जप के साथ ध्यान भी आवश्यक

November 1991

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जप के साथ ध्यान का अनन्य संबंध है। नाम और रूप का जोड़ा है। दोनों को साथ-साथ लेकर ही चलना पड़ता है। अन्यथा भजन करते समय मन स्थिर नहीं रहता। मन के केन्द्रित हुए बिना चित्त कहीं का मारा कहीं भागता फिरता है और यही शिकायत बनी रहती है कि साधना में मन नहीं लगता। यह एक तथ्य भी है कि मन प्रेम का गुलाम है। जहाँ भी जिस वस्तु में भी प्रेम मिलेगा वहीं मन उसी प्रकार दौड़ जायगा जैसे खिल-खिलाते पुष्प पर भौंरा जा पहुँचता है। यदि जप के साथ इष्ट के प्रति-आराध्य के प्रति भावना का समावेश कर लिया जाय तो निश्चित रूप से मन उसमें उसी प्रकार लगा रहेगा जैसा संसारी मनुष्यों का अपने स्त्री-पुत्र, धन आदि में लग रहता है। साधक और आराध्य के मध्य प्रेम और आत्मीयता का संबंध सूत्र ध्यान द्वारा ही सधता है। इसीलिए विज्ञ उपासक जप के साथ ध्यान किया करते हैं, ‘नाम ‘ के साथ ‘रूप’ की संगति मिलाया करते हैं। यही तरीका सही भी है।

जप, योग-साधना का एक अंग है। योग चित्तवृत्तियों के निरोध को कहते हैं। जप के समय चित्त एक लक्ष्य में लगा रहना चाहिए। यह कार्य ध्यान द्वारा ही संभव है। मात्र जप करते रहा जाय और ध्यान धारणा की उपेक्षा अवहेलना होती रहे तो साधना की सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी। यही कारण है कि साधना ग्रंथों में, अध्यात्म शास्त्रों में जप के साथ ध्यान को अनिवार्य बताया गया है। गायत्री उपासना के बारे में कहा गया है-

गायत्री भावयेद्देवी सूर्यासारकृताश्रयाम।

प्रातमध्यान्हे ध्यान कृत्वा जपेत्सुधीः॥

अर्थात् बुद्धिमान मनुष्य को सूर्य के रूप में स्थित गायत्री माता का प्रातः, मध्याह्न और सायं त्रिकाल ध्यान करते हुए जप करना चाहिए।

जप में मन लगे इसके लिए ध्यान का समावेश होना आवश्यक है। साधना की यह आरंभिक कक्षा साकार उपासना से शुरू होती है और धीरे-धीरे विकसित होकर वह निराकार तक जा पहुँचती है। मन किसी रूप पर ही जमता है। निराकार का ध्यान पूर्ण परिपक्व मन ही कर सकता है, आरंभिक अभ्यास के लिए वह सर्वथा कठिन है। इसलिए साधना का आरम्भ साकार उपासना से और अन्त निराकार उपासना में होता है। साकार और निराकार उपासनायें दो कक्षाओं की भाँति हैं जिसमें आरंभ में बालक पट्टी पर खड़िया और कलम से लिखना सीखता है और बाद में वही कागज स्याही और पेन से लिखने लगता है। दोनों स्थितियों में अन्तर है, पर इसमें कोई विरोध नहीं है। साकार का अवलम्बन लेकर ही निराकार में प्रवेश किया जाता है।

जब तक मन स्थिर न हो तब तक जप के साथ साकार उपासना करना उचित है। गायत्री महामंत्र के जप के साथ माता का एक सुन्दर नारी के रूप में ध्यान करना होता है। सुन्दर से सुन्दर आकृति की कल्पना करके उसे अपनी सगी माता से भी बढ़कर माना और जप करते समय अपने ध्यान क्षेत्र में प्रतिष्ठित करना होता है। साथ ही साथ अपने को एक साल के छोटे बच्चे की स्थिति में अनुभव किया जाता है। छोटे बालक का हृदय सर्वथा शुद्ध, निर्मल और निश्चिन्त, निश्छल होता है। वैसी ही स्थिति अपनी भी सोची जाती है। अपने को भी शिशु की अवस्था में अनुभव किया जाता है। कामना, वासना, भय, लोभ, चिन्ता, शोक, द्वेष आदि से अपने को सर्वथा मुक्त और सन्तोष, उल्लास एवं आनन्द से ओत-प्रोत स्थिति में अनुभव करना पड़ता है। साधक का अन्तःकरण साधनाकाल में बालक के समान शुद्ध एवं निश्छल रहने लगे तो समझना चाहिए कि साधना में तीव्र गति से प्रगति होना सुनिश्चित है। जप में मन तभी लगता है जब आराध्य के प्रति-माता के प्रति प्रेम का, आत्मीयता का, उफान उमगने लगे। इससे व्यावहारिक जीवन में भी निर्मलता बढ़ती जाती है और चहुँ ओर से साधक पर परमात्मा का अनुदान-वरदान बरसता दिखाई देता है।

माता और बालक परस्पर जैसे अत्यन्त आत्मीयता और अभिन्न ममता के साथ सुसम्बद्ध रहते हैं, हिलमिल कर प्रेम का आदान-प्रदान करते हैं, वैसा ही साधक का भी ध्यान होना चाहिए। “हम एक वर्ष के अबोध बालक के रूप में माता की गोदी में पड़े हैं और उसका अमृत सदृश दूध पी रहे हैं। गायत्री माता बड़े प्यार से उल्लासपूर्वक अपना दूध हमें पिला रही हैं? वह दूध रक्त बन कर हमारी नस-नाड़ियों में घूम रहा है और अपने सात्विक तत्वों से हमारे अंग-प्रत्यंगों को परिपूर्ण कर रहा है।” यह ध्यान बहुत ही सुखद है, छोटा बच्चा अपने नन्हें-नन्हें हाथ पसार कर कभी माता के बाल पकड़ता है। कभी नाक-कान आदि में अँगुलियाँ डालता है, तो कभी अन्य प्रकार की अटपटी क्रियायें माता के साथ करता है। वैसा ही कुछ अपने द्वारा किया जा रहा है ऐसी भावना प्रगाढ़ करनी पड़ती है। माता भी जब वात्सल्य प्रेम से ओतप्रोत होती है, तब बच्चे को छाती से लगाती है, उसके सिर पर हाथ फिराती है, पीठ खुजलाती है, थपकी देती है, पुचकारती है, उछालती तथा गुदगुदाती है। हंसती और हंसाती है। वैसी ही क्रियायें गायत्री माता के द्वारा अपने साथ हो रही हैं, यह ध्यान करना होता है। इस समस्त विश्व में माता और पुत्र केवल मात्र दो ही हैं और कहीं कुछ नहीं है। कोई समस्या, चिन्ता, भय, लोभ आदि उत्पन्न करने वाला कोई कारण और पदार्थ इस संसार में नहीं है। केवल माता और पुत्र दो ही इस शून्य नील आकाश में अवस्थित होकर अनन्त प्रेम का आदान-प्रदान करते हुए कृतकृत्य हो रहे हैं।

जप के समय आरंभिक साधक के लिए यही ध्यान सर्वोत्तम है। इससे मन को एक सुन्दर भावना में लगे रहने का अवसर मिलता है और उसकी भागदौड़ बन्द हो जाती है। प्रेम-भावना की अभिवृद्धि में भी यह ध्यान बहुत सहायक होता है। सूरदास, तुलसीदास, शबरी, मीरा, चैतन्य महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस आदि सभी भक्तों ने अपनी प्रेम भावना के बल पर भगवान को प्राप्त किया था, प्रेम ही वह अमृत है जिसके द्वारा सींचे जाने पर आत्मा की सच्चे अर्थों में परिपुष्टि होती है और वह भगवान को अपने में और अपने को भगवान में प्रतिष्ठित कर सकने में समर्थ बनती है। जप के साथ यह ध्यान इस आवश्यकता की पूर्ति करता है।

उपरोक्त जप युक्त ध्यान गायत्री उपासना की प्रथम भूमिका में आवश्यक है। जप के साथ श्रद्धा भाव की मात्रा भी पर्याप्त होनी चाहिए। इस ध्यान को कल्पना न समझा जाय, वरन् साधक अपने को वस्तुतः उसी स्थिति में अनुभव करे और माता के प्रति अनन्य प्रेम-भाव के साथ तन्मयता अनुभव करे, यह अनिवार्य है। तभी इस अनुभूति की प्रकटता में अलौकिक आनन्द का रसास्वादन होता है और मन निरन्तर इसी में लगे रहने की इच्छा करता है। इस प्रकार मन को वश में करने और एक ही लक्ष्य में रहने की एक बड़ी आवश्यकता सहज ही पूरी हो जाती है।

साधना की दूसरी भूमिका तब आरंभ होती है जब मन की भागदौड़ बन्द हो जाती है और चित्त जप के साथ ध्यान में संलग्न रहने लगता है। इस स्थिति को प्राप्त कर लेने पर चित्त को एक सीमित केन्द्र पर एकाग्र करने की ओर कदम बढ़ाना पड़ता है, उपरोक्त ध्यान के स्थान पर दूसरी भूमिका में साधक सूर्य मण्डल के स्वर्णिम प्रकाश तेज में गायत्री माता के सुन्दर मुख की झाँकी करता है। उसे समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड में केवल मात्र एक पीतवर्ण सूर्य ही दीखता है और उसके मध्य में गायत्री माता का मुख हँसता-मुसकराता दृष्टिगोचर होता है। साधक भावनापूर्वक उस मुख मण्डल को ध्यानावस्था में देखता है और उसे माता के अधरों से, नेत्रों से, कपोलों की रेखाओं से एक अत्यन्त मधुर स्नेह, वात्सल्य, आश्वासन, साँत्वना एवं आत्मीयता की झाँकी होती है, वह उस झाँकी को आनंदविभोर होकर देखता रहता है और सुधि-बुद्धि भुलाकर चन्द्र चकोर की भाँति उसी में तन्मय हो जाता है।

इस प्रकार उपासना की दूसरी भूमिका में जप तो चलता रहता है, पर ध्यान की सीमा सीमित हो जाती है। साधना के उच्च सोपानों पर आगे बढ़ने के लिए मन को एकाग्र करने की परिधि को आत्मिक विकास के


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