जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्मज्ञान

दो शब्द

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आत्मा के विषय में संसार के विद्वानों में बहुत मतपार्थक्य दिखाई पड़ता है। प्राचीन विचारों के अनुयायी मनुष्य शरीर में एक अविनाशी और स्थायी आत्मा का अस्तित्व मानते हैं और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के समर्थक एवं तर्कशास्त्र के ज्ञाता मानव-शरीर में किसी ऐसी वस्तु का होना स्वीकार नहीं करते, जो देह के नष्ट हो जाने के बाद भी कायम रहती हो और इस जीवन काल में किए गए भले-बुरे कामों का फल आगे चलकर भोगती हो। यह ‘‘विज्ञानवाद’’ कुछ वर्ष पहले बहुत जोर पकड़ गया था और आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति आत्मा और ईश्वर की सत्ता स्वीकार करने में अपनी हैठी समझने लगे थे। पर अब चक्र दूसरी तरफ घूमने लगा है और योरोप, अमेरिका के चोटी के वैज्ञानिक भी कहने लगे हैं कि संसार में भौतिक पदार्थों और शक्तियों के अतिरिक्त कोई चैतन्य सत्ता भी है, जिसकी इच्छा और योजना से समस्त विश्व का निर्माण और संचालन होता है।

चाहे इस विचार को तर्क के द्वारा अथवा प्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर सिद्ध कर सकना सहज न हो, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि आत्म-सत्ता को मानने और स्वीकार किए बिना मानव-जीवन की सार्थकता नहीं हो सकती। आत्म-ज्ञान के विषय को जाने और समझे बिना मनुष्य बेपेंदी के लोटे की तरह बना रहता है, जो कभी इधर और कभी उधर लुढ़क जाता है।

हमारे जीवन का सबसे बड़ा तत्त्व परमार्थ है, पर वह आत्म–ज्ञान के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। केवल भौतिकवाद का अनुयायी स्वार्थ की ओर ही प्रेरित होगा और निष्काम भाव से सेवा तथा परोपकार के धर्म का कभी पालन नहीं कर सकता। दूसरी हानि यह भी है कि आत्म-सत्ता से विमुख व्यक्ति सांसारिक आपत्तियों और कष्टों में अविचलित और धैर्ययुक्त भी नहीं रह पाता, क्योंकि उसके पास स्थिर रहने का कोई आधार नहीं रहता। इसलिए सांसारिक और पारलौकिक दोनों दृष्टियों से आत्मा की सत्ता तथा आत्म-ज्ञान को जान लेना अपने और दूसरों के कल्याण के लिए अनिवार्य ही है।

—प्रकाशक

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