तनाव का प्रबन्ध, योग द्वारा

November 1991

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योगशास्त्रों में साधना में उच्चस्तरीय विकास के लिए साधक के चित्त में सम्प्रसादवृत्ति अर्थात् सहज प्रसन्नता का होना अनिवार्य बताया गया है। किन्तु सामाजिक पारिवारिक और भावनात्मक समस्याएं जन साधारण से प्रायः यह प्रसन्नता छीन लेती हैं। उपासना के क्षणों में भी वह तनावग्रस्त बना रहता है और उसमें वह तल्लीनता नहीं आ पाती जो साधना की सफलता के लिए अनिवार्य है। मानसिक प्रतिक्रियाओं की यह परस्पर विरोधी खींचातानी तनाव को और बढ़ा देती है। उपासना में बैठने के लिए आसन की स्थिरता भी आवश्यक है व उसके लिए शैथिल्य का अभ्यास आवश्यक है।

भौतिकवादिता के इस युग में याँत्रिकता, व्यस्तता और भाग-दौड़ की अधिकता के कारण मनुष्य अपने प्रतिदिन के कार्यों में तनाव का अधिक अनुभव करता है। शहर का विश्राम रहित जीवन, औद्योगिक प्रगति के कारण होने वाली भीड़, वातावरण में बढ़ता प्रदूषण, घरेलू समस्यायें आदि उसके मानसिक तनाव को बढ़ाती हैं। तनाव वह अवस्था है जब दो शक्तियाँ विपरीत दिशाओं में कार्य करती हैं। जब कोई व्यक्ति विशेष विधि से कार्य करना चाहता है तो दूसरी शक्ति उसे ऐसा करने से रोकती है। यही तनाव है। मनोविज्ञानियों के अनुसार यह एक चित्त विक्षेप है।

मनीषियों का कहना है कि तनाव दूर करने का सबसे सरल तरीका यह है कि स्वयं को आराम की स्थिति में रखा जाय तथा तनाव के मूल एवं प्रथम कारण का पता लगाया जाय। यह तनाव वस्तुतः भले-बुरे विचारों के शिव और अशिव बुद्धि के बीच का संघर्ष है। योगाभ्यास द्वारा मानसिक, पेशीय एवं भावनात्मक तनाव को दूर किया जा सकता है और एक स्थिति ऐसी आती है जबकि अन्तरतम में चल रहे इस संघर्ष का अन्त हो जाता है। यह परमशान्ति की अवस्था है। इस स्थिति की प्राप्ति के लिए अनिवार्य आरंभिक अभ्यास शिथिलीकरण का किया जाना चाहिए। स्वाभाविक शरीर चेष्टायें शिथिल कर देना ही शिथिलीकरण है।

अनुसंधानकर्ता चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार शारीरिक-मानसिक तनाव मनुष्य को असाधारण क्षति पहुँचाते हैं। पाया गया है कि एक घंटे का क्रोध एक दिन के बुखार जितनी क्षति पहुँचाता है। शोक-उद्वेग के सघन क्षणों में नींद, भूख सभी गायब हो जाती हैं। किसी भी कारण से उत्पन्न तनाव न केवल सामयिक पीड़ा उत्पन्न करता है, वरन् दूरगामी दुष्परिणाम भी उत्पन्न करता है। इनसे बचने के लिए प्रायः लोग शामक औषधियों, नींद की गोलियों आदि का सहारा लेते हैं। नासमझ व्यक्ति इसी के लिए नशे का सहारा लेते हैं, किन्तु ये उपचार तनाव की जड़ को नहीं उखाड़ फेंकते।

योगविद्या विशारदों ने प्राणों के पारस्परिक विरोध को तनाव की उत्पत्ति का कारण बताया है। प्राण ऊर्जा का असंतुलन समूचे कार्यतंत्र में अतिरिक्त गर्मी भर देता है। विचारों में उलझन उत्पन्न कर देता है और इस प्रकार तनाव एवं प्राणशक्ति का असंतुलन परस्पर पर्यायवाची बन जाते हैं।

पौराणिक आख्यान है कि सफेद और काले रंग के दो पक्षी रस्सी द्वारा एक खूँटे से बँधे हैं। जब तक वे बँधे रहते हैं तब तक उड़ने का प्रयास करते ही रहेंगे और ऐसा वे अनेकों बार करते रहते हैं। अंततः वे थककर शाँतिपूर्वक खूँटे के पास सो जाते हैं। यह शास्त्रीय व्यंजना वस्तुतः मानवी काया में मेरुदण्ड के भीतर विद्यमान “इड़ा- और ‘पिंगला’ नामक सूक्ष्म नाड़ियों के संदर्भ में है, जिनमें पक्षियों की तरह से दो प्राण धारायें निवास करती हैं, बहती हैं। दाहिनी नासिका से होकर जाने वाली ‘इड़ा’- प्राण नलिका तथा बाँयी नासिका छिद्र से होकर जाने वाली ‘पिंगला’ प्राण नलिका है। एक के बाद एक कार्य करने वाली इड़ा पिंगला अन्तः चेतना के एक ही मार्ग से आती हैं, परन्तु जब तक वे एक के बाद एक कार्य करती हैं तब तक शाँति की प्राप्ति नहीं होती। यह तभी होता है जब दोनों इड़ा-पिंगला एक ही केन्द्र पर आराम करती हैं और तब सुषुम्ना के जाग्रत होने पर ध्यान की क्रिया अपने आप आरंभ हो जाती है। यही स्वरयोग है जो प्राणविद्या का अंग है।”

स्वर विज्ञान के अनुसार जब दोनों नासिका छिद्रों में समान रूप से प्राणप्रवाह होता है तो यह प्रदर्शित होता है कि ‘सुषुम्ना’ बहाव हो रहा है। ऐसी स्थिति में सब साँसारिक कार्यों को छोड़कर व्यक्ति को उपासनारत हो जाना चाहिए, क्योंकि उस समय सम्पूर्ण प्राण संस्थान में एकरूपता होती है। जब सुषुम्ना कार्य नहीं करती, तब प्रयत्न के बाद भी एकाग्रता नहीं आती। साधना की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि इड़ा-पिंगला के प्राण प्रवाह में एकरूपता लायी जाय। जब यह संभव होगा तभी सुषुम्ना क्रियाशील बनेगी।

इसके लिए जहाँ प्राणायाम तथा स्वर साधना का अभ्यास किया जाता है, वहीं शिथिलीकरण भी एक अति उपयोगी प्रक्रिया है। शिथिलीकरण का प्रगाढ़ अभ्यास इड़ा-पिंगला के प्राण प्रवाह में संतुलन स्थापित करता है। कुछ काल तक नियमित रूप से शिथिलीकरण का अभ्यास करने से सुषुम्ना प्रवाह चलने लगता है। यह उपासना के सर्वथा उपयुक्त मनोभूमि है। यदि मस्तिष्क में तनाव हो तो उस स्थिति में उपासना के लिए बैठने के पूर्व शिथिलीकरण की प्रक्रिया द्वारा तनाव मुक्त हो लेना चाहिए, तदुपरान्त उपासना करनी चाहिए।

शिथिलीकरण की प्रक्रिया सभी प्रकार के तनावों से मुक्ति पाने का एक सहज और प्रभावशाली उपाय है। मन-मस्तिष्क में अनियंत्रित हलचलें चल रही होती हैं तो वहाँ जल में उठ रही हिलोरों जैसी अस्थिरता बनी रहती है। उसे शाँत एवं तनावरहित बनाने पर ही तन्मयता उत्पन्न होगी और परमात्मा से मिलन की अनुभूति प्रगाढ़ होगी। बाकी दिन के किसी अन्य समय में भी तनाव रहित होने के लिए शिथिलीकरण मुद्रा लाभकारी होती है।

शरीर को पूरी तरह ढीला और मन को पूरी तरह खाली करना ही शिथिलीकरण मुद्रा का उद्देश्य है। न केवल उपासना के समय, वरन् किसी भी समय तनाव से पिंड छुड़ाने का यह उत्तम उपचार है। इस अभ्यास के लिए शवासन सर्वाधिक उपयोगी होता है। इसमें शरीर को ऐसी स्थिति में रखना सुविधा जनक होता है जब उसमें किसी भी प्रकार का दबाव न पड़े। शवासन का अर्थ है मुर्दे की तरह निश्चेष्ट पड़े रहना। यह बिस्तर पर पड़े-पड़े भी संभव है और आराम कुर्सी पर बैठकर या दीवार अथवा मसनद का सहारा लेकर भी किया जा सकता है।

इस स्थिति में पड़े रहकर यह प्रगाढ़ भावना करनी पड़ती है कि शरीर में से प्राण खिंचकर मात्र मस्तिष्क मध्य में, केन्द्रित हो गया है। शेष सभी अवयव मृतवत पड़े हैं। उनमें कोई भी हरकत नहीं हो रही है।

अभ्यास में एकाग्रता बनाये रखने के लिए किसी एक दृश्य की भावना कर उसमें ध्यान केन्द्रित करना, उसी के इर्द-गिर्द कल्पना करना सरल होता है। जैसे आज्ञाचक्र में दीपशिखा का या सम्पूर्ण मस्तिष्क में रहस्यमय प्रकाशपूर्ण ज्योतिपुँज की दृश्य-भावना की जाय अथवा यह सोचा जाय कि चारों ओर प्रलय काल की स्थिति की तरह अगाध नीली जल राशि फैली है। ऊपर नीला आकाश है। अपना शरीर भी शववत् है और इन्हीं लहरों में समा गया है अथवा यह भी कल्पना की जा सकती है कि शरीर-शव इस जल राशि में तैर रहा है, शरीर के किसी कमल पत्र में रखे होने


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