इस संसार में परिस्थितियां और पदार्थ बड़ी तेजी से परिवर्तित होते हैं। आज जो दृश्य दिखाई दे रहा है, कल वह कुछ परिवर्तित रूप लिए हुए होगा। कुछ दिन के बाद तो वह सारी स्थिति इस तरह बिगड़ जाती है, जैसे उसका कोई अस्तित्व ही न था। कभी वन-वृक्षों, लता-बेलों में वसंत-बहार छा जाती है, तो पतझड़ आ जाने पर वह समस्त सुषमा यों लुट जाती है, जैसे वह कभी थी ही नहीं। पतझड़ की नीरवता और उसका उजाड़पन भी वर्षा की छटा में न जाने कहां खो जाता है? नाट्यशाला की तरह रंग और दृश्य प्रतिक्षण बदलते हैं, एक आता है, दूसरा जाता है। पर सब कुछ इतने स्थिर भाव से चल रहा है, मानो कोई निश्चित विधान, कुशल नट कहीं एकांत में बैठा हुआ इस परिवर्तनशील जगत का संचालन कर रहा है। सचमुच यह संसार बड़ा रहस्यमय है और इससे भी ज्यादा रहस्यमय वह है, जिसने इसकी रचना की है।
यह दृश्य परिवर्तन कभी मनुष्य को यह प्रेरणा भी देते हैं कि वह इस अनंत रहस्य का ज्ञान प्राप्त करे अथवा इन परिवर्तनों के फलस्वरूप जो उसे भय, शोक, कातरता, विरह, असंतोष आदि दुःख परेशान करते रहते हैं, उनसे मुक्ति पाए और एक ऐसा आनंद उपलब्ध करे, जो कभी कम न हो, कभी समाप्त न हो।
दूसरे शब्दों में इसे ही ईश्वर प्राप्ति की अभिलाषा, स्वर्ग या मोक्ष का उत्तराधिकार मान सकते हैं। दृष्टिकोण चाहे कुछ भी हो, पर उन सबका सार यही है कि मनुष्य चिर सुख प्राप्त करने का अभिलाषी है। पर यह सुख इतना सरल नहीं है, जो हर किसी को यों ही मिल जाया करे। जब छोटे-छोटे सुखों की प्राप्ति के लिए बड़े प्रयत्न, बड़ी शक्ति, श्रम और साधन जुटाने पड़ते हैं, तो ईश्वर जैसी अनंत सुख प्रदायक वस्तु भला यों ही कैसे मिलने लगी? बड़ी वस्तु का मोल भी बड़ा होता है और वह मिलती भी बड़ी कठिनता से ही है। गहराई में बैठकर उसे खोजने का जो प्रयत्न करते हैं, वही उसे प्राप्त कर पाते हैं। किनारे या उथले जल में गोता लगाने वाले तो अपना समय ही नष्ट करते हैं, अपने साधन ही गंवाते हैं। उन्हें न तो इस लोक के सुख ही मिल पाते हैं और न पारलौकिक आकांक्षाओं की ही तृप्ति होती है।
यह सृष्टि मूलतः दो भागों में विभक्त है। आकार और गुण दोनों ही दृष्टियों से उनमें पृथकता है। (1) रूप जड़ है, जो स्वयं क्रियाशील नहीं, पर है स्थूल अर्थात् सांसारिक दृष्टि से उसका अधिक महत्त्व है। संसार की जितनी भोग-वासनाएं हैं, वह सब जड़ पदार्थों के द्वारा ही विरचित हुई हैं। इनके मूल में (2) चैतन्य सत्ता काम कर रही है। चेतना की अभिव्यक्ति से जड़ पदार्थ भी मोहक जान पड़ते हैं। पर दरअसल जड़ पदार्थ अपने आप में हमें कुछ देने की सामर्थ्य नहीं रखते।
इस प्रकार पांच भौतिक प्रकृति और प्राण की चेतना के द्वारा संपूर्ण विश्व में क्रियाशीलता दृष्टिगोचर हो रही है, पर चूंकि मनुष्य भी उसका सम्मिश्रित प्रयोग है। अतः वह भी प्रायः अपने विषय में विभ्रमित ही रहता है। शरीर की स्थूल पांच भौतिक प्रकृति और प्राण की पृथकता उसे सहज में ही समझ में नहीं आती, पर संसार के परिवर्तनों और घटनाचक्रों, जन्म-मरण, उत्पत्ति, विनाश के दृश्य जब भी उसे देखने को मिलते हैं, विश्व-व्यवस्था का रहस्य और सृष्टि नियंता का ज्ञान प्राप्त करने की उसे तीव्र अभिलाषा भी होती है। इस प्रकार की बुद्धि किसी को मिल जाए, तो उसे अपने पूर्व जन्मों का संस्कार अथवा परमात्मा की कृपा ही समझना चाहिए। जब तक यह विवेक पैदा नहीं होता, सत्य को जानने की मनुष्य को बहुत कम इच्छा होती है। उसके सांसारिक विषय ही इतने अधिक होते हैं कि उसे उन्हीं से कठिनाई से अवकाश मिल पाता है।
मनुष्य विश्व चेतना का सर्वोपरि, सर्वांगपूर्ण जीव है। चौरासी लाख योनियों में ऐसा सौभाग्य किसी भी जीव को नहीं मिला। सिंह शक्तिशाली ही हो, पर उस बेचारे को विचारशक्ति कहां? बंदर पेड़ों पर चढ़कर सुंदर फल प्राप्त कर सकते हैं, पर सर्दी से बचने के लिए उन्हें वस्त्र तक प्राप्त नहीं हो सकते। देखने, सुनने, सूंघने, चलने, फिरने, खाने, पीने, सुखोपभोग करने के जितने अधिक अवसर और सुविधाएं मनुष्य को मिली हैं उतनी किसी जीव को उपलब्ध नहीं। पर ये शक्तियां निश्चय ही उद्देश्यपूर्ण हैं, किसी विशेष लक्ष्य प्राप्ति के लिए वरदान स्वरूप मिली हुई हैं। यह बात विचार क्षेत्र में उतारने और अपना जीवन उद्देश्य प्राप्त करने में ही मनुष्य का आत्म-कल्याण छिपा हुआ है।
यह कोई कठिन बात नहीं है कि मनुष्य को ऐसी सूझ-समझ न आए। ऐसे अवसर, ऐसी घटनाएं प्रायः हर व्यक्ति के जीवन में आती हैं। पर सामान्य श्रेणी के लोगों के लिए उनका कोई महत्त्व नहीं होता, सौभाग्य से यदि उन्हें ऐसे साधन उपलब्ध हो भी जाएं, तो वे आत्म–कल्याण कठिन मार्ग में देर तक टिक नहीं पाते। सांसारिक पदार्थों में गजब का आकर्षण और तीव्र मोहकता होती है। लोग साधना की कठिनाइयों से बड़ी जल्दी अपने को थका हुआ सा अनुभव करने लगते हैं और जल्दी ही प्रयत्न च्युत होकर पुनः अपने उसी पूर्ववत जीवनक्रम में लुढ़कने लगते हैं। साधना वस्तुतः मनुष्य जीवन को सफल बनाने वाला महत्त्वपूर्ण साधन है, पर उस पर साहसी व्यक्ति ही अग्रसर हो सकते हैं। कायरों की वहां दाल नहीं गलती। पग-पग पर जिसके निश्चय और विचार बदलने वाले हों, वे कठिनाइयों का संवरण देर तक नहीं कर सकते हैं और जल्दी ही उसे छोड़ बैठते हैं।
साधनाएं ब्रह्मज्ञान या आत्म-वैवर्त्त के लिए अत्यावश्यक हैं। जीवात्मा पर चढ़े जन्म-जन्मांतरों के संस्कार ऐसे ही होते हैं जैसे लोहे में जंग लग जाती है। जंग छुड़ाने वाली प्रक्रिया निस्संदेह काफी कठिन है, वह मेहनत से ही पूरी हो सकती है, लोहे को कभी कूटा जाता है, कभी उसे आग में डाल दिया जाता है, फिर पीटते हैं, फिर पानी में डुबाते हैं। चारों तरफ आघात-पर-आघात, तपाई-पर-तपाई देने के बाद वही जंग लगा लोहा सुंदर इस्पात के रूप में निकल आता है, फिर उससे किसी भी तरह का औजार, कोई भी अस्त्र-शस्त्र बनाना सरल हो जाता है। जीव को सांसारिक वासनाओं से छुड़ाकर उसको शाश्वत स्वरूप में लाने के लिए भी लोहे के तपाने जैसी क्रियाएं अनिवार्य हैं। जो इस आग में जल सकता है, आध्यात्मिक जीवन अथवा ईश्वर उपासना का वही सच्चा और पूर्ण लाभ प्राप्त कर सकता है।
जीवनलक्ष्य को प्राप्त करने की ऐसी अभिलाषा उठते ही मन को बुद्धि के अनुशासन में ले आने की बड़ी आवश्यकता है। दर-असल मनोनिग्रह की कठिनाई ही ईश्वर प्राप्ति की प्रमुख कठिनाई है। मन मनुष्य जीवन का संचालक और महत्तर शक्ति वाला है, पर उसमें एक बुराई भी है। बिगड़े हुए घोड़ों की तरह यदि वह स्वेच्छाचारी हो जाए, तो न रथ की खैर रहती है और न सारथी की। मनुष्य का मन स्वभावतः अधोगामी है। नीचे गिर जाना सरल बात है। कठिनाई तो उसे ऊंचा उठाने में आती है, पर यह तभी संभव है, जब मन पर बुद्धि का नियंत्रण-पहरा रहे। बुद्धि मन को ऊर्ध्वगामी बनाती है और कुसंस्कारों को नष्ट करती है। अतः साधननिष्ठ व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह मन की स्वेच्छाचारिता पर बौद्धिक विवेक का अंकुश बनाए रहे।
मन प्रायः यह शासन मानने के लिए तैयार नहीं होता। प्रकृति उसे बार-बार भोग-वासनाओं के लिए आकर्षित करती है। वह समझता है कि इन भोगों से विमुख होने पर हमारी हानि हो रही है। यह माया या अविद्या उसे आत्म-कल्याण के मार्ग से गिरा देने वाला विचार है और उसके बचने का एक ही उपाय है—प्रकृति-जय। मानवीय दुर्बलताओं पर कठोरतापूर्वक संयम किए बिना इस अविद्या से छुटकारा पाना संभव नहीं है। जीवनलक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले प्रत्येक जिज्ञासु को यह बात निश्चित रूप से समझ लेनी चाहिए।
कठिनाइयों से किसी प्रकार समझौता नहीं हो सकता। लोहे की जंग पानी से धोकर नहीं छुटाई जा सकती। जलती हुई आग में काबू पाने के लिए उससे अधिक मात्रा में जल की अपेक्षा होती है। मन जितना ऊधमी होगा, संयम की, उतनी ही कठोरता की आवश्यकता है। पुराने संस्कारों की मलिनता के परिष्कार की गति धीमी हो, तो काम चल सकता है, पर उसमें उत्तरोत्तर दृढ़ता और कठोरता आवश्यक है। परिस्थितियों के साथ दोस्ती साधनानिष्ठ मनोबल को गिरा सकती है।
मनुष्य जीवन जैसी अमूल्य निधि फिर मिलेगी, इसकी कोई निश्चित सुविधा नहीं है। इसी जीवन में दिन रहते कुछ काम बना लिया जाए, तो इसी में बुद्धिमानी है। पचास-साठ अथवा सौ वर्ष के जीवन को भोग और कामनाओं की पूर्ति में ही लगाए रखा जाए, तो उसमें मानव जीवन की क्या सफलता, शक्तियों का क्या सदुपयोग रहा? भोग-वासनाएं दुःख का कारण मानी गई हैं। अन्य जन्मों में उनके दुष्परिणाम होते हों या न होते हों, इसे चाहे कोई माने या न माने पर वासनाएं इसी जीवन में मनुष्य को तंग करती हैं। दुःख और मुसीबतें पैदा करती हैं, अतः इन्हें कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता। ये मनुष्य जीवन को भ्रष्ट करने वाली हैं। यह बात बहुत गहराई तक विचार लेनी चाहिए। एक बार अवसर निकल जाने के बाद में फिर पछतावा ही शेष रहता है। परिस्थितियां बदल जाने के बाद बहुमूल्य वस्तुएं भी कोई लाभ नहीं दे पातीं, अतः बुद्धिमान लोग समय रहते ही अपने लक्ष्य को पूरा करने का प्रयास करते हैं।
ईश्वर सब जगह विद्यमान है। उसे ढूंढ़ने में कठिनाई नहीं, कठिनाई तो सिर्फ अपना अहंकार मारने में है। अपने आप को साध लिया जाए, व्रत, संयम और तपश्चर्या की आग में अपना अहंकार विगलित कर दिया जाए, तो सर्वत्र ईश्वर ही ईश्वर दिखाई देने लगता है।
जब तक मन में मैल है, ईश्वर का प्रकाश कैसे दिखाई देगा? जब तक अपने स्वार्थ से ही छुटकारा नहीं मिलता, तब तक परमात्मा की याद कैसे आ सकती है? इस संसार में पाने के लिए पहले अपना सब कुछ खोना पड़ता है। आत्मा में ईश्वर की प्रतिष्ठा के लिए भी अपना अहंकार नष्ट करना पड़ता है। परिष्कृत आत्मा को ईश्वर-प्राप्ति का सुख मिलते देर नहीं लगती। बीच में मलिनता वाली खाई को दूर कर दिया जाए, तो जीवन लक्ष्य की सिद्धि भी कोई कठिन बात नहीं है।
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