संसार की रचना छोटे-छोटे परमाणुओं से मिलकर हुई है। जड़ और चेतन परमाणुओं के विचित्र संयोग से ही यह संसार गतिमान हो रहा है। जड़ परमाणुओं की शोध बीसवीं शताब्दी के विज्ञान की सबसे बड़ी देन है। कहते हैं जब परमाणु-शक्ति का पूर्णरूपेण उपयोग होने लगेगा, तब मनुष्य के लिए इस विश्व में कुछ भी असंभव न रहेगा। वह स्वेच्छापूर्वक ग्रह-नक्षत्रों में ऐसे ही विचरण कर सकेगा, जैसे इस पृथ्वी में एक गांव से दूसरे गांव को चले जाते हैं। यह शक्ति कितनी बड़ी होगी, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है।
जिस परमाणु की शक्ति और महत्ता इतनी बढ़-चढ़कर है, वह इतनी सूक्ष्म वस्तु है कि उसे बड़ी-से-बड़ी खुर्दबीन लगाकर भी देख पाना संभव न हुआ। केवल उसकी प्रतिक्रियाओं के आधार पर उसका नामांकन हुआ है। पदार्थ का सबसे छोटा टुकड़ा जिसके और अधिक अंश न हो सकें, वह ‘अणु’ कहलाता है। इस अणु में भी ‘न्यूक्लियस’ या केंद्र पिंड और इसके किनारे अंडाकार कक्षा में गति करता हुआ ‘इलेक्ट्रॉन’ स्थिर न्यूट्रॉन और प्रोटॉन से मिलकर बना हुआ परमाणु होता है, जिसको हम देख भी नहीं सकते। उस एक परमाणु का जब विस्फोट होता है, तो आइंस्टाइन के ‘मासकवर्जन’ सिद्धांत के अनुसार 33 लाख किलो कैलोरी ताप पैदा होता है। यह शक्ति एक विशाल भू-भाग को जलाकर खाक कर देने में पूर्णतया समर्थ है। अभी तो उस पर अनेक खोजें और भी होनी शेष हैं।
प्रत्येक पदार्थ इन छोटे-छोटे परमाणुओं से मिलकर बना है। मिट्टी के छोटे-छोटे कणों का वृहत्स्वरूप यह पृथ्वी है, समुद्र का आधार पानी की एक छोटी-सी बूंद है, विशाल वट-वृक्ष का निर्माण उसके बीज के एक बहुत छोटे अंश से होता है। परमाणु एक प्रकार से इस संपूर्ण ब्रह्मांड का नक्शा है, जो कुछ शक्तियां इस सृष्टि में दिखाई देती हैं, वे सब बीज रूप में एक परमाणु में विद्यमान हैं। इस शक्ति की हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
जड़ परमाणु की इतनी सामर्थ्य देखकर आश्चर्य होता है, पर चेतन अणु की शक्ति उससे भी अधिक है। जड़ पदार्थ स्वाधीन नहीं होते, उनकी अपनी कोई इच्छाशक्ति नहीं होती, किंतु चेतना शक्ति स्वच्छंद है। वह पदार्थ पर शासन करती है, शासित से शासक की शक्ति अधिक होना भी चाहिए। जड़ से चेतना का महत्त्व अधिक है, उसे जानकर ही मनुष्य के वास्तविक प्रयोजन की सिद्धि होती है।
आत्मा को विश्व–चेतना का परमाणु ही समझना चाहिए। पदार्थ के परमाणु की शक्ति का हिसाब लगा चुकने पर उससे आत्म-शक्ति की तुलना कर सकते हैं।
संसार में जो कुछ चल रहा है, उसका स्रष्टा परमात्मा अनंत शक्तिशाली है। इस विश्व में उसी का यह सब खेल चल रहा है। परम शक्तिशाली परमात्मा की शक्ति हमारी अंतरात्मा में उसी तरह समाई हुई है, जिस तरह वृक्ष की संभावना उसके बीज में होती है। उपनिषद्कार के कथन से इस आत्म-शक्ति का परिचय मिलता है—
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः
सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः
साक्षी चोता केवलो निर्गुणश्च ।। —श्वेताश्वतरो0 6.11
अर्थात्—‘‘वह परमात्मा ही संपूर्ण प्राणियों में आत्मरूप में विद्यमान है। वह सर्वव्यापक है, सर्वांतर्यामी है, वही कर्मों का अधिष्ठाता है, संपूर्ण भूतों का निवास, सबका साक्षी, चेतना-स्वरूप और सबको जीवन देने वाला परम पवित्र और गुणातीत भी है।’’
सारे संसार में जो शक्ति परमात्मा की है। मनुष्य देह में वह सारी योग्यताएं जीवात्मा को उपलब्ध हैं। ये शक्तियां हमारी अपनी हैं, किंतु अज्ञानवश हम उन्हें भूल चुके हैं। देह अर्थात् पदार्थ के सुखों में आसक्ति हो जाने के कारण आत्मा की सूक्ष्म सत्ता की ओर हमारा ध्यान भी आकृष्ट नहीं होता। यही हमारे दुःखों का कारण है। आत्म-हीनता का कारण मनुष्य की आत्म-अज्ञानता ही है।
आत्म–ज्ञान के मूल में वह शक्ति, वह सामर्थ्य और विशेषताएं सन्निहित हैं कि उन्हें यदि जाग्रत कर लिया जाए, तो मनुष्य अपने आप में महामानव, देवत्व तथा परमात्मा की सी शक्ति अनुभव कर सकता है। आत्मा वह कल्पतरु है, जिसकी छाया में बैठने से कोई भी कामना अपूर्ण नहीं रहती।
महापुरुषों के जीवन को फूल के समान खिला हुआ, सिंह की तरह अभय, सद्गुणों से ओत-प्रोत देखते हैं, तो स्वयं भी वैसा होने की आकांक्षा जागती है। आत्मा की यह आध्यात्मिक मांग है, उसे अपनी विशेषताएं प्राप्त किए बिना सुख नहीं होता। लौकिक कामनाओं में डूबे रहकर हम इस मूल आकांक्षा पर परदा डाले हुए पड़े रहते हैं, इससे किसी भी तरह जीवनलक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती।
श्रेष्ठता मनुष्य की आत्मा है। इसलिए जहां कहीं भी उसे श्रेष्ठता के दर्शन मिलते हैं, वहीं आकुलता पैदा होती है। मोर के पंखों की-सी सुंदरता पाने को हर कोई लालायित रहता है। किसी कवि की परिपूर्ण कविता पढ़कर ऐसा लगता है, काश! हम भी ऐसा ही लिख पाते। पक्षियों को आकाश में उड़ता हुआ देखकर लगता है, अपनी इच्छानुसार स्वच्छंद आकाश में विचरण करने की सामर्थ्य मिली होती, तो कितना अच्छा होता! ये अभिलाषाएं जागती तो हैं, किंतु यह विचार नहीं करते कि यह आकांक्षा आ कहां से रही है, आत्म–केंद्र की ओर आपकी रुचि जाग्रत हो तो आपको भी अपनी महानता जगाने का श्रेय मिल सकता है, क्योंकि लौकिक पदार्थों में जो आकर्षण दिखाई देता है, वह आत्मा के प्रभाव के कारण ही है। आत्मा की समीपता प्राप्त कर लेने पर ये सारी विशेषताएं स्वतः मिल जाती हैं, जिनके लिए मनुष्य जीवन में इतनी सारी तड़पन मची रहती है। सत्य, प्रेम, धर्म, न्याय, शील, साहस, स्नेह, दृढ़ता-उत्साह, स्फूर्ति, विद्वता, योग्यता, त्याग, तप और नैतिक सद्गुणों की चारित्रिक विशेषताओं के समाचार और दृश्य हमें रोमांचित करते हैं, क्योंकि ये अपनी मूलभूत आवश्यकताएं हैं। इन्हीं का अभ्यास डालने से आत्म-तत्त्व की अनुभूति होती है।
आत्म-ज्ञान का संपादन और आत्म-केंद्र में स्थिर रहना मनुष्य मात्र का पहला और प्रधान कर्तव्य है। आत्मा का ज्ञान चरित्र के विकास से मिलता है। अपनी बुराइयों को छोड़कर सन्मार्ग की ओर चलने की प्रेरणा इसी से दी जाती है कि आत्मा का आभास मिलने लगे। आत्मसिद्धि का एकमात्र उपाय पारमार्थिक भाव से जीवमात्र की सेवा करना है। इन सद्गुणों का विकास न हुआ, तो आत्मा की विभूतियां मलिनताओं में दबी हुई पड़ी रहेंगी।
बुराइयां आत्मा को प्रिय नहीं हैं। आप जब किसी चोर या डाकू को सजा पाते हुए देखते हैं, तो आपको भय प्राप्त होता है, तुरंत जी में आता है कि कहीं हम भी चोरी न करने लग जाएं। कसाई को जानवर काटते देखकर, शिकारी को पक्षियों को मारने की हिंसात्मक क्रिया देखकर दुःख होता है। दुष्टता और राक्षसी प्रवृत्ति से दूर भागने का प्रयास सभी करते हैं। अनीति, अत्याचार, अन्याय, आततायीपन, द्वेष, त्रुटि, कुरूपता, चोरी, ठगी आदि के क्षण, संस्मरण तथा घटनाएं बड़ी अप्रिय लगती हैं। यह अपनी मूल स्थिति के अनुरूप होता है। आत्मा कभी निकृष्ट होना नहीं चाहती, क्योंकि उत्कृष्टता उसका सहज स्वभाव है। भय उसे इसलिए पसंद नहीं है कि वह चिरअभय है। कुरूपता इसलिए अप्रिय है कि आत्मा का सौंदर्य बड़ा मोहक है। यह स्थिति प्राप्त न होने तक छटपटाहट अवश्य रहेगी। असंतुष्ट होना यह व्यक्त करता है कि अभी तक आपको निजत्व का ज्ञान नहीं मिला है।
देवत्व हमारी आवश्यकता है, दुष्प्रवृत्तियों से भय लगता है। पवित्रता हमें प्रिय है। अपवित्रता से दुःख मिलता है। निश्छलता से सुख मिलता है। छल और कपट के कारण जो संकीर्ण स्वभाव बनता है, उससे अपमान मिलता है। जो कुछ श्रेष्ठ है, सार्थक है, वही आत्मा है और उसी को प्राप्त करना, मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य है। जब तक इस बात को समझ नहीं लेते, कोई भी समस्या हल नहीं होती।
श्रेष्ठता से सुख मिलता है, यह सच है। इसे प्राप्त करना ही जीवनलक्ष्य है, इसे भी मानते हैं, तो सन्मार्ग और सत्प्रवृत्तियों द्वारा अपने देवत्व को जगाना पड़ेगा। प्रत्येक गुण का अमृतकुण्ड हमारी आत्मा में है, इसलिए अपने आत्म-भाव का परिष्कार करना पड़ेगा। आत्मीयता की भावना उठती है, तो उच्च प्रवृत्तियों का प्रकाश हमारे जीवन में लहराने लगता है।
यह जाग्रति प्रत्येक अवस्था में अभीष्ट है। यह संसार स्वप्न की तरह है। जिस प्रकार जागने पर स्वप्न मिथ्या प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार आत्मा का ज्ञान प्राप्त होने पर लौकिक कामनाएं झूठी मालूम पड़ने लगती हैं। अभी जो अपनी शक्तियों का लौकिक संघर्षों में अपव्यय करना पड़ता है, उसे यदि पतनकारी दुष्प्रवृत्तियों से हटाकर सद्गुणों के रचनात्मक कार्य में लगाएं, तो शक्तियों का सदुपयोग भी होता है और आत्मा के अकूत शक्ति भंडार का अधिकार भी मिलने लगता है।
संसार में जो कुछ भी विभूतियां एवं श्रेष्ठताएं हैं उन सबमें अपना आत्म-तत्त्व ही प्रवाहित हो रहा है। सत्, चित्, आनंदस्वरूप आत्मा ही संपूर्ण श्रेष्ठता और सौंदर्य का स्रोत है। जन्म और मरण का, निर्माण एवं विश्वास का जो विश्वव्यापी खेल चल रहा है, वह विश्व-आत्मा की शक्ति का प्रतीक है। यह शक्तिपुंज हमारे भीतर भरा पड़ा है। जब तक हम उससे विमुख रहकर लौकिक कामनाओं में डूबे रहते हैं, तब तक बड़े दीन-दुखी बने और दरिद्रता से घिरे रहते हैं, किंतु जब पारमार्थिक जीवन की उमंग आती है, तो हमारी शक्तियों का स्रोत भी उमड़ पड़ता है। तब हमारा जीवन विशाल, आनंदमय और शक्तिसंपन्न बन जाता है।
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