बड़प्पन चुनें या महानता?

November 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

उचित निर्वाह की साधन सामग्री सहज ही उपार्जित की जा सकती है। इसके विपरित संकीर्ण स्वार्थपरता में निमग्न व्यक्ति प्रायः असामाजिक और कई बार अपराधी प्रवृत्ति के भी होते हैं। ऐसे लोगों का मूल्य सर्वसाधारण की दृष्टि में गिर जाता है। फलतः वे दूसरों की सहानुभूति सहायता एवं आत्मीयता से वंचित रहने पर उपार्जन, उपभोग भी एक सीमा तक ही कर पाते हैं। उसकी छीन झपट का एक नया सिलसिला चल पड़ता है, फलतः कडुए मीठे आक्रमण करने वाले अपने-बिरानों से चमड़ी बचाना तक कठिन हो जाता है। ऐसे लोगों की सुरक्षा के अनेकों प्रत्यक्ष एवं परोक्ष उपाय सोचने पड़ते हैं। ऐसे चिन्तन एवं प्रयास में जो सुरक्षात्मक दीवार बनानी पड़ती है, वह सफल भी एक सीमा तक ही होती है, साथ ही अनेकों अन्तर्द्वन्द्व उत्पन्न करने के कारण महंगी बहुत पड़ती है। यह कठिनाई उत्कृष्टता की पक्षधर सज्जनता अपनाने में तनिक भी नहीं आती।

आदर्शवादी विचारणा और कार्य पद्धति अपनाने पर इतना हर्ज तो अवश्य होता है कि समस्त क्षमताएँ स्वार्थ साधन में ही नियोजित नहीं की जाती और इन क्षमताओं का उपयोग आत्मकल्याण एवं लोककल्याण के निमित्त भी होने लगता है। इस विभाजन से सम्पदा उतनी एकत्रित नहीं की जा सकती, जितनी कि मात्र स्वार्थपरता में ही डूबे रहने पर हो सकती थी। इतने पर भी एक बड़ा लाभ यह है कि असामान्य मात्रा में संग्रह करने के लिए जो असाधारण प्रयास करने पड़ते हैं, वे भारी भी पड़ते हैं, आदतें भी बिगाड़ते हैं और उद्धत अपव्यय की लत लगाकर अनेकानेक विग्रहों, संकटों का पथ प्रशस्त करते हैं। लालची लोग सदा असंतुष्ट, खिन्न, उद्विग्न पाये जाते हैं। असीम इच्छा की पूर्ति में जो भी व्यवधान आते हैं, वे अत्यधिक कष्टकारक लगते हैं। जितनी आतुरता उतनी खीज का मनोविज्ञान ऐसे लोगों की स्थिति को देखते हुए अक्षरशः सच पाया जाता है।

गुण-अवगुणों को कतिपय कसौटियों पर कसने के उपरान्त इसी निष्कर्ष पर पहुँचना होता है कि एकाँगी समृद्धि चमकीले साँप की तरह लगती तो आकर्षक है, पर अपने विष-दंश से असीम क्षति पहुँचाती है। इसके विपरीत व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाने का लक्ष्य निर्धारित करने पर घाटा तो इतना ही हो सकता है कि निर्वाह के अनिवार्य साधनों से संतुष्ट रहना पड़ेगा और ठाट-बाट में धनवानों जैसा सरंजाम न जुट सकेगा। इतने पर भी इस मार्ग पर चलते हुए जो संतोष और सम्मान मिलता है, उसका वैयक्तिक एवं सामाजिक मूल्य कुछ कम नहीं है। यह मूल्य इतना है जितना किसी भी स्तर की भौतिक सफलता की तुलना में कहीं अधिक भारी पाया जा सकता है। आरम्भ में सम्पदा के संबंध में सन्तोष रखने पर तथा कथित मित्र स्वजनों का उपहास सहना पड़ सकता है। इतने पर भी कितने ही व्यक्ति दूसरे हाथ से आदर्शवादी निष्ठ पर अपनी भाव श्रद्धाँजलि भी चढ़ाते देखे जाते हैं। जबकि तथाकथित धनाध्यक्षों को अपने मित्र-कुटुम्बियों के दाँव-धातों का ही पग-पग पर शिकार बनना पड़ता है।

प्रगति के दो मार्ग हैं एक बड़प्पन का, दूसरा महानता का। दोनों के अपने-अपने आकर्षण हैं। देखना यह है कि चयन का विवेक इनमें से किसका चुनाव करता है। मार्ग चुनने और उस पर चल पड़ने की हर किसी को छूट है। मनुष्य अपनी रुचि के कृत्य करता रह सकता है। उस पर विश्व व्यवस्था की रोक-थाम नहीं लगती। कोई स्वार्थी हो या परमार्थी इस पर दूसरे कुछ कहते-सुनते भले ही पाये जायें पर विवशता उत्पन्न करने वाला दबाव नहीं डाल सकते हैं। आखिर मानवी स्वतंत्रता भी तो कोई वस्तु है। उसके भौतिक अधिकारों का भी तो कोई मूल्य है। उनका उपयोग हर कोई प्रसन्नतापूर्वक करता है। समाज या शासन द्वारा रोकथाम तब की जाती है जब आचरण दूसरों के साथ टकराने लगे एवं सर्वजनीन बाहरी दबाव पड़ने जैसी कोई बात नहीं है। परामर्श, अनुरोध, आग्रह जैसा ही कुछ संबंधियों की ओर से मिलता रहता है। इतने पर भी अन्तिम निर्णय मनुष्य का अपना ही होता है। अपनी इच्छा ही दिशा बनाती और प्रयाण के साधन जुटाती है।

बड़प्पन या महानता के दो रास्तों में से किसे चुना जाय? किसे प्रगति माना जाय? इसका उपयुक्त निष्कर्ष निकालने के लिए कुछ कसौटियाँ निर्धारित करनी पड़ेंगी और प्रमाण उदाहरणों का आश्रय लेना होगा। तुलनात्मक दृष्टि रखकर दोनों के गुण-दोष देखने पड़ेंगे। न्यायधीश यही करते हैं। वे वादी-प्रतिवादी के दोनों पक्षों का ध्यानपूर्वक सुनते समझते हैं। इसके उपरान्त तथ्यों का वर्गीकरण करके यह देखते हैं कि किस पक्ष के साथ कितना औचित्य-अनौचित्य है। इस नीर-क्षीर विवेक के उपरान्त ही वे अपना फैसला लिखते और घोषित करते हैं। महत्वपूर्ण प्रसंगों पर कोई मत बनाने से पूर्व उनके संबंध में गुण-दोष परक मंथन और विश्लेषण किया जाना चाहिए।

सम्पन्नता और महानता दोनों में से कोई भी हेय नहीं है। दोनों की ही अपने-अपने स्थान पर उपयोगिता है। शरीर पंचतत्वों का बना होने से उसकी आवश्यकताएँ पदार्थ परक है। साधन-सामग्री को ही सम्पन्नता कहते है। शरीर में निर्वाह और विनोद की माँग करने वाले अवयव लगे हैं। आहार, निद्रा, सफाई जैसे कृत्य निर्वाह परक माने जाते हैं और जीभ, जननेन्द्रिय, नेत्र, कान आदि इन्द्रियों के सहारे मन को विनोद करने के लिए भी कई साधनों की आवश्यकता अनुभव होती है। दोनों को मिलाकर उन्हें शरीरगत आवश्यकता कहा जा सकता है। इनकी उपयोगी पूर्ति के लिए सीमित साधनों से काम चल सकता है और उन्हें जुटाने के लिए थोड़ी सी सम्पन्नता से काम चल सकता है। इससे अधिक संचय या उपभोग की बात सोची जाय तो उसमें आरम्भिक आकर्षण तो लगेगा किन्तु यह विवेक न रहेगा कि उनकी कितनी मात्रा का औचित्य है और उसका उपभोग-उपयोग किन प्रसंगों में किस सीमा तक किया जाना चाहिए। आमतौर से अनौचित्य अपनाया जाता है और उससे विग्रह खड़ा होता है। स्वाद वश अधिक खा जाने पर पेट में अपच जन्य अनेकों विकृतियाँ उठ खड़ी होती हैं। इन्द्रिय लिप्सा भी एक सीमा तक ही हजम हो सकती है अन्यथा अति विलास के फलस्वरूप इन्द्रियाँ स्वयं ही नष्ट होने लगती हैं और समूची स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए संकट खड़ा करती हैं। विलासी की अतिवादिता किस प्रकार दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु का सरंजाम खड़ा करती है। इसके उदाहरण पग-पग पर प्रस्तुत मिलते हैं।

उपभोग एक सीमा तक ही संभव है। सम्पन्नता के क्षेत्र में कितनी ही प्रगति क्यों न कर ली जाय उस संग्रह का उपभोग उसी सीमा तक किया जा सकता है जितना कि औसत मनुष्य करता। पेट में रोटी उतनी ही ठूँसी जा सकती है, कपड़े उतने ही पर्याप्त होते है जितने कि आमतौर से उपयोग में आते है। यदि इन पर अधिक खर्च करना हो तो परिणाम तो बढ़ नहीं सकेगा, अपव्यय पर उतारू होकर उन्हें अधिक खर्चीला भर बनाया जा सकता है। उपभोग सामग्री महती होने पर प्रयोक्ता के लिए कोई विशेष उपयोगी तो होती नहीं, मात्र दूसरों की ही आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करती है। देखना यह है कि क्या यह चकाचौंध उत्पन्न करना लाभदायक है भी या नहीं?

वे दिन बहुत पीछे रह गये जब सम्पन्नता जन्य ठाट-बाट के अपव्यय को देखकर लोग अमीरों को ईश्वर का प्यारा, भाग्यवान, बुद्धिमान मानते और नतमस्तक होते थे। अब मूल्याँकन की कसौटियों में जमीन आसमान जितना अन्तर आ गया है। इन दिनों


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118