवित हो गये। उन्होंने लोगों को बहुतेरा समझाने का प्रयत्न किया, किन्तु समर्थ को मानने और प्रभावशील व्यक्तित्व का आदेश स्वीकारने की अनादि काल से चली आ रही परम्परा झूठी कैसे होती? प्रभावशाली व्यक्तित्व और प्राणपूर्ण वाणी ही जन दिशा मोड़ती है। उसके अभाव में अत्यन्त करुणार्द्र चतुर्भुज का भी कोई प्रभाव पड़ा नहीं।

तब उन्होंने विधिवत गायत्री उपासना प्रारंभ की। गायत्री उपासना से उन्हें न केवल आत्मबोध हुआ, वरन् वह शक्ति भी मिली जिससे दूसरों को प्रभावित कर पाते। उनकी वाणी में वह शक्ति उभरी जिससे सुनने वाले ठगे से रह जाते। गायत्री उपासना से विमल हुई बुद्धि में विद्वता की तीव्रधार चढ़ती चली गयी जिससे अध्यात्म विद्या के गूढ़ रहस्य एक के बाद एक परतों की तरह खुलते चले गये। प्रतिफल यह हुआ कि बड़ी संख्या में लोग उनसे दीक्षा ग्रहण करने लगे। उन्होंने लोगों को बताया कि महाकाली गायत्री की ही एक शक्ति धारा है जिसका अर्थ पशु प्रवृत्तियों का उन्मूलन होता है-पशुवध नहीं, फलतः गोंडवाना प्रदेश का यह कलंक छूटा और लोग गायत्री महाशक्ति की सात्विक दक्षिणमार्गी उपासना में प्रवृत्त हो सके। चतुर्भुज ने सर्वत्र घूम-घूमकर गायत्री उपासना की दीक्षा दी और इस अन्धकार के युग में भी इस महाविद्या को विनष्ट होने, विलुप्त होने से बचा लिया। जिस समय यह सभा चल रही थी, श्रोताओं में चोरी के माल सहित एक चोर भी उत्कण्ठावश आ बैठा। उसी सभा में वह व्यक्ति भी उपस्थित था जिसके यहाँ चोरी हुई थी। संत ने कहा-गायत्री सद्बुद्धि की, सद्-विवेक की, ऋतंभरा प्रज्ञा की देवी है। इसका अवलम्बन लेने वालों का मन पाप पंक में कभी नहीं लिपटता। गायत्री दीक्षा का अर्थ ही है-दूसरा जन्म अर्थात् पापपूर्ण अन्धकारमय जीवन का अन्त और पवित्र प्रकाशपूर्ण जीवन का आरंभ। यद्यपि वह चोर को पहचान न सके परन्तु चोर के मन पर संत की वाणी का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने अपने कृत्य का वहीं प्रायश्चित्त करने का निश्चय कर लिया। जैसे ही सभा विसर्जित हुई उसने चोरी का सारा सामान उनके चरणों पर रखते हुए स्वीकार किया कि उसने अभी तक अनेक अपराध किये हैं, उसकी सजा भुगतने के लिए वह तैयार है।

संत ने चोरी का माल जिसका था उसे लौटा दिया और चोर से प्रायश्चित्त स्वरूप कृच्छ्र चान्द्रायण करा कर उसे शुद्ध कर दिया।

गोंडवाना नरेश उस दस्यु को अपनी सारी शक्ति लगाकर भी नहीं पकड़ पाये थे। जहाँ कहीं भी उसका पता चलता, पकड़ने के प्रयास किये जाते, पर वह किसी के हाथ नहीं आता। संत चतुर्भुज के सामने आत्म समर्पण करने और दीक्षा ग्रहण कर साधनारत होने का समाचार पाकर वे स्वयं भी जन सभा में उपस्थित हुए। गायत्री उपासना से विकसित संत की तेजस्विता देखकर वे पराभूत हो उठे और उनने स्वीकार किया कि लोगों का हृदय परिवर्तन राजतंत्र से नहीं आध्यात्मिक धरातल पर ही संभव है। सो उनने भी विधिवत् गायत्री उपासना की दीक्षा ग्रहण की और मांसाहार जैसी दुष्प्रवृत्ति का परित्याग किया।

तेजस्वी संत के समक्ष दस्यु द्वारा आत्मसमर्पण किये जाने एवं नरेश द्वारा स्वयं दीक्षा ग्रहण करने का समाचार सारे प्रान्त में आग की तरह फैल गया। अब तो जन-जन में उत्साह की लहर दौड़ गयी। लोग देव-साक्षी में अपनी बुराइयों को बलि देने लगे और इस तरह पूरे गोंडवाना प्रदेश में व्यापक रूप से लगा पशु-हिंसा का पाप पूरी तरह धुल कर स्वच्छ हो गया।

गोंडवाना प्रदेश में विद्या व्यसन जाग्रत हुआ। लोग अध्यवसायी बने। देखते-देखते यह प्रान्त देश का समुन्नत और साक्षर क्षेत्र बन गया। संत चतुर्भुज की गायत्री उपासना का फल उस क्षेत्र की उन्नति के रूप में उभरा। सारे प्रदेश की जनता ने अपना दूसरा जन्म हुआ अनुभव किया। लोगों को जीव-हिंसा से विरत करने और उनका कायाकल्प करने का संत का संकल्प पूरा हुआ।

परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी


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