“एकला चलो रे” का सत्साहस

November 1991

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पानी का स्वभाव निचाई की ओर बहना है। गिरी वस्तु को गिराने पर वह नीचे की ओर अनायास ही गिर पड़ती है। पर यदि ऊपर की ओर चलना हो तो इसके लिए विशेष प्रयत्न करना पड़ता है। पानी को कुँए से ऊपर निकालना हो तो शक्ति लगाने का प्रबंध करना पड़ता है। किसी वस्तु को ऊपर उछालना हो तो भी उसे फेंकने के लिए अतिरिक्त प्रयोग करना पड़ता है। मनुष्य स्वभाव में जन्म जन्मान्तरों की संचित दुष्प्रवृत्तियों का भण्डार भरा पड़ा है। वे अपनी उछल कूद निरन्तर करती रहती हैं। उन्हें क्षण भर के लिए भी चैन नहीं। नटखट बन्दर की तरह उनकी हरकतें चलती ही रहती हैं। ऐसी इच्छाएँ मन में उठती रहती हैं जैसी कि निम्नकोटि के प्राणियों की होती हैं। पेट भरना, अवसर मिलने पर स्वच्छन्द यौनाचार करते रहना, हमला करने या प्राण बचाने के प्रयास में लगे रहना संक्षेप में यही तीन पशु प्रवृत्तियाँ हैं। दूसरे की हानि का उन्हें कोई विचार नहीं रहता अपना मन जो करे, अपना लाभ जिसमें दीख पड़े वह कर गुजरना हेय वर्ग के प्राणियों की प्रवृत्ति होती है। नर वानर भी उन्हीं हरकतों और हलचलों में समयक्षेप करते रहते हैं। नर-पशुओं से और कुछ सोचते करते बन ही नहीं पड़ता। यह हेय स्तर है, जो ईश्वर के राजकुमार मनुष्य को किसी भी प्रकार शोभा नहीं देता। इतने भर से यदि इस जन्म का सुयोग गलत होता चला गया तो समझना चाहिए उपलब्ध वरदान का कोई प्रयोजन ही सिद्ध न हुआ। क्षुद्र जीवधारियों की तुलना मानवी चेतना की गरिमा और संभावना कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी है। इस जन्म में कुछ सोचते या करने का अवसर ही न मिला तो समझना चाहिए कि उपलब्ध सुयोग दुर्भाग्य बनकर रह गया।

मनुष्य इस भूलोक का सर्वोच्च प्राणी है। उसकी शरीर संरचना और अद्भुत मानसिकता ऐसी है जिसे देखते हुए यह कहने में तनिक भी अत्युक्ति ऐसी है कि जिसे भी यह दिव्य सम्पदा हस्तगत हुई है वह असाधारण रूप से सौभाग्यशाली है। ऐसी स्थिति में उच्चस्तरीय श्रेय सम्पादित करने की पूरी संभावना रहती है। आवश्यकता केवल इतनी भर रह जाती है कि मनुष्य जीवन के साथ जुड़ी हुई उपलब्धियों का महत्व और कारण समझा जाय। जो किसी अन्य प्राणी को नहीं मिली वह यदि मनुष्य को प्राप्त हो तो उसे अकारण या अनायास जैसा संभाव्य नहीं मान लिया जाना चाहिए और इतना भर सोच कर नहीं रह जाना चाहिए कि उपलब्धियों को अधिकाधिक मौज मजा उड़ाने में ही समाप्त कर दिया जाना चाहिए। यह मौज भी नितान्त कल्पित है। वह जितने समय तक अनुपलब्ध रहती है, उतनी ही देर उस संदर्भ में उठने वाली आकाश कुसुम तोड़ने जैसी कल्पनाएँ उठती रहती हैं। पर जब इच्छित वस्तु या स्थिति हस्तगत होती है तो उसके साथ जुड़े हुए दायित्व भार इतने अधिक वजनदार होते हैं कि उन्हें वहन करने भर से कचूमर निकल जाता है। जो सोचा गया था वह रंगीली उड़ान भर बनकर रह जाता है। जो सिर पर लदा है उसकी न तो साज सँभाल बन पाती है, न उसे सुरक्षित रखना बन पड़ता है। प्रतिस्पर्धियों द्वारा ही झपट आरंभ हो जाती है। तथाकथित स्वजन उस लाभ में से बड़ा हिस्सा बँटाना चाहते हैं। न मिलने पर विग्रह खड़ा करते है, ईर्ष्या-द्वेष का ऐसा बवंडर चल पड़ता है जिसके कारण उपलब्ध हुई सम्पदाएँ जी का जंजाल बन जाती हैं। उनका सदुपयोग बन पड़ता तो दूर, उन्हें सँभालना और उपयोग कर सकना तक कठिन हो जाता है। तब फिर नई अधिक ऊँचे दर्जे की कल्पनाओं की नई संरचना करनी पड़ती है।

पहले की अपेक्षा क्रमशः अधिक सुविधा साधन मिलते चलने पर भी किसी को भी आज की स्थिति में संतुष्ट नहीं देखा जाता। जो मिला है वह तुच्छ प्रतीत होता है और उससे कहीं अधिक पाने की ललक उद्वेलित करने लगती है। जो उपलब्ध है वह भी इतना अधिक है कि यदि उसका सदुपयोग बन पड़े तो गई गुजरी दीखने वाली परिस्थितियों में भी आगे बढ़ने और ऊँचा उठने का सुयोग सहज ही बनता रह सकता है। भोजन के संबंध में विशेषज्ञों का प्रतिपादन है कि जितना आमतौर से खाया जाता है उससे आधे में शरीर रक्षा भली भाँति हो सकती है। शेष आधा तो भारभूत होकर पेट पर अनावश्यक रूप से लादता है। जीवनी शक्ति को खाता है और अनेक रोगों का शिकार बनाने के लिए ताना बाना बुनता है। ठीक वही बात पदार्थ सम्पदा के संबंध में भी है, बढ़ा हुआ वैभव आज तक किसी के भी व्यक्तित्व के विकास में सहायक नहीं हुआ। उसकी बढ़ोतरी दुर्गुणों, दुर्व्यसनों को बढ़ाती और ऐसे विग्रह खड़ा करती है, जिसका भार न लदा होता तो चैन के साथ जिया और साथियों को प्रसन्नतापूर्वक निर्वाह करने दिया जा सकता था।

स्वस्थ शरीर, सभ्य मन और सज्जनोचित व्यवहार की तीन कलाएँ यदि विदित हों तो जीवनचर्या बिना विक्षोभ और टकराहट के चल सकती है। विवेकशील मन उपयोगी योजनाएँ बनाता है और अपने संकल्प बल तथा पुरुषार्थ के सहारे उन्हें सफल बनाने में बिना भटके भटकाये प्रयत्नरत रहता है। सही मार्ग पर सही रीति से चलने वाले की सफलता निश्चित है। अवरोध केवल प्रगति गति को धीमा कर सकता है। सफलता के चरम लक्ष्य तक पहुँचने में साधनों का अभाव कुछ विलम्ब लगा सकता है, पर यह नहीं हो सकता कि सुविधाओं के अभाव में मार्ग अवरुद्ध पड़ा रहे। इतिहास साक्षी है कि अभावग्रस्त परिवारों और पिछड़ी परिस्थितियों में जन्में व्यक्तियों ने भी अपनी प्रतिभा के बलबूते आगे बढ़ने का रास्ता बनाया है। साधन और सहायक घर बैठे नहीं मिल सके, फिर भी उन्होंने अपने चुम्बकत्व से सहयोग देने के लिए, उपस्थित होने के लिए बाधित किया है।

जब तक परख नहीं होती तभी तक किसी के संबंध में लोकमत अनिश्चित और शंकालु रहता है। पर जब कठिनाई, दबावों, आकर्षणों के सामने न झुकने की स्थिति स्पष्ट हो जाती है तो प्रशंसकों, समर्थकों, सहयोगियों की कमी नहीं रहती। साथ ही किसी न किसी प्रकार उतने साधन भी जुटते रहते हैं जो अग्रगमन के लिए नितान्त आवश्यक हैं। पुरातन काल के साधु-ब्राह्मणों द्वारा स्वेच्छापूर्वक अपनाया गया अपरिग्रह सर्वविदित है। इसके द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया था कि भौतिक अनुकूलताओं के न होने पर भी व्यक्तित्व की प्रखरता अपने बलबूते निज के पैरों पर खड़े रहने और लक्ष्य की दिशा में बढ़ चढ़ने में मनुष्य पूरी तरह समर्थ है। यदि ऐसा न हो तो सम्पन्न लोग वैभव के आधार पर हर स्तर की सफलता खरीद लिया करते। उन्हीं का वर्चस्व सर्वत्र दीख पड़ता। इसके विपरीत जिन्हें सहज सुविधा उपलब्ध नहीं है, वे विवश बाधित होकर गई गुजरी अनपढ़ परिस्थितियों में ही बँधे पड़े रहते, फिर किसी निर्धन या अशिक्षित को ऐसा कुछ करने का अवसर ही न मिला होता जिसे महत्वपूर्ण कहा जा सके। सुविधा से सुगमता तो रहती है पर प्रतिभा असुविधाओं के माहौल में ही निखरती है। पत्थर पर घिसने के उपरान्त ही औजारों की धार तेज होती है। ठीक इस प्रकार प्रतिकूलताओं से संघर्ष करने के उपराँत ही मनुष्य मनस्वी, तेजस्वी और प्रखरता सम्पन्न बनता है।


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