जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्मज्ञान

शक्ति का स्रोत हमारे अंदर है

<<   |   <   | |   >   |   >>


आज जैसी भी कुछ हमारी स्थिति है, वह सब हमारी मानसिक स्थिति का परिणाम है। मन कर्ता है। संसार की संपूर्ण वाह्य रचना की शक्ति और आधार मन है। हमारा आहार, रहन-सहन, चाल-चलन, व्यवहार-विचार, शिक्षा-समुन्नति ये सारी बातें हमारी मानसिक दशा के अनुरूप ही होती हैं। जैसा कुछ चिंतन करते हैं, विचार करते हैं, वैसे ही क्रिया-कलाप भी होते हैं और तदनुसार वैसे ही अच्छे-बुरे कर्म भी बन पड़ते हैं। सुख और दुःख, बंधन और मुक्ति चूंकि इन्हीं कर्मों का परिणाम है, इसलिए हमारे उद्धार और पतन का कारण भी हमारा मन ही है।

कोई भी बड़ा कार्य, श्रेष्ठ सत्कर्म या उन्नति करनी हो, तो उसके अनुरूप मानसिक शक्ति की ही आराधना करनी पड़ेगी। मन की शक्तियों को यत्नपूर्वक उस दिशा में प्रवृत्त करना पड़ेगा, जो लोग यह कहते रहते हैं कि ‘क्या करें, हमारा तो मन ही नहीं मानता।’’ उन्हें यह जानना चाहिए कि मानसिक शक्तियां सर्वथा स्वच्छंद नहीं हैं। मन इच्छाशक्ति के अधीन है। इच्छाओं के आकार-प्रकार पर उसकी क्रियाशक्ति संभावित है। एक व्यक्ति उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेता है, दूसरा निम्न कक्षाओं से ही अध्ययन छोड़ बैठता है। एक धनी है, दूसरा निर्धन; एक डॉक्टर है, दूसरा वकील; जिसकी जो स्थिति है, वह उसकी इच्छा के फलस्वरूप ही है। यदि किसी को अनिच्छापूर्वक किसी स्थिति में रहना पड़ रहा है, तो इससे एक ही अर्थ निकाला जाएगा कि उस व्यक्ति ने इच्छाओं के अनुरूप कार्य-शक्ति में मन को प्रयुक्त नहीं किया। जिसकी मानसिक शक्तियां विशृंखलित रहेंगी, वह न तो कोई सफलता ही प्राप्त कर सकेगा और न ही उसकी कोई इच्छा पूर्ण होगी।

असफलता या दुर्भाग्य केवल मनोबल की कमी का ही परिणाम है। यत्न करते हुए थोड़ी-सी परेशानी ही प्रयत्न से विचलित कर देने के लिए काफी होती है। थोड़ा-सा शारीरिक दबाव, धन-हानि, व्यापार में घाटा, शिक्षा में अनुत्तीर्णता जैसी निराशाजनक घटनाएं आईं कि प्रयत्न छोड़ बैठे। यह घटिया मनोबल का लक्षण है कि मनुष्य अल्प श्रम से अधिक परिणाम प्राप्त करना चाहे। इच्छाओं का आकार-प्रकार जितना बड़ा है, उतने ही बड़े प्रयत्नों की अपेक्षा की जाती है। यदि उतने प्रयत्न न किए जा सके, तो सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी।

विद्यार्थी परीक्षा उत्तीर्ण करने की दृष्टि से अध्ययन करते हैं। फीस के लिए पैसे जुटाते हैं, समय लगाते हैं, सभी शारीरिक सुख त्यागकर अध्ययन में लगे रहते हैं। कदाचित परीक्षा में ऐसा कोई विद्यार्थी फेल ही हो जाए, तो यह नहीं समझना चाहिए कि अपना श्रम, धन और समय व्यर्थ चला गया। परीक्षा में उत्तीर्ण होने का प्रमाणपत्र नहीं मिला—यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं है। मन के महत्त्व का प्रश्न है। महत्त्व इस बात का है कि उस शिक्षा से बौद्धिक बल बढ़ा, विचारशक्ति आई और अनेक उलझनों को सुलझाने की महत्त्वपूर्ण सामर्थ्य प्राप्त हुई या नहीं? प्रमाणपत्र इन्हीं बातों की गारंटी का ही नाम तो है, जो यदि न भी मिले तो यह नहीं समझना चाहिए कि हमारा प्रयत्न निष्फल चला गया।

परिस्थितियां यदि प्रतिकूल हैं तो भी साधनों का उपयोग करते रहना चाहिए। थोड़ी-सी पूंजी से बढ़कर उच्च स्तर के व्यापार तक पहुंचा जा सकता है, किंतु मानसिक शक्ति अपने साथ बनी रहनी चाहिए। कार्य करते समय ऊबे नहीं और उत्तेजित भी न हों। यह समझ लें कि हमें तो लक्ष्य तक पहुंचना है, जितनी बार गिरो, उतनी बार उठो। एक बार गिरने से उसका कारण मालूम पड़ जाएगा, तो दोबारा उधर से सावधान हो जाओगे। यह स्थिति निरंतर रहे, तो अनेक बाधाओं के रहते हुए भी अपने लिए उन्नति का मार्ग निकाला जा सकता है। हार मन के हारने से होती है। मन यदि बलवान है, तो इच्छापूर्ति भी अधिक सुनिश्चित समझनी चाहिए।

आज यदि स्थिति ठीक नहीं है, तो भविष्य में भी वह ऐसी ही बनी रहेगी, ऐसा कमजोर बनाने वाला विचार अपने मस्तिष्क से निकाल दें। श्रेष्ठता अंदर सुप्तावस्था में पड़ी हुई है। इसमें संशय नहीं कि हम हर आवश्यकता अपने आप पूरी कर सकते हैं, पर इसके लिए सतत अभ्यास की आवश्यकता है। अपना उद्योग बंद न करें। अकर्मण्यता और आलस्य का, अधीरता और प्रयत्नहीनता का साथ छोड़कर ‘‘यत्न देवो भव’’ की उपासना आरंभ कर दोगे तो पुरुषार्थ का देवता ही अपने लिए अनुकूल परिस्थितियां उत्पन्न कर देगा। काम करने में शिथिलता व्यक्त न करें। ढिलाई न करें। चिंतित न हों। आत्म-विश्वास न खोओ। धैर्य के साथ ‘यत्न’ देव का आश्रय पकड़े रहें, तो यह निश्चय है कि आज की यह दीन-हीन अवस्था कल श्री-संपन्न अवस्था में बदलकर रहेगी।

ऊंचे-से-ऊंची इमारत की नींव भी नीचे ही रखी होती है। ऊंचे उठने का शुभारंभ निचली पृष्ठभूमि से किया जाता है। निर्धन धन-कुबेर होते हैं, पहलवान कोई मां के पेट से बनकर नहीं आता। उसके लिए तो विधिवत उपासना करनी पड़ती है।

यह ठीक है कि आज अपनी दशा अच्छी नहीं, कोई विशेष गुण भी दिखाई नहीं देता, फिर भी निराशा का कोई कारण नहीं। एक शक्ति अभी भी अपने पास है और वह अंत तक पास रहेगी। यह है मन। मन की शक्ति को संपादन करने का तरीका जानने का प्रयत्न करें। छोटे-छोटे कामों में मनोयोग का प्रयोग किया करें। एक दिन मनोबल इतना बढ़ जाएगा कि ऊंचे-से-ऊंचा कार्य करने में भी हिचक-पटक नहीं होगी और उत्साहपूर्वक, दृढ़तापूर्वक सफलता की मंजिलें पार करते हुए आगे बढ़ सकेंगे। श्रेष्ठताएं अंदर छिपी पड़ी हैं, उनका समर्थन और अभिवर्द्धन करें, दूसरों की ओर देखें कि वे किस तरह आगे बढ़े हैं? दूसरों से उदाहरण लें कि उन्होंने कैसे सफलताएं पाई हैं? बिना हाथ-पांव डुलाए किसी के भाग्य-देवता ने साथ नहीं दिया। चुपचाप बैठे रहेंगे, तो उन्नति का अवसर पास से गुजरकर चला जाएगा, आपको केवल हाथ मसलकर रह जाना पड़ेगा।

आत्म–संयम करें, इससे बिखरा हुआ मानसिक संस्थान जगेगा। निश्चेष्ट मनुष्य इसलिए होता है कि उसकी शक्तियां इधर-उधर बिखरी हुई होती हैं। मामूली-सी शक्ति से कोई काम भी नहीं बनता। बिखरी हुई सूर्य की किरणें सारे शरीर पर असंख्य मात्रा में गिरती हैं, तो भी उससे कुछ विशेष हलचल उत्पन्न नहीं होती, पर यदि एक-डेढ़ इंच जगह की किरणों को आतिशी शीशे से एक जगह पर एकत्रित कर दिया जाए, तो इससे दावानल का रूप धारण कर एकता की क्षमता से संपन्न आग पैदा हो जाएगी। हम अपनी शक्तियों को इधर-उधर के बेकार के कार्यों में खरच करते रहते हैं, जिससे जीवन में कोई विशेषता नहीं बन पाती। आत्म-संयम से बिखरी हुई शक्तियां एक स्थान पर एकत्रित होकर अभीष्ट परिणाम के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करती हैं। मन की सूक्ष्म शक्तियों का जागरण आत्म-संयम से होता है।

किसी समय भारतवर्ष ने मन की शक्तियों का संपादन करके अनेक आश्चर्यजनक शक्तियां और सिद्धियां प्राप्त की थीं। एकाग्रता के अभ्यास द्वारा ये संभावनाएं अब भी जाग्रत की जा सकती हैं। इसके लिए अपने को गति देने की आवश्यकता है। जी-तोड़ परिश्रम करने की आवश्यकता है, प्रयत्न-पर-प्रयत्न करने की जरूरत है। हमारे भीतर जो सिद्धियां बिखरी हुई पड़ी हैं, उन्हें कार्यक्षेत्र में लगाने भर की देर है, बस हमारी यह विषम परिस्थितियां अधिक दिनों तक ठहरने वाली नहीं हैं।

उन्नति के लिए चाहे कितने ही व्यक्ति सहानुभूति व्यक्त क्यों न करें, पर यह निर्विवाद है कि हमारा इससे कुछ काम न चलेगा। हमें अपनी स्थिति स्वयं सुधारनी होगी। स्वयं कठिनाइयों से लड़कर नया निर्माण करना पड़ेगा। विशृंखलित शक्तियों को जुटाकर आगे बढ़ने का कार्यक्रम बनाना पड़ेगा। यह बात यदि समझ में आ जाए, तो सफलता की आधी मंजिल तय कर ली, ऐसा समझना चाहिए। शेष आधे के लिए मनोबल जुटाकर यत्नपूर्वक आगे बढ़िए, आपका सौभाग्य आपके मंगल मिलन के लिए प्रतीक्षा कर रहा है, स्वागत के लिए आगे खड़ा है।

***

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118