जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्मज्ञान

शक्ति के स्रोत—आत्मा को मानिए

<<   |   <   | |   >   |   >>


हमारे पूर्वज ज्ञान-विज्ञान में आज के वैज्ञानिकों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रवीण थे, किंतु वे समझते थे कि विज्ञान अंततोगत्वा मनुष्य की वृत्तियों को पाशविक, भोगवादी ही बनाता है। अतः उन्होंने धर्म और अध्यात्म पर आधारित जीवन की रचना की थी। उस जीवन में प्राण था, शक्ति थी, समुन्नति थी और वह सब कुछ था, जिससे मनुष्य का जीवन पूर्ण सुखी, स्वस्थ और संतुष्ट कहा जा सकता है।

आत्मा को ही सब कुछ मानकर अनित्य के प्रति वैराग्यमूलक मनोवृत्ति धारण कर लेने की शिक्षा देना हमारा उद्देश्य भले ही न हो, किंतु भौतिक सुख और इंद्रियों की पराधीनता भी मनुष्य जीवन के लिए नितांत उपयोगी नहीं कहे जा सकते। आत्म-ज्ञान की आवश्यकता इसलिए है कि उससे सांसारिक विषयों में स्वामित्व और नियंत्रण की शक्ति आती है। भौतिक सुखों के रथ की उन घोड़ों से तुलना की जा सकती है, जिनमें यदि आत्म-ज्ञान की लगाम न लगी हो, तो वे सवार समेत रथ को किसी विनाश के गड्ढे में ही ले जा पटकेंगे। जगत की सत्ता से विच्छिन्न मनुष्य की सत्ता परिच्छिन्न मात्र नहीं है। वह केवल व्यष्टि ही नहीं, वरन् समष्टि भी है। उसमें अनंत सत्यं, शिवं और सौंदर्य समाहित है। उसे जाने बिना मनुष्य के बाह्यांतरिक कोई भी प्रयोजन पूरे नहीं होते। आत्म-ज्ञान इसीलिए मनुष्य जीवन का प्रमुख लक्ष्य है।

शरीर के संपूर्ण अंग-प्रत्यंगों की स्थूल जानकारी, पदार्थ और उसके गुण भेद की जानकारी, ग्रह-नक्षत्रों से संबंधित गणित और उनके वैज्ञानिक तथ्य जानने से मनुष्य की सुविधाएं भले ही बढ़ गई हों, पर उसने अपने आप का ज्ञान प्राप्त नहीं किया, यही दुःख का प्रधान कारण है। मनुष्य शरीर ही नहीं, वरन् परिस्थितियां बताती हैं कि वह कुछ अन्य वस्तु भी है, आत्मा है। इस आत्मा या ‘अहंभाव’ का ज्ञान प्राप्त किए बिना दुनिया का सारा ज्ञान-विज्ञान अधूरा है। बिना इंजन लगी हुई मोटर की तरह ज्ञान किसी तरह का लाभ नहीं दे सकता।

आत्मा शक्ति का अनादि स्रोत है। शौर्य, प्रेम और पौरुष की अनंत शक्ति उसमें भरी हुई है। अतः आत्म-ज्ञान में लगाए हुए समय, श्रम और साधनों को निरर्थक नहीं बताया जा सकता। आत्म-शक्ति को पाकर मनुष्य के सारे अभाव, दुःख, दारिद्रय, सांसारिक आधि-व्याधियां समाप्त हो जाती हैं। भगवान कृष्ण ने आत्मज्ञानी पुरुष को ही सच्चा ज्ञानी बताते हुए कहा है—

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।। —गीता 15।10

‘‘हे अर्जुन! उस आत्मा को छोड़कर जाते हुए, शरीर में स्थित विषयों को भोगते हुए अथवा तीनों गुणों से युक्त होते हुए भी अज्ञानी लोग नहीं जानते। उस तत्त्व रूप आत्मा को केवल ज्ञानी ही जानते हैं।’’

मनुष्य शरीर नहीं वरन् वह शरीर का संचालक है। वह मन भी नहीं क्योंकि मन को प्रेरणा देकर, आदेश देकर किसी भी अच्छे–बुरे कर्म में लगाया जाता है। सत्-असत् का ज्ञान देने वाली बुद्धि को भी आत्मा कैसे मानें? विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यह शरीर, इंद्रियां, मन, बुद्धि पंचभूतों के सत-रज अंश को लेकर बने हैं। पंचभूत जड़ पदार्थ है। अतः आत्मा इनसे भी विलक्षण और शक्तिवान है। वह संचालक है, सूक्ष्मतम है और शक्ति का उत्पादक है। अजर, अमर, सर्वव्यापी तत्त्व है। जो इस तत्त्व को जानता है उसके सारे दुःख मिट जाते हैं।

मानव जगत का अधिकांश भाग इस कारण अधोगति को प्राप्त हो रहा है कि उसे जो कार्य संपादन करना चाहिए, वह नहीं करता। सबसे बड़े दुःख की बात तो यही है कि पूर्ण परिपक्व और बुद्धिमान होकर भी उस मार्ग का अनुसरण नहीं करते, जो कल्याणकारी है और जो जीवन में सुख की वृद्धि कर सकता है। थोड़े-से मोह के चक्र में फंसकर नासमझ लोग अयोग्य कार्यों की ओर प्रेरित होते हैं और उन्हें ही सुख का मूल समझकर अपने भीतर सिमटी-दुबकी हुई जो आत्मा बैठी है उसे भूल जाते हैं। इसी ऐश्वर्य और भोग में जीवन की इतिश्री कर देते हैं। कभी गहराई में उतरकर आत्म-तत्त्व पर विचार नहीं करते। मनुष्य की उस विडंबना को, इस मूढ़ता को क्या कहें जो बड़ा ज्ञानी होने का दावा करता है, पर जानता खुद को भी नहीं है।

सारांश यह है कि जड़ पदार्थों के संबंध में आज लोगों ने जहां खूब उन्नति की है, वहां चेतन पदार्थों के संबंध में वह अभी प्रारंभिक अवस्था में ही है। विज्ञान ने भौतिक एवं मानसिक जगत को रूपांतरित कर दिया है। इसका प्रभाव मनुष्य पर गंभीर रूप से पड़ा है, क्योंकि आज जो भी कार्यक्रम बनाए जा रहे हैं, उनमें मनुष्य की मूल प्रकृति पर विचार नहीं किया जाता, यही कारण है कि भौतिक विज्ञान तथा रसायन शास्त्र ने परंपरागत जीवन प्रणाली में विक्षिप्त रूप से परिवर्तन ला दिया है। मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति की कसौटी पर ही विषयों का चयन किया जाता तो अधिक बुद्धिमत्ता रहती। आत्म-ज्ञान ही वह प्रक्रिया है, जिससे इस समस्या का हल निकाला जा सकता है।

बाहर की वस्तुओं का ही अवलोकन न कीजिए, यह भी सोचिए कि शरीर के भीतर कैसी विचित्र हलचल चल रही है। आहार पेट में जाता है, फिर न जाने कैसे रस, रक्त, मांस, मज्जा, अस्थिर, वीर्य आदि सप्त धातुओं में परिणत हो जाता है। कितनी हानिकारक वस्तुओं का भक्षण करते हुए मनुष्य जीवित रहता है। वह कौन-सा विलक्षण अमृत तत्त्व है जो शरीर जैसी महत्त्वपूर्ण मशीनरी को चला रहा है। आप इसे जान जाएंगे, तो सारे संसार को जान जाएंगे। उस आत्मा में ही यह संपूर्ण विश्व व्यवस्थित है। ब्रह्मोपनिषद् के छठवें अध्याय में शास्त्रकार ने बताया है—

आत्मनोऽन्या गतिर्नास्ति सर्वमात्ममयं जगत् ।
आत्मनोऽन्नहि क्वापि आत्मनोऽन्यत्तृणं न हि ।।—ब्रह्मोपनिषद् 6।46


‘‘आत्मा से भिन्न गति नहीं है, सब जगत आत्मामय है, आत्मा के विलग कुछ भी नहीं है। आत्मा से भिन्न एक तिनका भी नहीं है।’’

विश्वव्यापी चैतन्य अनादि तत्त्व आत्मा को जाने बिना मनुष्य को शांति और स्थिरता की उपलब्धि नहीं हो सकती। सफल जीवन जीने के अभिलाषी को इस पर बार-बार विचार करना चाहिए। प्राचीन धर्मग्रंथ, सृष्टि और अध्यात्म की खोज करनी चाहिए। अपने आप को पहचानने के लिए अपनी आत्मा, मनोवृत्तियां, स्वभाव तथा विचारों का निरीक्षण करना चाहिए। आत्म-भाव जाग्रत करने के लिए सुंदर पुस्तकों का स्वाध्याय करना चाहिए।

आत्मा के साथ जन्म-मरण, सुख-दुःख, भोग-रोग आदि की जो अनेक विलक्षणताएं विद्यमान हैं, वह मनुष्य को यह सोचने के लिए विवश करती हैं कि खा-पीकर, इंद्रियों के भोग भोगकर दिन पूरे कर लेना मात्र जिंदगी का उद्देश्य नहीं है। रूप और शारीरिक सौंदर्य की झिलमिल में शरीर और प्राण के अनुपम संयोग की स्थिति को दूषित किया जाना किसी भी तरह भला नहीं है। यह अमूल्य मानव जीवन पाकर भी यदि आत्म-कल्याण न किया जा सका तो न जाने कितने वर्षों तक फिर अनेक कष्टसाध्य योनियों में भटकना पड़ेगा। जिसे ऐसी बुद्धि मिल जाए उसे अपने आप को परमात्मा का कृपापात्र ही समझना चाहिए। आत्म-ज्ञान प्राप्त करने से मनुष्य जीवन धन्य हो जाता है।

मनुष्य दैवी अंशयुक्त है। सत्, चित्, आनंद स्वरूप है। निष्फलता, दुःख, रोग-शोक तो निम्न विचारों, दूषित कल्पनाओं तथा भोगवादी दृष्टिकोण के फलस्वरूप पैदा होते हैं, अन्यथा इन अभावों का इस जीवन में क्या प्रयोजन? अपने अमृतत्व की खोज करने के लिए काम, क्रोध, भय, लोभ, तिरस्कार, शंका तथा दुविधाओं की कीचड़ से निकलकर हमें सत्य, प्रेम, निश्छलता और पवित्रता का आदर्श अपनाना पड़ेगा। उत्कृष्ट, स्वस्थ तथा दिव्य विचारों का वर्णन करना होगा। आत्मा अत्यंत विशाल और शक्तिशाली है, उसे प्राप्त करने के लिए, उसमें विलय होने के लिए हमें भी उतना ही निर्मल हितकारक तथा विस्तृत बनना होगा। जिस दिन ऐसी स्थिति बना लेंगे उस दिन किसी तरह की कमी महसूस नहीं होगी। सारा जीवन शक्ति और सौंदर्य से भर जाएगा। उसे प्राप्त करने पर ही हमारा जीवन सफल होता है। हम अपने भीतर छिपी हुई आत्मा को ढूंढ़ने का प्रयास करें, तब कुछ प्राप्त कर सकते हैं, जिसकी तलाश में हमें निरंतर भटकना और जिसके अभाव में सदा दुःखी रहना पड़ता है।

***
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118