जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्मज्ञान

मन से छीनकर प्रधानता आत्मा को दीजिए

<<   |   <   | |   >   |   >>


मनुष्य सामान्यतः जो बाह्य में देखता, सुनता और समझता है वह यथार्थ ज्ञान नहीं होता, किंतु वह भ्रमवश उसी को यथार्थ ज्ञान मान लेता है। अवास्तविक ज्ञान को ही ज्ञान समझकर और उसके अनुसार ही कार्यों को करने के कारण ही मनुष्य अपने मूल उद्देश्य—सुख-शांति की दिशा में अग्रसर न होकर विपरीत दिशा में चल पड़ता है।

यथार्थ ज्ञान का अनुभावक मनुष्य का अंतरात्मा ही है। शुद्ध, बुद्ध एवं स्वयं चेतन होने से उसको अज्ञान का अंधकार कभी नहीं व्याप सकता। परमात्मा का अंश होने से वह उसी की तरह सत्, चित् एवं आनंदमय है। जिस प्रकार परमात्मा के समीप असत्य की उपस्थिति असंभव है, उसी प्रकार उसके अंश आत्मा में भी असत्य का प्रवेश संभव नहीं है।

मनुष्य का अंतरात्मा जो कुछ देखता, सुनता और समझता है वही सत्य है, वही यथार्थ ज्ञान है। अंतरात्मा से अनुशासित मनुष्य ही सत्य के दर्शन तथा यथार्थ ज्ञान की उपलब्धि कर सकता है। यथार्थ ज्ञान की उपलब्धि हो जाने पर मनुष्य के सारे शोक-संतापों एवं दुःख-द्वंद्वों का स्वतः समाधान हो जाता है। जहां प्रकाश होगा, वहां अंधकार और अज्ञान नहीं होगा, वहां दुःख रह ही नहीं सकता। प्रकाश का अभाव ही अंधकार है और ज्ञान की अनुपस्थिति ही दुःख। दुःख का कोई अपना मौलिक अस्तित्व नहीं है।

अंतरात्मा की बात सुनना और मानना ही उसका अनुशासन है। शंका हो सकती है कि क्या मनुष्य का अंतरात्मा बोलता भी है? हां, मनुष्य का अंतरात्मा बोलता है। किंतु उसकी वाणी स्थूल ध्वनिपूर्ण नहीं होती। वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म होती है, जिसे बाह्य एवं स्थूल श्रवणों से नहीं सुना जा सकता। मनुष्य का अंतरात्मा बोलता है, किंतु मौन विचार स्फुरण की भाषा में, जिसे मनुष्य अपनी कोलाहलपूर्ण मानसिक स्थिति में नहीं सुन सकता। अंतरात्मा की वाणी सुनने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य का मानसिक कोलाहल बंद हो।

अंतरात्मा का सान्निध्य मनुष्य को उसकी आवाज सुनने योग्य बना देता है। यों तो मनुष्य की अंतरात्मा उसमें सदा ओत-प्रोत है किंतु वह तब तक उसका सच्चा सान्निध्य नहीं पा सकता, जब तक वह उससे परिचय नहीं करता, उसे जान नहीं पाता। परिचयहीन निकटता भी एक दूरी ही होती है। रेलयात्रा में कंधे-से-कंधा मिलाए बैठे दो आदमी अपरिचित होने के कारण समीप होने पर भी एक-दूसरे से दूर ही होते हैं। अजनबी आदमी को छोड़ दीजिए, जिंदगी भर एक-दूसरे के पास रहने पर भी आतंकित परिचय के अभाव में एक-दूसरे से दूर ही रहते हैं। वे कभी भी एक-दूसरे को ठीक से नहीं समझ पाते।

अंतरात्मा को जानने का एक ही उपाय है कि उसके विषय में सदा जिज्ञासु एवं सचेत रहा जाए। जो जिसके विषय में जितना अधिक जिज्ञासु एवं सचेत रहता है, वह उसके विषय में उतनी ही गहरी खोज करता है और निश्चय ही एक दिन उसे पा लेता है। अपनी आत्मा के विषय में अधिक-से-अधिक जिज्ञासु एवं सचेत रहिए। आप अपनी आत्मा से परिचित होंगे, वाणी सुनेंगे, सच्चा मार्ग निर्देशन पाएंगे, तो अज्ञान से मुक्त होंगे और जीवन में यथार्थ सुख-शांति के अधिकारी बनेंगे।

मनुष्य जो काम करता है, वह अधिकतर करता अंतःप्रेरणा से ही है, किंतु वह अंतःप्रेरणा अंतरात्मा की नहीं होती। वह होती है मन की, जो कि स्वभावतः पतन पथगामी होती है। चंचल, निरंकुश एवं उच्छृंखल मन मनुष्य के लिए यातना का महामूल है। वह इंद्रियों द्वारा कार्य रूप में स्फुरित होकर मनुष्य को अंधकार की ओर ही खींच ले जाता है।

जब तक मनुष्य उच्छृंखल मन की प्रेरणा से गतिशील होता रहता है, उसकी आवाज का अनुगमन करता रहता है, तब तक निरंतर ऐसे मार्ग पर ही चलता रहता है जिस पर दुःख-द्वंद्वों एवं शोक-संतापों की कंटकित झाड़ियां ही उगी रहती हैं। यथार्थ बात यह है कि मनुष्य अपने अंतरात्मा की आवाज इसी मन के कोलाहल के कारण नहीं सुन पाता। जहां मन का स्वभाव उछल-कूद मचाना और शोर करने का है, वहां मनुष्य का अंतरात्मा शांत एवं सुस्थिर होता है। न तो वह मन की तरह कोलाहल कर पाता है और न उछल-कूद मचा पाता है। अपनी इसी चपलता के कारण ही मन मनुष्य की अंतरात्मा के आगे बना रहता है और उसे तरह-तरह की अवांछनीय प्रेरणाएं दिया करता है। आवाज में प्रबलता एवं निर्देश में शासन का भाव रखकर मन मनुष्य को शीघ्र ही अपने अनुकूल प्रभावित कर लेता है, हठपूर्वक उसे अपना आज्ञापालक बना लेता है। जबकि शुद्ध-बुद्ध एवं शांत आत्मा कभी भी मनुष्य से किसी बात का दुराग्रह नहीं करता।

अंतरात्मा के जिज्ञासु को चाहिए कि वह मन के कोलाहल की ओर से कान बंद कर अंतरात्मा की आवाज सुनने का अभ्यास करे। जिस दिन वह अंतरात्मा का निर्देश सुनने और पालन करने लगेगा, निश्चय ही उस दिन से यथार्थ सुख-शांति का अधिकारी बन जाएगा। जिज्ञासा की प्रबलता से मनुष्य के कान उस तन्मयता को सरलता से सिद्ध कर सकते हैं, जो अंतरात्मा की आवाज सुनने में सफलतापूर्वक सहायक हो सकती है। आत्मा मनुष्य का सच्चा मित्र है। वह सदैव ही मनुष्य को सत्पथ पर चलने और कुमार्ग से सावधान रहने की चेतावनी देता रहता है। किंतु खेद है कि मनुष्य मन के कोलाहल में खोकर उसी आवाज नहीं सुन पाता। किंतु यदि मनुष्य वास्तव में उसकी आवाज सुनना चाहे, तो ध्यान देने से उसी प्रकार सुन सकता है जिस प्रकार बहुत-सी आवाजों के बीच भी उत्सुक शिशु अपनी मां की आवाज सुनकर पहचान लेता है।

अंतरात्मा मनुष्य का मित्र है और सदैव ही उसका हित चाहता रहता है, तो फिर वह उसके लिए प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता, लुका-छिपा क्यों रहता है? यह प्रश्न किसी भी व्यक्ति के मस्तिष्क में उठ सकता है। इसका सीधा-सा उत्तर यही है कि आत्मा सदा-सर्वदा प्रत्यक्ष ही रहता है, किंतु यह मनुष्य का ही दृष्टि दोष है कि वह उसे देख नहीं पाता। सूर्य सदैव प्रत्यक्ष है, जब उसके तथा दृष्टि के बीच में कोई व्यवधान आ जाए, तो सूर्य उसके लिए अप्रत्यक्ष ही है। मनुष्य तथा उसके आत्मा के बीच मन की प्रधानता का पर्दा पड़ा हुआ है, जिसके कारण प्रत्यक्ष आत्मा भी मनुष्य के लिए अप्रत्यक्ष ही रहता है। यदि मनुष्य इस मन की प्रधानता की उपेक्षा कर सके, तो निश्चय ही उसका अंतरात्मा उसके लिए प्रकाश के समान ही प्रत्यक्ष हो जाए।

मन को प्रधानता देने वाले सदैव ही अपनी आत्मा से वंचित रहा करते हैं और उससे मिलने के लिए उत्सुक होने पर भी सान्निध्य प्राप्त नहीं कर पाते। मन को प्रधानता देने वाले उसके निर्देश एवं संकेत से ही संचालित हुआ करते हैं। बहुत बार बहुत से मनीषीजन अपने मन को साधना द्वारा शुद्ध एवं प्रबुद्ध भी कर लिया करते हैं, किंतु तब तक वह शुद्ध एवं प्रबुद्ध मन विश्वस्त नहीं माना जा सकता, जब तक उसकी सत्ता आत्मा में अंतर्हित नहीं हो जाती। बहुत बार संस्कृत एवं सुशिक्षित होकर मन और अधिक प्रबल हो जाता है, उसकी सत्ता इतनी बढ़ जाती है कि वह आत्मा को अनुशासित करने का प्रयत्न ही नहीं करता, अपितु अपने को मनुष्य का अंतरात्मा ही घोषित करने लगता है। किंतु आत्मा के प्रति उत्सुक मनीषीजन उसकी इस दुरभिसंधि को अच्छी तरह जानते हैं और कभी भी उसके छल में नहीं आते।

मन जितना अधिक प्रबल एवं प्रबुद्ध होता है उतना ही अधिक दुराग्रही हो जाता है। वह जो कुछ देखता, सुनता, अनुभव एवं स्वीकार करता है, उसे ही सत्य मान लेता है और हठपूर्वक इस बात का प्रयत्न किया करता है कि जिस बात को उसने स्वीकार किया, मनुष्य भी उसे सत्य माने तथा यथावत स्वीकार कर ले। अपने आपेक्षिक ज्ञान का भी दुराग्रही मन सत्य सिद्ध करने के लिए ऐसे-ऐसे समर्थ तर्कों का अनुसंधान कर लेता है कि जिनको सुनकर मनुष्य भ्रम में पड़ जाता है और उनको स्वीकार कर लेता है। किंतु वास्तविकता यह होती है कि मन का अनुभूत ज्ञान कभी भी सत्य नहीं हो सकता। मन की सत्ता भौतिक है, सांसारिक है। अस्तु, उसका अनुभव किया हुआ जड़जन्य ज्ञान सत्य नहीं हो सकता। मन की प्रेरक प्रबलता से बचने का एक ही उपाय है कि किसी भी स्थिति में उस पर विश्वास न किया जाए और प्रधानता मन से छीनकर अंतरात्मा को दी जाए। प्रधानता के अभाव में उसका दुराग्रह कम हो जाएगा और मनुष्य की अमर आत्मा उदीयमान होने लगेगी।

मनुष्य तब तक विश्वस्त नहीं हो सकता, जब तक जन्म-जन्म के संस्कारों का जमा मल उस पर से पूर्णरूपेण धुल नहीं जाता। निर्मल हो जाने पर मन की विक्षिप्तता नष्ट हो जाती है और वह शांत एवं सुस्थिर हो जाता है। मन की स्तब्धता की स्थिति में अंतरात्मा की आवाज वैसे ही सुनाई देने लगती है जैसे मेघों का गर्जन बंद हो जाने पर पपीहे की आवाज सुनाई देने लगती है। मनुष्य के मन का वांछित संस्कार तभी संभव है,, जब उसकी प्रधानता विनष्ट कर दी जाए और आत्मा को प्रधानता देकर उसी के प्रति अधिकाधिक सजग, सचेत एवं समुत्सुक बना जाए।

स्तब्ध हो जाने पर मन की कोई स्वतंत्र सत्ता ही नहीं रहती। स्तर के अनुसार या तो वह आत्मा के वशवर्ती हो जाता है अथवा सिंधु में बिंदु और प्रकाश में अंधकार की तरह समाहित हो जाता है? मन के स्तब्ध हो जाने का सबसे बड़ा लक्षण यह है कि मनुष्य की अंतःप्रेरणाओं में कोई द्वंद्व, कोई विरोध अथवा कोई संकल्प-विकल्प ही न रहे। उसके हृदय में केवल एक निर्द्वंद्व, निर्विघ्न, निर्विरोध एवं निश्चित विचार उठे और जिसे क्रियात्मक रूप देने में मनुष्य में उसके अशुभ होने का संदेह ही न रहे।

मनुष्य के वैचारिक द्वंद्व का कारण यही होता है कि अंतरात्मा एवं मन की विरोधी सत्ताएं बनी रहती हैं। निश्चय ही स्वाभाविक विरोध होने से अपने धर्मानुसार मन मनुष्य को गलत रास्ते पर प्रेरित करेगा और आत्मा अवश्य ही उसका विरोध करेगी। आत्मा मनुष्य को सत्पथ पर चलने के लिए कहेगी, मन उसमें वितर्क करेगा। ‘किया जाए या न किया जाए’ का विरोधी द्वंद्व आत्मा के साथ मन की सत्ता बनाए रखने के कारण ही उत्पन्न होता है।

जब तक मनुष्य अपनी आत्मा द्वारा पूरी तरह अनुशासित नहीं हो पाता, आत्मा की ओर से निषेधात्मक निर्देश आते ही रहते हैं। जब किसी भी संकल्प का निषेध होता रहे, समझना चाहिए कि अभी मन की कुछ-न-कुछ स्वतंत्रात्मक सत्ता बनी हुई है और वह हमको गलत रास्ते पर प्रेरित करने का प्रयत्न कर रहा है, जिसका कि आत्मा विरोध कर रही है। विरोध तो मन भी करता है किंतु मन के उस विरोध का भी एक सूक्ष्म विरोध होता रहता है, जो कि आत्मा की ओर से होता है और जिसे थोड़ा-सा ध्यान देने पर अनुभव कर सकता है।

आत्मा अमर है, शाश्वत है, सत्य है, इसलिए उसका विनाश नहीं हो सकता और न उसकी स्थिति ही बदल सकती है। मन भौतिक है, अनक्षर है, उसी को मारना अथवा आत्मा के वशीभूत होकर उसी में अपने को विसर्जित करना होगा। आत्मा की आवाज सुनने और उसका साक्षात्कार करने के लिए मनुष्य मन की प्रधानता का अपहरण करके आत्मा को दे। इस प्रकार वह आत्मा के प्रति सजग, सचेत व उत्सुक बनकर अपना भविष्य बनाएगा और शाश्वत सुख का अधिकारी बनेगा।

***

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118