जिम्मेदारी अनुभव करते हुए (Kahani)

November 1991

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तुकाराम महाराष्ट्र के प्रख्यात संतों में से एक हैं। वे शूद्र कुल में उत्पन्न हुए थे। उन दिनों छुआ छूत का दौर था तो भी वे अपने तप-त्याग तथा परमार्थरत रहने के कारण ब्राह्मण से भी बढ़ा चढ़ा सम्मान पाते रहे। रूढ़िवादी समुदाय ने उनकी ख्याति से चिढ़कर अनेकों कष्ट दिये पर वे बिना विचलित हुए अपना काम करते रहे। सेवा उनके रोम-रोम में भरी थी। उपासना और धर्मचर्चा के अतिरिक्त जितना भी समय बचता उसे दीन दुखियों की सेवा में ही लगाये रहते। जन मानस में धर्मधारणा भरने का कार्यक्रम बनाया और मण्डली समेत दूर-दूर क्षेत्रों में भ्रमण करते हुए वह कार्य जीवन भर करते रहे। उनने हजारों गीत लिखे जो धार्मिक जगत की अमूल्य निधि है।

बुद्धि, बल, स्वास्थ्य, सुख आदि को बढ़ाने वाले तत्वों का समावेश करता है। किसी भी कार्य को पूरी तत्परता एवं तन्मयतापूर्वक जिम्मेदारी अनुभव करते हुए सम्पादित करता है, फलतः वह एकाग्रता, जीवट एवं प्रतिभा की दृष्टि से सम्पन्न होता हुआ प्रखर बनता है और समाज का अनिवार्य अंग सिद्ध होता है। राजसिक प्रकृति वाले मनुष्य अपने गुण, कर्म, स्वभाव में ऐसे तत्वों का समावेश करते हैं, जिसमें लोभ, मोह एवं अहंकार का सम्पुट होता है, फलतः विकृत चिंतन एवं संकीर्ण स्वार्थपरता दृष्टिकोण में सम्मिलित होने के कारण अपनी शक्ति, अपना व्यक्तित्व, इतना घटिया एवं निकृष्ट बना डालते हैं, जिसे मानवोचित गरिमा के विपरित ही कह सकते हैं। ऐसे लोगों को नर तन धारी नर पशु की संज्ञा दे सकते हैं जिनके प्रत्येक क्रियाकलाप में पशु−प्रवृत्ति की बू आती है। उत्कृष्ट चिंतन एवं आदर्शवादी दृष्टिकोण अपनाना तो जैसे इन्होंने सीखा ही न हो। सामान्य जीव जन्तुओं की तरह पेट भरने और प्रजनन के कौतुक का रसास्वादन करने के लिए जीवित रहते हैं। उन्हें न मर्यादाओं के प्रति श्रद्धा होती है और न वर्जनाओं से बचने की ललक। अंकुश और नियंत्रण के अवरोधों से बाधित होकर ही वे अनुचित को अपनाने से रुक पाते हैं। स्वच्छता और क्षमता रहने की स्थिति में उन्हें मर्यादा पालन में कोई उत्साह नहीं रहता। अज्ञान तथा भ्रमवश अपने कर्तव्यों को छोड़ बैठते हैं। दूसरे के कष्टों को ध्यान में न रखते हुए उनके समस्त कार्य होते हैं। उनकी बुद्धि विपरीत दिशा में ही कार्य करती है और वे सदैव उल्टा ही सोचते हैं।

ये थे व्यक्तित्व के भिन्न-भिन्न आयाम एवं सामयिक परिस्थितियों की आवश्यकता एवं उस काल में विज्ञानियों का दृष्टिकोण जो इस प्रगति क्रम में विशिष्ट व्यक्तित्व लिए हुए लोगों के समूह की भविष्य वाणी करता है। ये भिन्न-भिन्न निष्कर्ष निकालते हुए निर्धारित करते हैं कि आने वाले दिनों में व्यक्तित्व की क्या परिभाषा होनी चाहिए अथवा मनुष्य को अपना व्यक्तित्व किस रूप में विकसित करना चाहिए।

निर्णय एक ही बनता है कि किसी व्यक्ति की बाह्य सफलता एवं भौतिक समृद्धि को देख कर उसके व्यक्तित्व को नहीं जाना जा सकता। इसकी एक ही कसौटी है कि चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में अधिकाधिक शालीनता का समावेश किया गया या नहीं। अंतरंग एवं बहिरंग प्रामाणिकता एवं प्रखरता से भरा पूरा है या नहीं। अगले दिनों व्यक्तित्व की यही परिभाषा बनने वाली है। सज्जनता, सद्भावना, श्रमशीलता, मितव्ययिता स्वच्छता, सहकारिता, अनुशासन-प्रियता जैसे सद्गुणों को धारण करने वाले ही अपने व्यक्तित्व को प्रखर एवं तेजस्वी बना पाते हैं। उन्हीं की कृति युगों-युगों तक अमर रहती है। इस आधार पर वे गिरों को उठाने, उठों को चलाने, चलतों को दौड़ने एवं दौड़ते को उछालने जैसा महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कर सकने में सफल होते हैं। साथ ही ऐसे व्यक्तित्व वाले लोग समाज के खेत में पुण्य परमार्थ के बीज बिखेर कर फसल को अपने लिए ही नहीं वरन् समाज के लिए काटते और विश्व वसुधा को लाभाँवित करते हैं। इन्हें ही कुशल नाविक की संज्ञा दी जाती है। ऐसे लोग अपनी नाव पर अनेकों को बिठाकर इस पार से उस पार पहुँचा देते हैं। आने वाले समय में यही परिभाषा रहेगी व्यक्तित्व की और यही कसौटी भी। इसके आधार पर ही इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य का निर्माण संभव हो सकेगा।


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