महत्वाकाँक्षी हों, पर अध्यात्म क्षेत्र के

November 1991

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आध्यात्मिक आकांक्षाओं की पूर्ति में कोई बड़ा व्यवधान नहीं है। सच्चरित्रता अपनाने और लोकसेवा में लिप्त होने का मन हो तो वैसे अवसर कहीं भी, कभी भी मिल सकते हैं। इस प्रकार की इच्छापूर्ति के अवसर कहीं दूर तलाशने के लिए नहीं जाना पड़ता। वे हर जगह इतनी अधिक मात्रा में विद्यमान हैं कि सरलतापूर्वक उनमें से कभी भी, किसी को भी चुना जा सकता है। निराश होने जैसा कभी कोई प्रसंग आने की आशंका नहीं है।

अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए अध्ययन अध्यवसाय की जरूरत पड़ती है। इसके लिए 24 घन्टे वाले दिन रात में से प्रयत्नपूर्वक कई घंटे बचाए जा सकते हैं और योजनाबद्ध परिश्रम करते हुए प्रगति पथ पर धीमी या तेज गति से आगे बढ़ा जा सकता है।

अपने गुण, कर्म, स्वभाव में शालीनता, सज्जनता को अधिकाधिक मात्रा में समाविष्ट करते चलना भी ऐसा मार्ग है जिस पर चलने वाले को राह में कंकड़ों-कंटकों से नहीं उलझना पड़ता है। आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया तब कुछ भी कठिन नहीं रह जाती जब मनुष्य पूर्वाग्रहों और पक्षपातों से अपने को विरत कर लेता है। उसे अपनी त्रुटियाँ आसानी से दीख पड़ती हैं और यदि व्यक्तित्व को गरिमामय बनाने की आकाँक्षा है तो उन्हें सुधारते हुए प्रगति एवं प्रसन्नता का अनुभव होता है। यह प्रयास किसी के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। कोई भी व्यक्ति अपने को क्रमशः अधिक शिष्ट सभ्य बनाता चल सकता है। असभ्यता और उद्दण्डता अपनाने में जितनी धृष्टताएँ मनुष्य को अपनानी पड़ती हैं, उनमें से एक अंश भी आत्मा के लिए आड़े नहीं आता। यह मार्ग सरल और चलते रहने वाले के लिए सफलताप्रद भी है। धीमी या तेज चाल से चलने वाला देर सबेर में अपने गन्तव्य तक पहुँचकर ही रहता है।

उद्विग्न करने वाली असफलताएँ वे होती है जो वैभव या विलास से संबंधित हों। वासना और तृष्णा का कोई अन्त नहीं वह जितनी भी मिलती जाय वे कम ही प्रतीत होती हैं, क्योंकि जैसे ही एक एक सीमित मात्रा हस्तगत हुई वैसी ही तत्क्षण उससे अधिक बड़ी कामना सिर पर आ सवार होती है और पिछली उपलब्धियों की प्रसन्नता का आनन्द उठाए बिना ही नई नई कामना की पूर्ति के लिए असंतोष सिर पर आ सवार होता है। इस तूफान में अपना रचनात्मक प्रयोजन पूरा कर सकने वाले का संतुलन गड़बड़ा जाता है और अधिक चिन्ता इस बात की लगती है कि अधिक वैभववान कैसे बना जाय? अधिक और ऊँचा उपभोग करने का अवसर कैसे मिले?

उपलब्धियाँ और विभूतियाँ हस्तगत करने के लिए लोगों को तपश्चर्या स्तर के प्रयास करने पड़े हैं। इतिहास साक्षी है कि बड़ी सफलता प्राप्त करने के लिए महापुरुषों ने अपने व्यक्तित्व को गढ़ा है। स्वभाव को सज्जनोचित बनाया है और धैर्यपूर्वक अपने लक्ष्य में इस प्रकार तन्मय बनाया गया है कि एक समय में एक बात ही सामने रहे। अर्जुन के मत्स्यवेध की तरह जो लोग अपने छोटे या बड़े काम में तादात्म्य हो जाते हैं, उन्हीं में उतना चुम्बकत्व उत्पन्न हो जाता है कि अभीष्ट मनोरथ को समीप देख सकें।

इसके विपरीत जो असंगत कल्पनाएँ करते रहते हैं वे समय का, मनोयोग का, एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण अंश ऐसे ही बरबाद कर देते हैं। बदले में क्रोध के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। कामुकता की दिशा में स्वच्छन्द उड़ाने उड़ने वाले जीवित व्यक्तियों में से किसी को भी दुराचार के लिए सहमत मानकर चलते हैं। निकटस्थ, दूरस्थ, परिचित, अपरिचित, इच्छुक, अनिच्छुक में वे कोई अन्तर नहीं कर पाते। दूसरे की सहमति प्राप्त करने की मंजिल कितनी लम्बी है यह भी नहीं सोच पाते वरन् सर्वग्रही बनकर इतना भर सोचते हैं कि यह सारा संसार हमारे ही उपयोग के लिए बना है। सोचने की हर किसी को छूट है पर प्राप्ति के मार्ग में हजार अड़चने हैं। शासन, समाज, अवसर अन्तःकरण आदि के प्रतिरोधी बनकर खड़े हो जाने पर सारे शेखचिल्ली वाले सपने धूल में मिल जाते हैं। असफलता हाथ लगती है। यह स्थिति दिन-दिन अधिक स्पष्ट होती जाती है। इस प्रकार सँजोये हुए सपने उसी प्रकार उड़ जाते हैं जैसे हल्की बदली को तेज हवा कहीं से कहीं उड़ा ले जाती है। तब प्रतीत होता है कि पाले हुए तोते हाथ से उड़ गये।

कामुकता की तरह ही धन वैभव की अभिलाषा है। समय, श्रम, ज्ञान और प्रयास का सम्मिलित स्वरूप धन है। जो उचित मूल्य चुकाने पर पाया जाता है वही फलता फूलता है पर जो ठगी, प्रपंच, धूर्तता, पाखण्ड, अनाचार अपनाकर किसी प्रकार,किसी मात्रा में संग्रह कर लिया जाता है वह देर तक ठहरता नहीं। जैसे कमाई होती है, वैसा ही रास्ता बना लेती है। जेबकतरे, जुआरी, उचक्के, लुटेरे जिन्दगी में ढेरों धन इन कुकृत्यों द्वारा प्राप्त कर लेते हैं पर वह राशि दुर्व्यसनों, अपव्ययों में इस प्रकार उड़ जाती है मानों जमीन पर फैला हुआ पेट्रोल हवा लगते ही ऊपर आसमान में उड़ गया हो। इस प्रकार वैभव एकत्रित करने वाले देखते हैं कि उनके सामने या पीठ पीछे वह धन किस तरह अवाँछनीय मार्गों द्वारा उड़ कर समाप्त हो गया, बदले में बुरी आदतें और बदनामी भर पल्ले बँधती है, इतनी मजबूती के साथ कि उनकी कालिख जिन्दगी भर किसी प्रकार न छूट सकें। यशस्वी बनने की, वाहवाही लूटने की ललक कितनों पर भी सवार हो जाती है। वे नेता, बड़े आदमी, प्रख्यात, बहुचर्चित बनना चाहते हैं। साथ ही यह भी सोचते हैं कि यह प्रयोजन आडम्बर रचने के सहारे ही पूरा हो सके। इस प्रकार किसी अंश में कोई कुछ प्राप्त भी कर ले, तो भी वस्तुस्थिति प्रकट होने पर छद्म खुलता है और आरंभ में जितनी प्रशंसा हस्तगत हुई थी उससे अनेक गुनी निन्दा और घृणा सिर पर लदती है। वह इतनी भारी होती है कि जीवन भर लदी रहती है और दुबारा वैसा ही कोई प्रपंच रचने के लिए गुंजाइश नहीं छोड़ती।

चापलूसों, चाटुकारों के द्वारा प्राप्त की गई सस्ती वाहवाही केवल मुँह के सामने ही टिकती है। पीठ फेरते ही उसका मुखौटा उतर जाता है और निन्दा, उपहास,तिरस्कार के रूप में उसका तत्काल रूप बदल जाता है। ऐसी मिथ्या सस्ती वाहवाही लूटने वाले को मूर्ख समझा जाता है। दूसरे उस मूर्खता भरी हवस को क्षणिक उत्साह देने के लिए उन्हीं लोगों द्वारा लूटा जाता है, जो चापलूसी करने भर से अपनी मित्रता का मूल्य चुका देते हैं।


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