मन्युरसि मन्युँ मयि देहि

November 1991

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आग दुनिया में बहुत है, पर पानी से अधिक नहीं। इतने पर भी हम देखते हैं, चारों ओर से समाज जल रहा है। आतंक अलगाव की धधकती ज्वालाएँ मनुष्य के हँसते-खिलखिलाते अस्तित्व को राख की ढेरी बना डालने के लिए उतारू हैं। रोकथाम के प्रयत्न कितने भी क्यों न किए गए हों पर उसकी पकड़ में दुष्टता की पूँछ भर आयी है। सारा कलेवर जहाँ का तहाँ जमा बैठा अपने विस्तार के प्रयासों में संलग्न है। आश्चर्य इस बात का है कि सज्जनता का स्पष्ट बहुमत होते हुए भी दुष्टता क्यों पनपती फूलती-फलती जाती है? रोकथाम की सर्वजनीन अभिलाषा क्यों फलवती नहीं होती? असुरता की शक्ति क्यों अजेय बनती जा रही है? देवत्व उसके आगे पराजित होता और हारता क्यों दिखाई देता है?

प्रायः सबके मन को मथने वाले इन सवालों पर विचार करने पर स्पष्ट होता है कि जन मानस में से उस रोष, आक्रोश का, शौर्य- साहस का अस्तित्व मिटा नहीं तो घट अवश्य गया है, जिसमें अनीति की चुनौती स्वीकार करने की तेजस्विता विद्यमान रहती है। इस कसौटी पर औसत आदमी संकोची, पलायनवादी बन जाता है। उसकी स्थिति कुछ वैसी हो जाती है, जैसी गीता के विषादग्रस्त अर्जुन की थी। उसमें रोष, आक्रोश उत्पन्न करने के लिए ही भगवान को गीता सुनानी पड़ी। अपने प्राणप्रिय मित्र को क्लीव, क्षुद्र, दुर्बल, अनार्य आदि एक से एक कड़वी गालियों की झड़ी लगाने की आवश्यकता अनुभव हुई।

गीता के पहले अध्याय में अर्जुन के कथन पर दृष्टि डालें तो उसे समझौतावादी, संतोषी प्रकृति का पाते हैं। वह क्षमा करने, सन्तोष रखने की नीति अपनाना चाहता है। संघर्ष का कटु प्रसंग उसे अच्छा नहीं लगा। आज हम सबकी मनःस्थिति ऐसी हो गई है कि झगड़े में न पड़ने, किसी तरह झंझट काट लेने, अनाचार से निगाह चुरा लेने में ही भलाई समझते हैं। यह भलाई दिखाने वाली सज्जनता का आवरण ओढ़े, क्षमाशीलता वस्तुतः कायरता ही है। इसमें अपने को झंझट में न पड़ने से बचाने के अतिरिक्त किसी से दुश्मनी न मोल लेने और बदनामी से बचने जैसे ऐसे तत्व भी मिले रहते हैं जिन्हें प्रकारान्तर से अनीति समर्थक और परिपोषक ही कहा जाएगा।

छोटे बड़े प्रत्येक अनाचार के अवसर पर यही दृश्य सामने आता है। विरोध-प्रतिरोध, असहयोग करने के लिए साहस दिखा सकने वाले ढूँढ़े नहीं मिलते। भरमार उन लोगों की होती है जो क्षमा का उपदेश देने वाले हैं। बात को जैसे-तैसे दबा देना जिन्हें प्रिय है। पश्चिमी नीतिवेत्ता इमानुएल काण्ट ने अपनी एक रचना में इसी मनोवृत्ति का उल्लेख करते हुए लिखा है अनीति को पोषण उन्हीं के हाथों होता है, जो अपने को नैतिक समझते हैं। इस मनोवृत्ति के कारण स्थिति दयनीय और विषम हो जाती है। लगता है लोगों ने पाप को सुरक्षित करने, उसे फूलने-फलने देने की ऐसी नीति अपना ली है जो बाहर से निर्दोष लगती है, लेकिन वस्तुतः वही अनाचार को बढ़ावा देने में खाद पानी का काम करती है।

भगवान की अवतार प्रतिज्ञा में “परित्राणाय साधूनाँ” के साथ “विनाशाय च दुष्कृताँ” का भी आश्वासन है। प्रत्येक अवतार के चरित्र में इन दोनों ही तत्वों का समावेश मिलता है। अधिक बारीकी से देखने पर स्पष्ट होगा कि अवतारों ने धर्मोपदेश तो कम दिए हैं वरन् पाप से जूझने और उसे निरस्त करने की प्रक्रिया में अपना अधिक समय लगाया है। रामचरित्र में विश्वामित्र यज्ञ रक्षा से लेकर पंचवटी दण्डकारण्य आदि में जूझते हुए अन्ततः रावण के सामने युद्ध में जा डटने के प्रसंग भरे पड़े हैं। कृष्ण चरित्र में भी उनके जन्मकाल से ही असुरों से जूझने की, महाभारत रचाने की और अन्ततः अनीति को पूरी तरह नष्ट कर डालने की संरचना में समय बीता। भगवान परशुराम, नृसिंह, वाराह, भगवती, दुर्गा आदि के अवतार चरित्रों में अनीति से संघर्ष का ही प्रसंग बढ़ा-चढ़ा है। उनके साथी समर्थकों की सेना को ध्यान और समाधि के लिए कितना समय मिला कह नहीं सकते पर स्पष्ट है कि भगवद् भक्तों ने ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए अपनी सामर्थ्य झोंक देने का आदर्श उपस्थित किया। रीछ-वानरों ने, पाण्डवों ने प्रधानतया अनीति विरोधी तप साधना में ही अपना जीवन घुलाया था।

भगवान बुद्ध ने तत्कालीन अनाचारों के, मूढ़ मान्यताओं के विरुद्ध प्रचण्ड क्रान्ति खड़ी की थी। इसी मोर्चे पर जूझने के लिए उन्होंने प्रतिभाओं का आह्वान किया था। जिसे सुनकर आनन्द, अश्वघोष जैसे न जाने कितने आ जुटे। देखते ही देखते जीवधारी शिक्षुओं की सेना खड़ी हो गई। स्वार्थ के लिए सभी संघर्ष करते हैं किन्तु परमार्थ के लिए लड़ना मात्र आदर्शवादी लोगों के लिए ही सम्भव होता है। इसलिए बुद्ध शिक्षा में साधना और संघर्ष का समन्वय है। इसी आधार पर उनने अपने साधनों से सारे विश्व में नवयुग का शंख बजाया और नए जागरण का वातावरण बनाया। उनके न रहने पर अनुयायियों ने अहिंसा की, पूजा-पाठ की सस्ती लकीरें पीटते रहना तो जारी रखा किन्तु अनीति से लड़ने की कष्ट साध्य प्रक्रिया की ओर से मुँह मोड़ लिया। फलतः बौद्ध धर्म मध्य एशिया से चढ़-दौड़ने वाले डाकुओं द्वारा देखते-देखते पद दलित कर दिया गया। शौर्य-साहस की तेजस्विता को खो बैठने वालों की जो दुर्गति होती है वही अपने देश की भी हुई। एकाँगी सस्ती धर्म मान्यताएँ तो दीन दुर्बलों को भी अपनी खाल बचाने के लिए अच्छी लगती है। वास्तविक धर्म में तो अनीति विरोधी संघर्ष जुड़ा हुआ है उसके लिए शौर्य-साहस हो तो फिर मनुष्य बगलें झाँकता है और उन सिद्धाँतों की दुहाई देता है जो मात्र उच्चस्तरीय विशिष्ट आत्माओं को विशेष आदर्श प्रस्तुत करने के लिए ही बनाए गए हैं। पानी में बहते बिच्छू के बार-बार काटने पर भी उसे बार-बार निकलने की कथा किसी विशेष सन्त की कीर्ति में चार-चाँद भले लगा दे पर सर्वसाधारण के लिए उपादेय नहीं हो सकती। उसके लिए तो बिच्छू पर दया करना बच्चों को मार डालने के समतुल्य कहा गया है।

गुरुगोविन्द सिंह का अध्यात्म व्यावहारिक और जीवन्त था। उनने अपने शिष्यों को साधना के साथ संघर्ष का भी प्रशिक्षण दिया था। समर्थ गुरु रामदास ने अपने प्रौढ़ शिष्य शिवाजी को तलवार थमाई थी। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को अनाचार के विरोध में जीवन खपा डालने का निर्देश दिया था। गाँधी ने अपने सत्याग्रहियों को प्रत्यक्ष मृत्यु से लड़ने का निर्देश दिया और “टूट जाना पर अनीति से लड़ने की हट छोड़ना मत।”

भगवान राम ने ऋषियों के अस्थि समूह के टीले देखे। उनकी आंखें छलक पड़ी। किन्तु ये आँसू कायरों, दुर्बलों, भावोन्मादियों के नहीं वीरों के थे। उनने भुजाएँ उठाकर प्रतिज्ञा की, कि जिनने ये दुष्कर्म किए हैं उन निशाचरों से इस पृथ्वी को रहित करके दम लेंगे। यदि अनाचार पीड़ित पर वस्तुतः दया आती हो तो फिर उसका एक ही उपाय है कि उस अनीति के असुर से जूझा जाए जो सारी आपत्तियों-विपत्तियों का कारण है।

वैदिक वाङ्मय में एक ऋचा आती है “मन्युरसिमन्युँ मयि देहि” हे भगवान आप ‘मन्यु’ हैं हमें ‘मन्यु’ प्रदान करें। “मन्यु” का अर्थ है वह क्रोध जो अनाचार के विरोध में उमगता है। निन्दित क्रोध वह है जो व्यक्तिगत कारणों से अहंकार पर चोट लगने पर उभरता है और असन्तुलन उत्पन्न करता है। किन्तु जिसमें लोक मंगल विरोधी अनाचार को निरस्त करने का विवेक पूर्ण, संकल्प जुड़ा होता है वह मन्यु है। मन्यु में तेजस्विता, ओजस्विता और मनस्विता ये तीनों तत्व मिले हुए हैं। अस्तु वह क्रोध के समतुल्य दिखने पर भी ईश्वरीय वरदान है। इसकी गणना उच्च आध्यात्मिक उपलब्धियों से की गई है।

इस महान उपलब्धि से सम्पन्न व्यक्ति आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। नवयुग की आधार शिला इन्हीं के सबल हाथों रखी जानी है। जिन्हें अपने भीतर इस विभूति की झलक मिले, कुछ करने की उमंग उठे उन्हें महाकाल की संघर्ष वाहिनी में आ मिलना चाहिए। अनीति के असुर की बढ़ती जा रही विकरालता के सामने एकाकी प्रयत्न पर्याप्त नहीं है ईश्वरीय संकल्प के साथ जुड़ सकी समूह शक्ति ही इसे समूल नष्ट कर सकेगी।

इन दिनों धार्मिकता की एक ही कसौटी है विराट के संकल्प के साथ हमारे प्रयत्न किस हद तक जुड़े हैं। जिसे ईश्वर भक्ति और आस्तिकता पर विश्वास हो वह ईश्वर विरोधी नास्तिकता के एक मात्र आधार अनाचार से बचे और बचावे। इसके बिना ईश्वर और शैतान को, पाप और और पुण्य को एक ही समझने की भूल होती रहेगी और भीतर तथा बाहर पनपता हुआ असुरत्व आत्मिक प्रगति की दिशा में एक कदम भी आगे बढ़ने न देगा।


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