जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्मज्ञान

बिंदु में सिंधु समाया

<<   |   <   | |   >   |   >>


किसी की यह धारणा सर्वथा मिथ्या है कि सुख का निवास किन्हीं पदार्थों में है। यदि ऐसा रहा होता, तो वे सारे पदार्थ जिन्हें सुखदायक माना जाता है, सबको समान रूप से सुखी और संतुष्ट रखते अथवा उन पदार्थों के मिल जाने पर मनुष्य सहज ही सुखी-संपन्न हो जाता। किंतु ऐसा देखा नहीं जाता। संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिन्हें संसार के वे सारे पदार्थ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, जिन्हें सुख का आराधक माना जाता है, किंतु ऐसे संपन्न व्यक्ति भी असंतोष, अशांति, अतृप्ति अथवा शोक-संतापों से जलते देखे जाते हैं। उनके उपलब्ध पदार्थ उनका दुःख मिटाने में जरा भी सहायक नहीं हो पाते।

वास्तविक बात यह है कि संसार के सारे पदार्थ जड़ होते हैं। जड़ तो जड़ ही हैं। उसमें अपनी कोई क्षमता नहीं होती। न तो जड़ पदार्थ किसी को स्वयं सुख दे सकते हैं और न दुःख। क्योंकि उनमें न तो सुखद तत्त्व होते हैं, न दुःखद तत्त्व और न उनमें सक्रियता ही होती है, जिससे वे किसी को अपनी विशेषता से प्रभावित कर सकें। यह मनुष्य का अपना आत्मतत्त्व ही होता है, जो उससे संबंध स्थापित करके उसे सुखद या दुःखद बना लेता है। आत्म-तत्त्व की उन्मुखता ही किसी पदार्थ को किसी के लिए सुखद और किसी के लिए दुःखद बना देती है।

जिस समय मनुष्य का आत्म-तत्त्व सुखोन्मुख होकर पदार्थ से संबंध स्थापित करता है, वह सुखद बन जाता है और जब आत्म-तत्त्व दुःखोन्मुख होकर संबंध स्थापित करता है, तब वही पदार्थ उसके लिए दुःखद बन जाता है। संसार के सारे पदार्थ जड़ हैं, वे अपनी ओर से न तो किसी को सुख दें सकते हैं और न दुःख। यह मनुष्य का अपना आत्म–तत्त्व ही होता है, जो संबंधित होकर उनको दुःखदायी अथवा सुखदायी बना देता है। यह धारणा कि सुख की उपलब्धि पदार्थों द्वारा होती है, सर्वथा मिथ्या और अज्ञानपूर्ण है।

किंतु खेद है कि मनुष्य अज्ञानवश सुख-दुःख के इस रहस्य पर विश्वास नहीं करते और सत्य की खोज संसार के जड़ पदार्थों में किया करते हैं। पदार्थों को सुख का दाता मानकर, उन्हें ही संचय करने में अपना बहुमूल्य जीवन बेकार में गंवा देते हैं। केवल इतना ही नहीं कि वे सुख की खोज आत्मा में नहीं करते, अपितु पदार्थों के चक्कर में फंसकर उनका संचय करने के लिए अकरणीय कार्य तक किया करते हैं। झूठ, फरेब, मक्कारी, भ्रष्टाचार, बेईमानी आदि के अपराध और पाप तक करने में तत्पर रहते हैं। सुख का निवास पदार्थों में नहीं, आत्मा में है। उसे खोजने और पाने के लिए पदार्थों की ओर नहीं, आत्मा की ओर उन्मुख होना चाहिए।

पदार्थों का उपभोग इंद्रियों द्वारा होता है। इंद्रियों के सक्रिय और सजीव होने से ही किसी रस, सुख अथवा आनंद की अनुभूति होती है। जब तक मनुष्य समर्थ अथवा युवा बना रहता है, उसकी इंद्रियां सतेज बनी रहती हैं तब तक पदार्थ और विषयों का आनंद मिलता रहता है, पर जब मनुष्य वृद्ध अथवा अशक्त हो जाता है, उन्हीं पदार्थों में जिनमें पहले विभोर कर देने वाला आनंद मिलता था, एक-दम नीरस और स्वादहीन लगने लगते हैं। उनका सारा सुख न जाने कहां विलीन हो जाता है, वास्तविक बात यह है कि अशक्तता की दशा अथवा वृद्धावस्था में इंद्रियां निर्बल तथा अनुभवशीलता से शून्य हो जाती हैं, उनमें किसी पदार्थ का रस लेने की शक्ति नहीं रहती। इंद्रियों का शैथिल्य ही पदार्थों को नीरस, असुखद तथा निस्सार बना देता है।

वृद्धावस्था ही क्यों? बहुत बार यौवनावस्था में भी सुख की अनुभूतियां समाप्त हो जाती हैं। इंद्रियों में कोई रोग लग जाने अथवा उनको चेतनाहीन बना देने वाली कोई घटना घटित हो जाने पर भी उनकी रसानुभूति की शक्ति नष्ट हो जाती है। जैसे रसेंद्रिय-जिह्वा में छाले पड़ जाएं, तो मनुष्य कितने ही सुस्वाद पदार्थों का सेवन क्यों न करे, उसे उसमें किसी प्रकार का आनंद न मिलेगा। पाचन क्रिया निर्बल हो जाए, तो कोई भी पौष्टिक पदार्थ बेकार हो जाएगा। आंखें विकारयुक्त हो जाएं, तो सुंदर-से-सुंदर दृश्य  भी कोई आनंद नहीं दे पाते। इस प्रकार देख सकते हैं कि सुख पदार्थ में नहीं, अपितु इंद्रियों की अनुभूति शक्ति में है।

अब देखना यह है कि इंद्रियों की शक्ति क्या है? बहुत बार ऐसे लोग देखने को मिलते हैं, जिनकी आंखें देखने में सुंदर, स्वच्छ तथा विकारहीन होती हैं, लेकिन उन्हें दिखलाई नहीं पड़ता। परीक्षा करने पर पता चलता है कि आंखों का तंत्र भी ठीक है। उनमें आने-जाने वाली नस-नाड़ियों की अवस्था भी ठीक है। तथापि दिखलाई नहीं देता। इसी प्रकार अन्य इंद्रियां हाथ-पांव, नाक-कान आदि की भी दशा हो जाती है। सब तरफ से सब वस्तुएं ठीक होने पर भी इंद्रिय निष्क्रिय अथवा निरनुभूति ही रहती हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि रस की अनुभूति इंद्रियों की स्थूल बनावट से नहीं होती, अपितु इससे भिन्न कोई दूसरी वस्तु है, जो रस की अनुभूति कराती है। वह वस्तु क्या है? वह वस्तु है चेतन, जो सारी शरीर और मन, प्राण में ओत-प्रोत रहकर मनुष्य की इंद्रियों को रसानुभूति की शक्ति प्रदान करती है। इसी सब ओर से शरीर में ओत-प्रोत चेतना को आत्मा कहते हैं। आनंद अथवा सुख का निवास आत्मा में ही है। उसी की शक्ति से उसकी अनुभूति होती है और वही जीव रूप में उसका अनुभव भी करती है। सुख न पदार्थों में है और न किसी अन्य वस्तु में। वह आत्मा में ही जीवात्मा द्वारा अनुभव किया जाता है।

मनुष्य की अपनी आत्मा ही सब कुछ है। आत्मा से रहित वह एक मिट्टी का पिंड मात्र ही है। शरीर से जब आत्मा का संबंध समाप्त हो जाता है, तो वह मुरदा हो जाता है। शीघ्र ही उसे बाहर करने और जलाने-दफनाने का प्रबंध किया जाता है। संसार के सारे संबंध आत्मा द्वारा ही संबंधित हैं। जब तक जिसमें आत्म-भाव बना रहता है, उसमें प्रेम और सुख आदि की अनुभूति बनी रहती है और जब यह आत्मीयता समाप्त हो जाती है, वही वस्तु या व्यक्ति अपने लिए कुछ भी नहीं रह जाता। किसी को अपना मित्र बड़ा प्रिय लगता है। उससे मिलने पर हार्दिक आनंद की उपलब्धि होती है। न मिलने से बेचैनी होती है, किंतु जब किन्हीं करणोंवश उससे मैत्री भाव समाप्त हो जाता है अथवा आत्मीयता नहीं रहती, तो वही मित्र अपने लिए, एक सामान्य व्यक्ति बन जाता है। उसके मिलने-न-मिलने में किसी प्रकार का हर्ष-विषाद नहीं होता। बहुत बार तो उससे इतनी विमुखता हो जाती है कि मिलने अथवा दीखने पर अन्यथा अनुभव होता है। प्रेम, सुख और आनंद की सारी अनुभूतियां आत्मा से ही संबंधित होती हैं, किसी वस्तु, विषय, व्यक्ति अथवा पदार्थ से नहीं। सुख का संसार आत्मा में ही बसा हुआ है। उसे उसमें ही खोजना चाहिए। सांसारिक विषयों अथवा वस्तुओं में भटकते रहने से वही दिशा और वही परिणाम सामने आएगा, जो मरीचिका में भूले मृग के सामने आता है।

मनुष्य की अपनी विशेषता ही उसके लिए उपयोगिता तथा स्नेह-सौजन्य उपार्जित करती है। विशेषता समाप्त होते ही मनुष्य का मूल्य ही समाप्त हो जाता है और तब वह न तो किसी के लिए आकर्षक रह जाता है और न प्रिय। इस बात को समझने के लिए सबके अधिक निकट रहने वाले मां और बच्चे को ले लीजिए। माता से जब तक बच्चा दूध और जीवन रस पाता रहता है, उसके शरीर के अवयव की तरह चिपटा रहता है। उसे मां से असीम प्रेम होता है। जरा देर को भी वह मां से अलग नहीं हो सकता। मां उसे छोड़कर कहीं गई नहीं कि वह रोने लगता है, किंतु जब इसी बालक को अपनी सुरक्षा तथा जीवन के लिए मां की गोद और दूध की आवश्यकता नहीं रहती अथवा रोग आदि के कारण मां की यह विशेषता समाप्त हो जाती है, तो बच्चा उसकी जरा भी परवाह नहीं करता। वह उससे अलग भी रहने लगता है और स्तन के स्थान पर शीशी से ही बहल जाता है। मनुष्य की विशेषताएं ही किसी के लिए स्नेह, सौजन्य अथवा प्रेम आदि की सुखदायक स्थितियां उत्पन्न करती हैं।

किंतु मनुष्य की इस विशेषता का स्रोत क्या है? इसका स्रोत भी आत्मा के सिवाय और कुछ नहीं है। बताया जा चुका है कि आत्मा से असंबंधित मनुष्य शव से अधिक कुछ नहीं होता। जो शव है, मुरदा है अथवा अचेतन या जड़ है, उसमें किसी प्रकार की प्रेमोत्पादक विशेषता के होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मनुष्य के मन, प्राण और शरीर तीनों का संचालन, नियंत्रण तथा पोषण आत्मा की सूक्ष्म सत्ता द्वारा ही होता है। आत्मा और इन तीनों के बीच जरा-सा व्यवधान आते ही सारी व्यवस्था बिगड़ जाती है। सुंदर, सुगठित और स्वस्थ शरीर की दुर्दशा हो जाती है। प्राणों का स्पंदन तिरोहित होने लगता है और मन मतवाला होकर मनुष्य को उन्मत्त और पागल बना देता है।

ऐसी भयावह स्थिति में संसार का कोई व्यक्ति, कोई आत्मीय और कोई स्वजन संबंधी न तो प्रेम कर सकता है और न स्नेह-सौजन्य के सुखद भाव ही प्रदान कर सकता है। यह केवल मनुष्य की अपनी आत्मा ही है, जो उसका सच्चा मित्र, सगा-संबंधी और वास्तविक शक्ति है। इसी कारण मनुष्य गुणों और विशेषताओं का स्वामी बनकर अपनाना मूल्य बढ़ाता और पाता है। जीवन में सुख, सौख्य के उत्पादन, अभिवृद्धि और रक्षा के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह आत्मा की ही शरण में रहे। उसे ही अपना माने, उससे ही प्रेम करे और उसे ही खोजने-पाने में अपने जीवन की सार्थकता समझे।

सुख का निवास किसी व्यक्ति, विषय अथवा पदार्थ में नहीं है। उसका निवास आत्मा में ही है। संसार के सारे पदार्थ जड़ और प्रभावहीन हैं। किसी को सुख-दुःख देने की उनमें अपनी क्षमता नहीं होती। पदार्थों अथवा विषयों में सुख-दुःख का आभास उनके प्रति आत्म-भाव के कारण ही होता है। आत्म-भाव समाप्त हो जाने पर वह अनुभूति भी समाप्त हो जाती है। हमारी आत्मा ही विभिन्न पदार्थों पर अपना प्रभाव डालकर उन्हें आकर्षक तथा सुखद बनाती है। अन्यथा संसार के सारे विषय, सारी वस्तुएं, सारे पदार्थ और सारे भोग नीरस, निस्सार तथा निरुपयोगी हैं। जड़ होने से सभी कुछ कुरूप तथा अग्राह्य है।

जिस पदार्थ के साथ जितने अंशों में अपनी आत्मा घुली-मिली रहती है, उतने ही अंशों में वह पदार्थ प्रिय, सुखदायी और ग्रहणीय बना रहता है और आत्मा का संबंध जिस पदार्थ से जितना कम होता जाता है, वह उतना ही अपने लिए कुरूप और अप्रिय बनता जाता है। आनंद और प्रियता का संबंध पदार्थों से नहीं, स्वयं आत्मा से ही होता है। अस्तु, आत्मा को ही प्यार करना चाहिए, उसे ही तेजस्वी और प्रभावशील बनाना चाहिए, जिससे हमारा संबंध उसी से दृढ़ हो और उसके उपलक्ष्य में ही संसार को प्रेम और सुख दे सकें। हमारी अपनी आत्मा ही ज्ञान-विज्ञान का केंद्र है। सुख-शांति का मूल आधार है। उन्नति और समृद्धि का बीज उसी में छिपा है, स्वर्ग और मुक्ति का आधार वही है। कल्पवृक्ष बाहर नहीं, वरन् अपनी आत्मा में ही अवस्थित है, आत्मा में ही सब कुछ है और आत्मा स्वयं ही सब कुछ है। उसे ही सर्वस्व और सारे सुखों का मूल एवं शांति का स्रोत मानकर उसकी उपासना करनी चाहिए। जिसने आत्मा को अपना बना लिया, जिसने आत्मा को देख लिया, उसने सब कुछ देख लिया और जिसने आत्मा को प्राप्त कर लिया, उसने निश्चय ही सारे सुख, सारे सौख्य और सारे रस, आनंद एक साथ, एक स्थान पर ही सदा के लिए प्राप्त कर लिए।

***

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118