मनुष्य पाप, बुढ़ापे, मृत्यु, भूख, प्यास की चिंता तथा भय के कारण अनेक संकल्प-विकल्प के उत्पन्न होने वाले शोक, उद्विग्नता आदि से जीवन के सहज स्वाभाविक सुख और उपलब्धियों का भी लाभ नहीं उठा पाता। सुर दुर्लभ मानव जीवन को भार, अभिशाप मानकर जीता है। भय की कुकल्पनाएं उसे चैन से नहीं सोने देती हैं और न सुखी जीवन बिताने देती हैं। इन सबसे छुटकारा पाकर जीवन को सुखी व मधुर बनाने की खोज मनुष्य सदा से ही करता आया है। उपनिषद्कार ने इसी को महत्त्व देते हुए कहा है—
य आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोऽपिपासाः सत्यकामः सत्यसंकल्पः सोऽन्वेष्टयः स विजिज्ञासितव्य । —छान्दो0 8.7.1
‘‘जो निष्पाप, जरा रहित, अमर्त्य, शोक रहित, भूख-प्यास से मुक्त, सत्य काम, सत्यं संकल्प है, उसे ही ढूंढ़ना चाहिए, उसे ही जानने की इच्छा करनी चाहिए और वह तत्त्व है—आत्मा।’’
वस्तुतः आत्मा ही जरा-मरण, भूख-प्यास, समस्त भय संदेह, संकल्प-विकल्पों से रहित नित्य मुक्त, अजर-अमर-अविनाशी तत्त्व है। उसे जान लेने पर ही मनुष्य समस्त, भय, शोक, चिंता, क्लेशों से मुक्त हो जाता है।
आत्मा सर्वव्यापी नित्य तत्त्व है। आत्मा ही मानव जीवन का मूल सत्य है। आत्मा के प्रकाश में ही बाह्य संसार और मानव जीवन के कार्य-कलापों का अस्तित्व है। आत्मा के पटल पर ही संसार और दृश्य जीवन का छाया-नाटक बनता-बिगड़ता रहता है। संसार जो कुछ भी है, वह आत्मा की अभिव्यक्ति और उसका विस्तार है। ऐतरेय ब्राह्मण में आया है—
आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत् नान्यत्किञ्चन मिषत् । स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति। —ऐतरेयो0 1.1.1
पूर्व में केवल एकमात्र आत्मा ही था अन्य कोई तत्त्व नहीं था। उस आत्मा में से ही अनेक लोगों का सृजन हुआ। छांदोग्योपनिषद् (7.25.2) में लिखा है—आत्मैवदं सर्वम् । आत्मा ही यह सब है। आत्मा के धरातल पर ही दृश्य जगत के घरौंदे बनते-बिगड़ते रहते हैं। सृजन और संहार का चक्र चलता रहता है। किंतु यह आत्म-तत्त्व अपने नित्य स्वरूप में स्थिर रहता है सदा-सदा। अनंत आकाश के मध्य ग्रह-नक्षत्रों का क्रिया-कलाप चालू रहता है। अनेक उल्काएं-नक्षत्र बनते-बिगड़ते रहते हैं, किंतु आकाश अपने गुरु गंभीर अविचल स्वरूप में नित्य ही स्थित रहता है। इसी तरह सर्वत्र व्याप्त आत्म-तत्त्व के मध्य पदार्थों का सृजन और विनाश होता रहता है किंतु आत्म-तत्त्व पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह सदा-सर्वदा नित्य है।
सर्वव्यापी विराट आत्मसत्ता ही ब्रह्म है। ‘‘अयम आत्मा ब्रह्म’’ (बृ0उ0) यह आत्मा ही ब्रह्म है, ऐसा उपनिषद्कार ने अपनी अनुभूति के आधार पर कहा है। आत्मा ही परमात्मा है—ईश्वर है। आत्म-तत्त्व जब जगत, देह, इंद्रिय तथा संसार के पदार्थों को प्रकाशित करता है, तो अनेक रूपों में दिखाई देता है। जिस तरह जल की बूंदें समुद्र पर गिरते समय अलग-अलग दिखाई देती हैं, किंतु गिरने से पूर्व और गिरने पर वह अथाह सिंधु के रूप में ही होती है। आत्मा भी आदि-अंत में हमेशा ही स्थिर रहने वाला नित्य तत्त्व है। जो विराट है, भूमा है—‘‘यो वै भूमा।’’
आत्म-प्रबोध उपनिषद् (19) में लिखा है—
घटनावभासको भानुर्घटनाशेन नश्यति ।
देहावभासकः साक्षी देहनाशे न नश्यति ।।
‘‘जिस तरह घड़े को प्रकाशित करने वाला सूर्य घड़े के नष्ट होने पर नष्ट नहीं होता है, उसी तरह देह के नाश होने पर आत्मा का नाश नहीं होता।’’
सूर्य का प्रकाश विभिन्न घड़ों में पड़ते समय अलग-अलग सा जान पड़ता है। लेकिन सूर्य अखंडित ही रहता है। इसी प्रकार आत्मा भी विभिन्न देह-पदार्थों को प्रकाशित करते हुए खंड-खंड नहीं होता। अथाह धरती के धरातल पर बच्चे मिट्टी के छोटे-छोटे अनेक घरौंदे बनाते हैं, बिगाड़ते हैं। मूर्तिकार अनेक मूर्तियां बनाता है, फिर वे समय पर नष्ट भी हो जाती हैं। इस पर भी आदि-अंत में मिट्टी, धरती अपने नित्य स्वरूप में ही स्थिर रहती है। ठीक इसी तरह आत्मा के पटल पर संसार और उसके पदार्थों का बनना-बिगड़ना जारी रहता है, किंतु आत्म–तत्त्व अपने नित्य स्वरूप से स्थिर रहता है।
इस तरह मानव जीवन, समस्त संसार और पदार्थों की मूलसत्ता, सर्वव्यापी आत्म-तत्त्व को जान लेने पर मनुष्य जीवन में होने वाले विभिन्न परिवर्तन, सृजन और विनाश, लाभ-हानि, सुख-दुःख, भय-शोक आदि से मुक्त हो जाता है। उसके समस्त पाप-ताप, विकृतियां तिरोहित हो जाते हैं। आत्मविद् होकर, आत्मस्थित होकर मनुष्य सुख-शांति, आनंद की सहजावस्था प्राप्त कर लेता है। आत्मा की सत्यता का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य स्वतः ही संसार और इसके पदार्थों को जीवन का सत्य मानने वाले ही विभिन्न उपायों से पदार्थ, उपकरण आदि संग्रह करते हैं। इसके लिए एक-दूसरे का अहित, शोषण, नाश करने में भी नहीं चूकते। पदार्थों की चकाचौंध में परस्पर टकराकर, दिन-रात अशांति, क्लेश, उद्विग्नता के भागी बनते हैं, लेकिन आत्मविद् संसार और इसके पदार्थों की क्षणभंगुरता, अनित्यता को जानकर आत्मा के स्वभाव अनुसार दिव्य कर्म, दिव्य गुणों से युक्त हो स्वर्गीय जीवन बिताता है। वह पदार्थों की मोहक गंध पर गिद्धों की तरह नहीं टूटता न किसी से लड़ता है।
देह, इंद्रियां और सांसारिक पदार्थों को महत्त्व देने पर ही जीव में विभिन्न राग-द्वेष की आशा, अभिलाषाओं का चक्र चलता है। जब मनुष्य इससे ऊपर उठकर आत्मा के व्यापक विराट् स्वरूप में स्थिर होता है, तो पदार्थों की तुच्छता, देह इंद्रिय की अनित्यता-क्षणभंगुरता का ज्ञान हो जाता है, तब फिर वह अमूल्य मानव जीवन को इन तुच्छ बातों में नष्ट नहीं करता और इसी के साथ उसके समस्त दुःख-द्वंद्व तिरोहित हो जाते हैं।
सर्वत्र आत्मा के स्वरूपों को देखने वाले आत्मविद् के अंतर से विश्वप्रेम की सुरसरि बह निकलती है। सत्य, प्रेम आदि आत्मा के गुण-धर्म हैं। जिस अंतर में ये पुण्य धाराएं बहती रहती हैं, जिससे आनंद, शांति, संतोष प्राप्त होता है, उसे अनुभवी ही जानते हैं। सभी को आत्ममय देखने वाला व्यक्ति सबको प्रेम करेगा। सबसे प्रेम, सबकी सेवा, सबमें आनंद की अनुभूति आत्मविद् के स्वभाव का अंग बन जाती है।
आत्मा का ज्ञान मनुष्य को जरा-मरण के भय से मुक्त करता है। वस्तुतः जरा और मृत्यु का भय, चिंता इतनी भयावह होती है कि इससे मनुष्य का जीवन तेजी के साथ नष्ट होने लगता है। भय की प्रबल प्रतिक्रियाओं से लोग अचानक मरते देखे जाते हैं। लेकिन सब भयों में, खासकर सबसे बड़े मृत्यु-भय का उच्छेद आत्म–ज्ञान से तत्क्षण ही हो जाता है। क्योंकि आत्मा जरा-मरण के बन्धनों से मुक्त है। कठोपनिषद् में आत्म द्रष्टा ऋषि ने कहा है—
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं
कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्—
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो,
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। —कठो0 1.2.18
यह नित्य चैतन्यस्थ आत्मा न कभी जन्म लेता है, न कभी मरता है, न तो यह कभी पैदा हुआ और न इससे कोई पैदा हुआ। यह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, चिरंतन है। शरीरों के नष्ट हो जाने पर भी यह नष्ट नहीं होता। आत्मा अक्षय अजर-अमर नित्य तत्त्व है, जो चिरंतन होने से जन्म-मृत्यु से परे है।
इस तरह आत्मा को अजर-अमर, अविनाशी तथा चिरंतन सत्ता का ज्ञान-बोध हो जाने पर मनुष्य जरा, मरण एवं अन्य सभी प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है। आत्मविद् के लिए मृत्यु एक वस्त्र बदलने जैसी प्रक्रिया मात्र है। आवश्यकता पड़ने पर वह हंसते-हंसते मौत का आलिंगन करने में भी नहीं चूकता। क्योंकि इससे उसका शरीर नष्ट होता है, आत्मा नहीं।
इसलिए जीवन में परितोष की प्राप्ति के लिए, सत्य, प्रेम, आनंद की व्यापक अनुभूति के लिए, जीवन के सत्य की प्राप्ति के लिए सर्व ओर से निर्भय, निर्द्वंद्व, निश्चित बनने के लिए, आत्म-तत्त्व में प्रवेश पाने, उसे जीतने, उसे स्थिर रहने के लिए नित्य ही प्रयत्न करना आवश्यक है।
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