मौत को आगे धकेला जा सकता है!

November 1991

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आहार-विहार की सरल सौम्य स्थिति बनाये रहने पर शरीर समर्थ, निरोग और दीर्घजीवी बनता है। ठीक इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर को-मस्तिष्कीय चेतना को यदि विक्षोभों, उत्तेजनाओं और आवेशों के झंझट दचके लगने से बचाया जा सके और सरल संतोषी हँसता-खेलता हलका-फुलका मन रखा जा सके, तो मानसिक स्वास्थ्य ठीक बना रहेगा और उस स्थिति में शरीर के स्वस्थ, सुन्दर, स्फूर्तिवान रहने से भी अधिक ऊँचे स्तर का आनंद-उल्लास अनुभव किया जा सकेगा। अपने आप में प्रसन्न सन्पुष्ट रहना, आशान्वित और उल्लसित अनुभूतियों का रसास्वादन करते रहना कितना सुखद होता है, इसे अनुभवी ही जानते हैं।

रोग उत्पन्न करने वाली अस्वच्छता, अविवादिता एवं आवेशग्रस्तता से यदि बचे रहा जा सके तो शरीर की अन्तःशक्ति चिरकाल तक अक्षुण्ण बनी रह सकती है। आरोग्यशास्त्र के नवीनतम अनुसंधानों ने अब यह सिद्ध कर दिया है कि शारीरिक स्वास्थ्य वस्तुतः मानसिक स्वास्थ्य की प्रतिच्छाया है। मानसिक स्थिति की प्रतिक्रिया स्वास्थ्य की उन्नति एवं अवनति पर तत्काल देखी जा सकती है।

न्यूयार्क स्थित कोलगेट यूनीवर्सिटी हैमिल्टन प्रयोगशाला के मूर्धन्य मनोविज्ञानी डॉ. डोनाल्ड ए. लेयर्ड ने इस संबंध में गहन अनुसंधान किया है। उनका कहना है कि जिन व्यक्तियों को अपने जीवन में गहरा प्रेम न मिल सका अथवा वे अपने को उल्लसित न रख सके, उन्हें अपच, गठिया तथा दूसरे सिकुड़न संबंधी रोग अधिक सताते देखा गया है। चिकित्सक चाहें तो उन्हें अपना प्रेम देकर भावनात्मक रक्त संचालन कर सकते हैं और उसका वैसा ही चमत्कारी असर देखा जा सकता है। जैसा सर्वथा अशक्त रोगी की बाहरी रक्त देने पर देखा जाता है। इस तरह के उनने कितने ही प्रयोग-परीक्षण किये हैं और सफलता भी पाई है।

बालकों, युवकों और प्रौढ़ों की तुलना में वृद्धों को ही बीमारियाँ अधिक क्यों घेरती हैं? इस संदर्भ में अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन की एक शोष समिति ने निरन्तर सात वर्ष तक गहन अनुसंधान किया और निष्कर्ष निकाला कि-इसका प्रमुख कारण शरीरगत अक्षमता नहीं, वरन् उनके इर्द-गिर्द घिर जाने वाला वातावरण है। सबसे बड़ी कठिनाई उनके सामने तब आती है जब 55-60 वर्ष के बाद उन्हें बलात् कार्य मुक्त कर दिया जाता है। सिर पर थोपी गई बलात् अक्षमता उन्हें अयोग्य, अशक्त और निरर्थक हो जाने की अनुभूति कराती है और निराशा से ग्रसित होकर उस मनोबल को वे खो बैठते हैं जो उनकी सक्षमता और निरोगता के लिए अति महत्वपूर्ण था।

वे अपने को परमुखापेक्षी अनुभव करते हैं। सरकार पेन्शन देगी, कुटुम्बी उनकी सहायता करेंगे, वे अपने बाहुबल से अपनी नाव नहीं खे सकते, किन्हीं दूसरों की कृपा पर निर्भर रहना पड़ेगा-यह सोचते-सोचते उनका आत्मविश्वास हिल जाता है और उस हिली हुई खोखली नींव में होकर एक एक करके अशक्तताएँ और बीमारियाँ दीमकों की तरह प्रवेश करने लगती हैं। यहाँ तक कि उस व्यक्ति को समय से बहुत पहले मृत्यु के मुख में घसीट ले जाती हैं।


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