जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्मज्ञान

क्या आत्—कल्याण के लिए गृहत्याग आवश्यक है?

<<   |   <   | |   >   |   >>


साधनावस्था के सामान्य कार्यक्रम परिवार के सान्निध्य में, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रमों में रहते पूरे किए जाते हैं। आंतरिक दोषों के समाधान के लिए यही स्थिति उचित भी है, क्योंकि सांसारिक जीवन में ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के अवसर आते हैं। उनसे लड़ना और निबटना इन्हीं परिस्थितियों में रहकर संभव है। तैरना उसी को आएगा, जो जल में घुसेगा। बेशक उसमें डुबकी लगने का खतरा भी है, पर तैरना सीखना हो तो यह जोखिम भी उठानी ही पड़ेगी। जो डुबकी लगने के डर से पानी से दूर ही रहे, वह तैरना क्या सीखेगा?

जो लोग सोचते हैं कि सांसारिक जीवन में अनेक दोष हो सकते हैं, इसलिए जंगल में, एकांत में, विरक्त बनकर रहना चाहिए, उनका रास्ता सुगम तो अवश्य है, कारण कि एकाकी जीवन में बुरी परिस्थितियों के कारण बुराई बन पड़ने का अवसर कम है, पर साथ ही यह जोखिम भी है कि मनोभूमि दुर्बल रह जाती है। प्रलोभन का अवसर आने पर ऐसे एकांतवासी ही आसानी से फिसल सकते हैं, क्योंकि उन्हें बुराई से लड़ने का और उस पर विजय प्राप्त करने का अवसर ही नहीं मिला, जिसने युद्धक्षेत्र देखा ही न हो, ऐसा सैनिक आसानी से हटाया जा सकता है, पर जो आएदिन लड़ता ही रहता है, वह शत्रु की चाल को और उसकी काट को भली प्रकार जानता है। ऐसा अनुभवी सैनिक आसानी से नहीं हटाया जा सकता। गृहस्थ अनुभवी सैनिक है। विरक्त तो परीक्षा से डरकर अपनी जान छिपाए बैठा है। वह कठिन प्रसंग आने पर उत्तीर्ण हो जाएगा, इसकी आशा कैसे की जाए?

भारतीय अध्यात्मविद्या की यही परंपरा है कि आत्म-सुधार, आत्म–निर्माण और आत्म-विकास का सारा कार्यक्रम परिवार के साथ रहकर सात्त्विक आजीविका कमाते हुए पूर्ण किया जाए। इसके बाद यदि किसी की ऐसी परिस्थिति हो कि अपनी पूर्णता का लाभ जनता को मार्गदर्शन कराते हुए दे सके, तो परिव्राजक या संन्यासी हो जाना चाहिए।

शास्त्र में ज्ञान-वृद्ध ब्राह्मण को ही संन्यास लेने का अधिकारी माना गया है। ये दोनों शर्तें मनुष्य की पूर्णता का प्रमाण हैं। ज्ञान-वृद्ध वह व्यक्ति होता है, जो उच्च शिक्षा, विशाल स्वाध्याय, चिंतन-मनन, तत्त्वदर्शन और आत्म-ज्ञान द्वारा अपने अंतःकरण का पूर्ण समाधान कर चुका हो। अपने संशय, भ्रम, मोह, अज्ञान का पूर्णतया निवारण कर चुका हो तथा अन्य व्यक्तियों की आंतरिक एवं सांसारिक जीवन की समस्याओं को धार्मिक एवं व्यावहारिक समन्वय के आधार पर हल करने की क्षमता जिसने प्राप्त कर ली हो। ऐसा ही व्यक्ति संसार के मार्गदर्शन के लिए, धर्मोपदेश के लिए अधिकारी कहा जा सकता है, उसे ही परिव्राजक बनना चाहिए, उसे ही संन्यास लेना चाहिए।

संन्यास ग्रहण करने की दूसरी शर्त है—ब्राह्मण होना। यहां ब्राह्मणत्व का तात्पर्य जाति या कुल से नहीं, गुण, कर्म, स्वभाव से है। ब्रह्मपरायण, वासनाओं और तृष्णाओं के विजयी, काम, क्रोध, लोभ, मोह से विरत, उदारमना, अपरिग्रही, लोकसेवी, सत्कर्मपरायण, व्यक्ति ब्राह्मण कहलाते हैं। ऐसे ही लोग किसी को उपदेश या ज्ञान देने के अधिकारी भी हैं। जिनका आंतरिक और बाह्य जीवन अपने आप में ही अपूर्ण एवं कलुषित है, वे किस मुंह से संसार का धार्मिक नेतृत्व कर सकते हैं। इसलिए ऐसे लोगों को, ब्राह्मणेत्तर वर्ग वालों को संन्यास लेने का अधिकारी बताया गया है।

जो लोग साधना के लिए, आत्म–उद्धार के मार्ग पर बढ़ने के लिए संन्यास लेते हैं, वे भारी भूल करते हैं। यह कार्य तो उन्हें पारिवारिक जीवन में रहते हुए करने का है। जब पूर्ण परिपक्व स्थिति प्राप्त हो जाए, अपने में किसी प्रकार की कोई कचाई या त्रुटि दिखाई न पड़े और अंतरात्मा यह स्वीकार करे कि हमें अब अपने लिए कुछ करना शेष नहीं रहा है, धर्म, प्रवचन एवं ज्ञानदान के योग्य पूर्ण परिपक्वता प्राप्त हो चुकी है, तो ऐसे व्यक्ति संन्यास ग्रहण करके परिव्राजक बन सकते हैं। परिव्राजक बनने के लिए आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त कर चुकने के अतिरिक्त दो सांसारिक प्रतिबंध भी हैं। एक यह कि स्वास्थ्य भ्रमण के योग्य हो। परिव्रज्या के कारण अस्त-व्यस्त रहने वाले आहार-विहार को सहन कर सके। दूसरे धर्मपत्नी की आंतरिक स्वीकृति प्राप्त हो। उसे भी अपने साथ-साथ वानप्रस्थ में रहकर इस मनोभूमि की बना लेना आवश्यक है कि पति के कार्य के महत्त्व को समझते हुए, मोह निवृत्त मन से उसे स्वीकृति दे। यह स्वास्थ्य संबंधी तथा पत्नी की स्वीकृति संबंधी समस्या हल न हो तो भी जो लोग आवेश में संन्यास ले लेते हैं, उनका लक्ष्य पूरा नहीं होता। ये दोनों बातें अभिशाप की तरह उनके पीछे पड़कर मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं।

संन्यास की स्थिति मानव जीवन की सर्वांगीण पूर्णता की घोषणा है और इसका प्रमाण है कि इस व्यक्ति ने सभी गुत्थियां शांति और मर्यादापूर्वक सुलझा ली हैं। अब यह इस स्थिति में है कि औरों का मार्गदर्शन कर सके। इतनी बड़ी सफलता प्राप्त करने वाले व्यक्ति के चरणों में जनसमाज सच्चे हृदय से मस्तक झुकाता है। उन्हें देव श्रेणी में गिना जाता है। ऐसे दस-बीस भी संन्यासी जिस देश में होते थे, उनकी कीर्ति चारों ओर फैल जाती थी। संन्यासी का आतिथ्य करने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए हर कोई लालायित रहता था। संन्यासी के दर्शन मात्र को लोग पुण्य मानते थे, क्योंकि वह जीवन की सर्वांगीण पूर्णता का प्रतीक जो था।

साधना करने के लिए अपरिपक्व मन, बुद्धि के लोगों का भगवा कपड़ा पहनकर संन्यासी हो जाना और अपनी अपूर्णताओं से वेष को कलंकित करते फिरना, संन्यास धर्म के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार है। ऐसे व्यक्ति अपराधियों की श्रेणी में रखने योग्य हैं, ईश्वरप्राप्ति तो उन्हें होनी ही कहां है?

आज साधु-संन्यासियों का समाज इतना बढ़ जाना और उनका स्तर इतना गिर जाना, प्रत्येक धर्मप्रेमी के लिए बड़ी चिंता एवं वेदना का विषय है। उनमें से जो थोड़े-से सच्चे साधु भी हैं, वे भी इन भिखमंगों की भीड़ में अपना प्रभाव खोते चले जा रहे हैं। पूर्वकाल में साधु-महात्मा को देखकर स्वभावतः ही हर व्यक्ति में उनके त्याग के प्रति श्रद्धा का संचार होता था, पर आज ठीक उसके विपरीत स्थिति है। त्याग, साधना और भावना ऊंची होते हुए भी वेश देखकर, तो पहले लोग नाक-भौं ही चढ़ाते हैं, पीछे अधिक व्यक्तिगत परिचय होने पर भले ही कोई सम्मान करें, अब भिक्षा भी कोई ससम्मान प्राप्त नहीं कर सकता और न ऐसा सात्त्विक अन्न ही उपलब्ध है, जिसे भिक्षा में लेकर खाने वाले की बुद्धि सात्त्विक बनी रहे। जंगल, वन भी कट गए, जहां कंदमूल, फल पैदा होते थे तथा जहां गाएं पालकर दूध भी उपलब्ध हो सकता था। अब तो वे ही जंगल किसी प्रकार बच रहे हैं, जो सब प्रकार साधनहीन हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए इन बातों की भी अब खैर नहीं।

इन परिस्थितियों को देखते हुए अध्यात्म मार्ग के पथिक के लिए ग्रहत्याग या संन्यास धारण करने की बात नहीं सोचनी चाहिए। उसके लिए यही उचित है कि अपनी सात्त्विक जीविका कमाते हुए अपने परिजनों के पालन-पोषण का पुनीत कर्तव्य पालन करते हुए, अपने दोष-दुर्गुणों के शमन करने एवं ईश्वर उपासना में लगने का प्रयत्न करें। यही मार्ग सीधा, सरल और सुगम है।

***

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118