संजीवनी विद्या क्यों व किस के लिए?

November 1991

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“अमृतवाणी” स्तम्भ में प्रस्तुत है, परमपूज्य गुरुदेव द्वारा 22 अप्रैल 1984 को संजीवनी विद्या-जीवन जीने के कला के शिक्षण की महत्ता व अनिवार्यता पर परिजनों के लिए दिया गया संदेश व प्रशिक्षण हेतु शाँतिकुँज आने का आमंत्रण।

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलिए। “ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।”

मित्रो! जानवर की एक विशेषता यह होती है कि उसे अपने पेट की हमेशा फिक्र बनी रहती है। जब वह जवान होता है तो उसे सन्तान पैदा करने का ख्याल आता है। दो के अलावा वह और कोई काम कर नहीं पाता और इन्सान? इन्सान देखने में तो वह जानवरों जैसा ही मालूम होता है किन्तु उसमें भावनाएँ पाई जाती हैं, वनमानुष, बंदर, लंगूर शायद आपने देखे हों, इनसे मिलता जुलता है आदमी का देह। लेकिन उसकी विशेषता खास तौर से ये है कि उसमें भावनाएँ होती हैं। कहीं अकाल पड़ता है तो आदमी अपने अनाज के कोठों को खाली कर देता है। कहता है हम अकेले जीकर के क्या करेंगे। बाकी लोग भी खायें तो क्या हर्ज है? यदि किसी के छप्पर में, मुहल्ले में आग लगे तो वह सबसे पहले दौड़ता है, आग बुझाने के लिए। यह क्या है? यह है आदमी की भावनाएँ। दूसरों की सेवा के लिए दौड़ पड़ना यह इंसानियत की एक ही परीक्षा है। अगर यह परीक्षा में फेल हो जाय तो जानना चाहिए कि शकल इन्सान जैसी भले हो, पर है वो वास्तव में जानवर! जानवर!!

इस समय जिसमें आप हमारी बात सुन रहे हैं, ऐसा समय है जिसको सामान्य नहीं कह सकते। इसे असामान्य ही कहा जाएगा। वैसे आपका सूरज सबेरे निकलता है, शाम को अस्त हो जाता है। कुएं से पानी निकालते हैं, चक्की से आटा पीसते हैं, चौके से खाना खा लेते हैं। समय मामूली सा मालूम पड़ता है, लेकिन हम और आप विचारपूर्वक अगर इसका अन्दाज लगाना चाहें तो मालूम पड़ेगा कि यह बहुत भयंकर समय है। इस भयंकर समय में तूफान भले ही न आते हों आपके ऊपर। घनघोर बारिश भले ही न होती हो, लेकिन संसार की निगाह से और जरा लम्बी दृष्टि फेंककर देखेंगे तो आपको मालूम पड़ेगा कि यह बहुत ही असाधारण समय है। इस समय में हवा में जहर है। जहर घुला हुआ है। जो साँस आप लेते हैं उससे आपके भीतर जहर चला जा रहा है और आपकी जिन्दगी को रोज कम कर रहा है।

इस भयंकर समय में प्रत्येक आदमी के ऊपर मुसीबत छाई हुई है। थोड़े आदमियों के ऊपर नहीं बहुत आदमियों के ऊपर, सारे संसार के ऊपर। पानी गंदा हुआ जा रहा है। विकिरण बढ़ता जा रहा है। इससे बच्चे अपाहिज लंगड़े-लूले पैदा हो रहे हैं। जन संख्या की दृष्टि से आदमी किस कदर बढ़ता हुआ चला जा रहा है और खाने के लिए सामान कम पड़ता चला जा रहा है। आपने देखा, सुना? आपकी इतनी उमर हो गयी? जिस भाव से आपको आज गेहूँ मिलता है, चावल घी मिलता है, क्या आपने इससे पहले कभी सुना था-नहीं। कभी नहीं सुना था। यह महँगाई बढ़ रही है। अभी और बढ़ेगी। मुझे घटने की कोई सूरत नजर नहीं आती, वस्तुतः यह मुसीबत का समय है और आदमी पर मुसीबतें बढ़ती ही चली जा रही हैं, और बढ़ेगी अभी।

यह ऐसा समय है जिसमें किसी को किसी पर विश्वास नहीं रह गया है। आतंक और आशंकाओं से वातावरण चारों ओर घिरा हुआ है। सड़क पर जब आप निकलते हैं तो मालूम नहीं कि आपके साथ पड़ोस में चलने वाला व्यक्ति आपको चाकू घोंपकर कब आपकी सम्पत्ति छीन लेगा इसका क्या विश्वास है। इंसान का चाल-चलन, इंसान का विचार इतना गंदा घटिया हो गया है कि यह स्थिति अगर बनी रही तो कोई किसी पर विश्वास नहीं करेगा, न भाई-भाई पर विश्वास करेगा, न स्त्री पुरुष पर विश्वास करेगी न पुरुष स्त्री पर विश्वास करेगा। ऐसा गंदा-ऐसा वाहियात समय है यह। यह समय इसलिए भी घटिया और वाहियात है कि नेचर, हमसे आप सबसे नाराज हो गयी है। प्रकृति हम सबसे नाराज हो गयी है। जब उसकी मौज आती है तो अंधाधुन्ध बरसा देती है और जब मूड़ आता है तो सूखा नजर आता है। कहीं मौसम का ठिकाना नहीं कि मौसम पर पानी बरसेगा कि नहीं ठण्ड के समय ठण्ड ही पड़ेगी कि गर्मी पड़ेगी। कोई नहीं कह सकता। भूकम्प कब आ जाएँ कोई नहीं कह सकता, ज्वालामुखी कब फट जाएँ कोई नहीं कह सकता। बाढ़ कब आ जाए कोई ठिकाना नहीं। नेचर हम सबसे बिल्कुल नाराज हो गयी है, इसलिए उसने काम करना बन्द कर दिया है। यह ऐसा भयंकर समय है।

ऐसे भयंकर समय में क्या आपके ऊपर कोई जिम्मेदारी नहीं है? क्या आपके कोई कर्तव्य नहीं हैं? क्या आपके अंदर भावनाएँ नहीं हैं? क्या आपका हृदय पत्थर और लोहे का हो गया? नहीं मेरा ख्याल है कि सब आदमियों का ऐसा नहीं हुआ होगा। ज्यादातर लोगों का तो ऐसा ही हुआ है कि वे घटते-घटते जानवर के तरीके से बनते चले जा रहे हैं। जवान आदमी जब ज्यादा बुड्ढा हो जाता है तो कमर झुकने लगती है, आंखें नीची हो जाती हैं, लाठी टेक टेक कर चलता है, इन्सान की जवानी चली जाती है तो वह बौना हो जाता है, घटिया हो जाता है,, कमर झुक जाती है, उसका आसमान की ओर देखने का न मन होता है, न उसकी बनावट ही ऐसी रह जाती है कि वह ऊपर देखे। अधिकाँश आदमी आज ऐसे हो गए हैं।

ऊपर की ओर सिर उठाकर देखेंगे, हमें आपसे यह उम्मीद है। यह उम्मीद है कि ऐसे भयंकर समय में अपना सारा वक्त के वल पेट पालने के लिए और संतान पैदा करने के लिए जाया नहीं करेंगे। अगर आप चाहें तो ढेरों समय बचा सकते हैं, बीस घण्टे में अपना, अपने शरीर व कुटुम्ब का आराम से आप गुजारा कर सकते हैं। आठ घण्टा काम करने के लिए, सात घण्टा विश्राम के लिए और पाँच घण्टा घरेलू काम के लिए। फिर भी चार घण्टा आप समाज के लिए आयी हुई परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए, स्वयं को ऊँचा उठाने के लिए, इंसान का भाग्य और भविष्य शानदार बनाने के लिए आप लगा सकते हैं। करना ही पड़ेगा यह आपको। इसमें तो नुकसान पड़ेगा? नहीं, मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि नुकसान नहीं पड़ेगा। जिनने भी अपने समय को लोक सेवा में लगाया है, वे चाहे गाँधी रहे हों या नेहरू, विनोबा रहे हों या विवेकानन्द किसी भी तरह वे नुकसान में नहीं रहे हैं। वे ऊँचा उठे हैं, आगे बढ़े हैं और उनने हजारों आदमियों को ऊँचा उठाया व आगे बढ़ाया है। स्वयं भी नफे में रहे हैं। वे नुकसान में रहे? क्या नुकसान में रहे आप बताइए? किसी एक का नाम तो बताइए।

गाँधी जी ने वकालत की होती तो वकालत में कितना कमा लेते? लेकिन जब उनने अपना समय सेवा में लगा दिया तो आप बताइए, क्या कमी रह गयी उनके पास। उनने इस्तेमाल नहीं किया, यह उनकी इच्छा पर है। ब्राह्मण अपने लिए कभी इस्तेमाल नहीं करते। गाँधी ब्राह्मण थे, बड़े शानदार आदमी थे और शानदार सिर्फ इसलिए कि उनने अपने समय को पेट और सन्तान-जानवर के तरीके से नहीं, बल्कि इन्सान के तरीके से खर्च किया।

यह समय ठीक ऐसा ही है। इस विषम समय में मेरी आप लोगों से प्रत्येक से यही प्रार्थना है कि आप अपने समय का थोड़ा अंश निकाले। हमने कितनी बार कहा व छापा है कि आप समय दान कीजिए। चंद्रमा पर ग्रहण जब पड़ता है तब कितने ही लोग आते हैं व पुकार लगाते हैं कि चन्द्रमा पर ग्रहण पड़ा है,पुण्य कमाना हो तो दान करो। इस खराब समय में हमारी भी एक ही पुकार एक ही रट है- महाकाल की भी एक ही पुकार है। आप समय दीजिए, समय खर्च कीजिए। किस काम के लिए? आप इस काम के लिए समय लगाइए जिससे आप लोगों के दिमागों और विचारों को ठीक कर सकें। इन्सान के अन्दर क्या है? वस्तुतः न हाड़ है, न माँस है, न मिट्टी न पाखाना, जो भी कुछ काम की चीज है, वह है विचार।

विचारों से ही अब्राहम लिंकन जैसे, जार्ज वाशिंगटन जैसे, गारफील्ड जैसे छोटे-छोटे इंसान कितने महान बन जाते हैं। विचार अगर मनुष्य के पास हों तो, आज अगर विचारशीलता और दूरदर्शी विवेकशीलता लोगों के अन्दर आ गयी होती तो दुनिया खुशहाल होती। इन्सान इन्सान न रहकर देवता हो गया होता और जमीन का वातावरण स्वर्ण जैसा होता। पर विचारशीलता है कहाँ? समझदारी है कहाँ? अगर समझदारी बढ़ेगी तो आदमी के अन्दर ईमानदारी बढ़ेगी, ईमानदारी आएगी तो बहादुरी आएगी, चारों चीजें एक साथ जुड़ी हुई हैं। समझदारी इसका मूल है। हमको लोगों की समझदारी बढ़ाने के लिए जी-जान से कोशिश करनी चाहिए। प्राचीन काल के ब्राह्मण और सन्त यही काम करते थे, वे अपना गुजारा कम से कम में करते थे व जीवन का उद्देश्य यही रहता था कि लोगों की समझदारी बढ़ायें। आप लोगों से भी मेरी यही प्रार्थना है कि लोगों की समझदारी बढ़ाने के लिए अपने समय का जितना अंश आप लगा सकते हों, लगाएँ, दिमाग में से आप यह ख्याल निकाल पायें तो बड़ा अच्छा हो कि बहुत सा पैसा इकट्ठा होना चाहिए। पैसा रहेगा नहीं, मैं एक बात आपको बताए देता हूँ जिससे कि धन व्यक्तिगत नहीं रह जाएगा। सच्चा अध्यात्मवाद आपको मालदार नहीं बनने देगा। चौबीसों घण्टे आपका दिमाग व शक्तियाँ मालदार बनने की ख्वाहिश में लगते हैं, तो आप गलती पर हैं, आप ठीक कीजिए अपने आपको।

अपना गुजारा सामान्य मनुष्य जिस तरीके से करते हैं, आप भी उसी तरीके से गुजारा करना सीखिए। फिर आप देखेंगे कि आपके पास समय श्रम, बुद्धि, क्षमताएँ कितनी ही चीजें बच जाती हैं, समाज के काम में लगाई जा सकती हैं। जरूरी नहीं कि आप अपना मकान छोड़कर बाहर चले जायें। आप अपने घर रह कर भी बहुत से काम कर सकते हैं, जिससे आपका क्षेत्र, आपका गाँव आपके समीपवर्ती वातावरण में जाने कैसी हवा पैदा हो सकती है। कमाल हो सकता है। तो इसके लिए क्या करना पड़ेगा? इसके लिए मेरे ख्याल से आपको एक ट्रेनिंग लेनी चाहिए, छोटी से छोटी चीजों के लिए ट्रेनिंग चलाने वाले, मोटर चलाने वाले, अध्यापक, चिकित्सक सभी को ट्रेनिंग लेनी पड़ती है।

ट्रेनिंग बड़ी आवश्यक है। विश्वामित्र राम व लक्ष्मण को उनके पिता से माँगकर ले गए थे और उनको ट्रेनिंग दी थी। काहे की ट्रेनिंग दी थी। बड़ी महत्वपूर्ण ट्रेनिंग थी उनने। शिवजी का इतना भारी धनुष कैसे तोड़ा जाय? लंका में जो राक्षस रहते हैं, उनको किस तरीके से समाप्त किया जाय? रामराज्य की स्थापना कैसे की जाय? ये सारी बाते विश्वामित्र के आश्रम में जाकर सीखी थी। ऐसी ही एक ट्रेनिंग की व्यवस्था हमने शान्तिकुँज में की है। ताकि आप समाज में छाई असुरता से लड़ सकें। शान्तिकुँज को पहले से भी हमारा तीस गुना करने का मन था किन्तु अब बहुत दिनों से नालन्दा और तक्षशिला विश्वविद्यालय यही हमारे दिमाग में घूमते रहते हैं। हमें यही सपना आता रहता है कि नालन्दा, जिसमें हजारों धर्म प्रचारक तैयार किए गए थे एवं तक्षशिला जिसमें हजारों संस्कृति प्रचारक तैयार किए गए थे, यहाँ पर बने। धर्म का नाम तो मैं अब नहीं लूँगा। यह नाम बहुत बदनाम हो गया है। मैं समाज सेवा की बात आपसे कहूँगा। यह कहूँगा कि आपकी महानता की वृद्धि के लिए सेवा बेहद आवश्यक है और जब तक आप समाज की सेवा नहीं करेंगे, तब तक आप उन्नतिशील नहीं बनेंगे। आपकी आत्मा में सन्तोष और शान्ति का निवास नहीं होगा।

आत्मसंतोष के अलावा समाज का सहयोग व भगवान का अनुग्रह कैसे मिल सकता है, शानदार जिन्दगी कैसी जीनी चाहिए? इसके लिए हमारे यहाँ ट्रेनिंग चलती है। ट्रेनिंग तो पहले भी चलती थी। नौ दिन की,पाँच दिन, व एक माह की, पर अब हमने सारे के सारे शाँतिकुँज को विश्व विद्यालय के रूप में परिणत कर दिया है। कानूनन तो यह विश्वविद्यालय नहीं है क्योंकि विश्वविद्यालय के लिए जो खानापूर्ति की जाती है, वह बहुत बड़ी है। लेकिन पुराने समय में नालन्दा में कोई खानापूर्ति नहीं हुई थी और न तक्षशिला में कोई खाना पूर्ति हुई थी। ये गवर्नमेण्ट से कोई संबंधित नहीं हुए थे। हमारा यह विश्वविद्यालय इसी प्रकार का है।

आज मनुष्य को जीना कहाँ आता है? जीना भी एक कला है। सब आदमी खाते हैं, पीते हैं, सोते हैं और मौत के मुँह में चले जाते हैं किन्तु जीना नहीं जानते। जीना बड़ी शानदार चीज है। इसको संजीवनी विद्या कहते हैं- जीवन जीने की कला। यहाँ हम अपने विश्वविद्यालय में शान्तिकुँज में जीवन जीने की कला सिखाते हैं और यह सिखाते हैं कि आज के गए बीते जमाने में आप अपनी नाव पार करने के साथ-साथ सैकड़ों आदमियों को बिठाकर पार किस तरह से लगा पाते हैं? नाव चलाना भी कला है। हम आपको नाव दे दें व आपको नदी के किनारे छोड़ दें कहें कि आप जाइए तो इतने मात्र से आप नाव नहीं चला सकेंगे। कहीं लहरों के चक्कर में पड़ेंगे और बहते हुए चले जायेंगे। नाव को डुबो देंगे और आप भी डूब जाएंगे। लेकिन अगर आपको ट्रेनिंग मिली हो तो आप सकुशल पार हो जाएँगे। हमने अपने जीवन के इस अन्तिम समय में सारी हिम्मत और शक्ति इस बात में लगादी है कि शाँतिकुँज को हम एक विश्वविद्यालय बना देंगे। पाँच सौ व्यक्तियों के लिए हमने एक माह में शिक्षण देने की व्यवस्था की है। इतना बड़ा काम व मात्र एक महीना? हमने इस लिए बड़ा नहीं रखा क्योंकि हमको कम समय में एक लाख से अधिक सही जीवन जीने वाले आदमी तैयार करने हैं। हमने पाँच सौ आदमियों को प्रत्येक माह ट्रेण्ड करके स्वयं का महान और शानदार जीवन जीने के लिए शिक्षण देने का प्रबंध किया है। न केवल स्वयं का जीवन बल्कि समाज की सेवा का शिक्षण। न केवल समाज की सेवा बल्कि यह भी कि आज की समस्याएँ क्या हैं। गुत्थियों का हल और समाधान निकालने के लिए क्या कदम बढ़ाए जाने चाहिए और किस तरीके से काम करना चाहिए? यह सिखाने का प्रबंध किया है।

एक और आपको अचंभा होगा। यहाँ बहुत दिनों से जब से यह आश्रम बना है, यहाँ के निवास के लिए, बिजली जो जलती है, कुएं से पानी जो लेते हैं, उसके लिए किसी से कुछ भी नहीं लिया गया है। अब एक और हिम्मत बढ़ाई है। वह यह कि अब खाने की जिम्मेदारी भी हम अपने कंधों पर उठाएँगे, गरीब और अमीर दोनों के लिए हमने समान रूप से यह व्यवस्था की है कि यहाँ भोजन का अब कोई खर्च वसूला नहीं जाएगा। यदि कोई कहे कि हमने आपका खाया है, दान का पैसा है, ब्राह्मण का, साधु का पैसा है हम खाना नहीं चाहते तो हम कहेंगे कि मुट्ठी बन्द करके दे जाइए हम रसीद काट देंगे आपकी। तो इस शिक्षण में यह नवीन विशेषता है कि अधिक से अधिक आदमी लाभाँवित हो सकें।

सरकारी स्कूलों, कालेजों में आपने देखा होगा कि वहाँ बोर्डिंग फीस अलग देनी पड़ती है। पढ़ाई की फीस अलग देनी पड़ती है, लाइब्रेरी फीस अलग व ट्यूशन फीस अलग। लेकिन हमने यह हिम्मत की है कि कानी-कौड़ी की भी फीस किसी के ऊपर लागू नहीं की जाएगी। यही विशेषता नालंदा-तक्षशिला विश्वविद्यालय में भी थी। वही हमने भी की है, लेकिन बुलाया केवल उन्हीं लोगों को है जो समर्थ हों, शरीर या मन से बूढ़े न हो गए हों, जिनमें क्षमता हो जो पढ़े लिखे हों। इस तरह के आयेंगे तो ठीक है नहीं तो अपनी नानी को, दादी को, मौसी को, पड़ोसन को लेकर के यहाँ कबाड़खाना इकट्ठा कर देंगे तो यह विश्वविद्यालय नहीं रहेगा? फिर तो यह धर्मशाला हो जाएगा। साक्षात नरक हो जाएगा। इसे नरक मत बनाइए आप। जो लायक हों वे यहाँ की ट्रेनिंग प्राप्त करने आएँ और हमारे प्राण, हमारी जीवट से लाभ उठाना चाहें, चाहे हम रहें या न रहें वे लोग आएँ। प्रतिभावानों के लिए निमंत्रण है बुड्ढों, अशिक्षितों, उजड्डों के लिए निमंत्रण नहीं है। आप कबाड़खाने को लेकर आएँगे तो हम आपको दूसरे तरीके से रखेंगे, दूसरे दिन विदा कर देंगे, आप हमारी व्यवस्था बिगाड़ेंगे? हमारा उद्देश्य बिगाड़ेंगे? हमारे सपने बिगाड़ेंगे? हमने न जाने क्या क्या विचार किया है और आप अपनी सुविधा के लिए धर्मशाला का लाभ उठाना चाहते हैं? नहीं, यह धर्मशाला नहीं है यह कॉलेज है। विश्वविद्यालय है। कायाकल्प के लिए बनी एक अकादमी है। हमारे सतयुगी सपनों का महल है। आप में से जिन्हें आदमी बनना हो, बनाना हो, इस विद्यालय का संजीवनी विद्या सीखने के लिए आमंत्रण है। कैसे जीवन को सिखाया जाएगा। दावत है आप सबको। आप सब आप में से जिन्हें आदमी बनना हो, बनाना हो, इस विद्यालय का संजीवनी विद्या सीखने के लिए आमंत्रण है। कैसे जीवन को सिखाया जाएगा। दावत है आप सबको। आप सबमें जो विचारशील हों भावनाशील हों, हमारे इस कार्यक्रम का लाभ उठाएँ अपने को धन्य बनाएँ और हमको भी

हमारी बात समाप्त। ॐ शान्ति।

*समाप्त*


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