जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्मज्ञान

परमात्मा को जानने के लिए अपने आप को जानो

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संत वास्वानी से एक दिन कुछ लोगों ने प्रश्न किया—‘‘भगवान क्या है?’’ ‘‘भगवान ज्योतियों की ज्योति है, मध्यवर्ती सूर्य है।’’ उन्होंने उत्तर दिया। लोगों ने फिर प्रश्न किया—‘‘इस ज्योति से, इस मध्यवर्ती सूर्य से अपना नाता कैसे जोड़ें?’’ वास्वानी ने पुनः समझाया—‘‘बस सूर्यमुखी बन जाओ। जैसे सूर्यमुखी सदैव सूर्य के प्रति मुख किए रहता है, यद्यपि उसकी देह में अन्य क्रियाएं अपनी मर्यादा में चलती रहती हैं, जड़ें रस खींचती रहती हैं, पत्तियां सांस लेती रहती हैं, हवा में वह हिलता-डुलता रहता है, पर उसका सूर्यमुखी नाम इसीलिए पड़ा क्यों वह सदैव सूरज की ओर मुख किए रहता है, इसी तरह परमात्मा को पाने के लिए सदैव परमात्मा की ओर मुख किए रहो।’’

‘‘किंतु सूर्यमुखी बनें कैसे? लोगों ने तीसरा प्रश्न किया।’’ उन्होंने उत्तर दिया—‘‘अपने हृदय को तीव्र अभीप्सा से भर लो। एक बार खूब अच्छी तरह निश्चय कर लो कि मनुष्य जीवन का ध्येय अनंत ऐश्वर्य, सुख-संतोष, शांतिप्रद परमात्मा की प्राप्ति है। जब वह तुम्हारा लक्ष्य बन जाएगा, तो भगवान की आर मुख किए रहोगे और धन्य हो जाओगे।’’

ईश्वरप्राप्ति की सच्ची आकांक्षा का होना ही प्रधान बात है, परमात्मा कहीं अन्यत्र नहीं। उसे ढूंढ़ने, प्राप्त करने और पहचानने का प्रयत्न नहीं किया जाता, इसीलिए अधिकांश लोगों के हृदय अंधकार से भरे हैं। लोगों के भीतर तामस का, रात का, अज्ञान का राज्य है। जब अपने हृदय को ही जीवन का केंद्रबिंदु बना लिया जाता है, तो आनंदस्वरूप परमात्मा का अस्तित्व वहीं झलकने लगता है, उसे ढूंढ़ने के लिए कहीं भागने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

हमारा हृदय हमारी आत्मा के विश्वास का अंश है। जिस तरह सूर्य कि किरणें सूर्य का अंश हैं, पर पृथक दीखती हैं, उसी तरह आत्मा भी परमात्मा का अंश है, पर पृथक दीखता है। अपने को, अपनी गहनतर आत्मा को विश्वात्मा का अंश जान लेना ईश्वर को जान लेना है।

मनुष्य अपने शरीर के वाह्य क्रिया-कलापों की व्यस्तता से कुछ गहराई में डूब सकता है, यह सभी उसके गुण हैं, विशेषताएं हैं, पर वह स्वयं इनसे परे है। वह इनसे परे जाकर अपने को इनसे भिन्न, शक्तिशाली और परम तेजस्वी, सर्वद्रष्टा, सर्वव्यापी, सर्वांतर्यामी विशुद्ध आनंदस्वरूप प्रकाश अनुभव कर सकता है।

जिन लोगों ने अपने भीतर ईश्वर की शोध की है, वे सब अंततः इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। सबने यही बताया है कि मनुष्य चिंतन के द्वारा मन, बुद्धि और भावनाओं पर ध्यान जमाता हुआ आत्मा के अस्तित्व तक पहुंचता है और इस अनुभव के बाद इस बोध को प्राप्त करता है कि वह परमात्मा जिसमें आत्मा विकसित हो जाती है, आत्माओं से भी परे और सभी में एक ही प्रकार से व्याप्त है।

एक गांव में एक बार नानक का आगमन हुआ। वे कहते थे—ईश्वर सबके अंदर है। हिंदू, मुसलमान का कोई भेद नहीं। उस गांव के नवाब ने उनसे कहा—‘‘आपके लिए तो मंदिर और मस्जिद एक बराबर हैं, तो क्या आप आज हमारे साथ मस्जिद में नमाज पढ़ने को तैयार हैं?’’ नानक ने बहुत आनंदित होकर कहा—‘‘जरूर! जरूर!! परमात्मा की प्रार्थना में सम्मिलित होने से बड़ा आनंद और क्या है?’’

फिर सब लोग मस्जिद में गए और नमाज शुरू हुई। सब लोग नानक की नमाज देखना चाहते थे, किंतु नानक चुपचाप एक कोने में खड़े हो गए और सबको देखने लगे। उनको इस प्रकार खड़ा देखकर नमाजिये बहुत गुस्सा हुए। वे नमाज भी पढ़ते थे और बीच-बीच में नानक की ओर क्रोध से देख भी लेते थे। जल्दी-जल्दी किसी तरह बेचारों ने

नमाज पूरी की और सब एक दम नानक पर टूट पड़े। किसी ने उन्हें धोखेबाज कहा, किसी ने वचन तोड़ने वाला। नवाब ने आंख लाल-पीली करके डांटा, आपने नमाज क्यों नहीं पढ़ी? नानक हंसे और बोले—‘‘आप लोगों ने भी तो नहीं पढ़ी। इसलिए हमने भी नहीं पढ़ी। आप लोगों का खेल देखता रहा, यदि आप नमाज पढ़ते, तो फिर मेरे लिए भी चुपचाप खड़ा रहना कठिन ही हो जाता।’’

उन नमाजियों की तरह जो लोग ईश्वरप्राप्ति की बात तो करते हैं, किंतु उनकी सारी उलझन जीवन के बाह्य क्रिया-कलापों तक सीमित रहती हैं, इसलिए उनका नानक (उनका मन) भी आत्मानुभूति में खो नहीं पाता। जिस दिन शरीर और मन की सारी चेष्टाएं सिमटकर आत्मा में केंद्रित हो जाती हैं, अंधकार उसी दिन दूर हो जाता है और मनुष्य परमात्मा के निकट पहुंचा हुआ अनुभव करने लगता है।

‘‘मज्झिम निकाय’’ में तथागत का एक सुंदर उपदेश है, वह कहते हैं—कल्पना करो कि किसी मनुष्य के पैर में विष बुझा तीर चुभ गया है। यदि यह मनुष्य कहे कि मैं तब तक तीर नहीं निकलवाऊंगा, जब तक मुझे ज्ञान न हो जाए कि तीर चलाने वाले का नाम, कुल और गोत्र क्या था? वह ऊंचा था या मझले कद का। धनुष कैसा था, प्रत्यंचा कैसी थी, तीर कैसा था?

लोग परमात्मा के संबंध में भी ऐसे ही तर्क-वितर्क, वाद-विवाद करते हैं, पर अपने हृदय में जीवन के बोझ, दुःख-कठिनाइयों, दैवी आपत्तियों का जो तीर चुभा हुआ है, उसे निकालने की ओर किसी का ध्यान नहीं। हमें सर्वप्रथम आत्मा के दर्द को अनुभव करने की आवश्यकता है। बाह्य जीवन के प्रपंचों को छोड़कर अंतर्मुखी होने की बड़ी आवश्यकता है। बाहरी क्रियाओं को केवल सहयोगी मानना चाहिए। वे लक्ष्य, सत्य या परमात्मा की प्राप्ति का साधन बनाई जा सकती हैं, इसलिए अपने शरीर, मन और भावनाओं के केंद्रबिंदु को बेधने की आवश्यकता नहीं कि कौन-सा तत्त्व कितना सुखद है, किस सुख की प्राप्ति के लिए किधर दौड़ना चाहिए? जब इन सब बातों को साधन बना लिया जाता है, तो आवश्यकताएं भी घट जाती हैं और लक्ष्य भी अपने समीप ही स्पष्ट होने लगता है। उसे पाने के लिए न तो लंबे साधनों के लिए दौड़ना पड़ता है और न घर ही छोड़ना पड़ता है।

उपनिषदों ने—आत्मा वारे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो, मन्तव्यो, निदिध्यासितव्यः।—कहकर इसी तथ्य को व्यक्त किया है और बताया है कि विभिन्न साधनों से तुम अपने आप को पहचानो। जिस दिन आत्म-शक्ति का विश्वास जाग जाता है, उस दिन परमात्मा के अस्तित्व का विश्वास जमते देर नहीं। विश्वास का जमना उतना ही आनंददायक है, जितना परमात्मा की प्राप्ति।

मनुष्य अपनी छिपी हुई शक्तियों को पहचाने बिना शक्तिशाली नहीं बन सकता। जो जैसा अपने को जानता है या जिसकी जैसी अभीप्सा है, वह वैसा ही बन जाता है। अपने को जानना सब सिद्धियों में बड़ी सिद्धि है। लाखों में एक-दो होते हैं, जो अपने को जानने का यत्न करते हैं, यत्न करने वालों में भी थोड़े-से ऐसे होते हैं, जो आत्मा के अस्तित्व को पहचानने के लिए देर तक अपने आप को निर्दिष्ट किए रहते हैं। जिसने भी मनुष्य देह में जन्म लिया है, वह आत्मा के समीप पहुंचा दिया गया है, किंतु थोड़े ही हैं, जो उसमें प्रवेश पाते हैं।

शरीर में काम-क्रोध, मोह, संतोष, दंड, दया आदि अनेक भावनाएं हैं, यह सब या तो आनंद की प्राप्ति के लिए हैं अथवा आनंद में विघ्न पैदा होने के कारण हैं। आनंद सबका मूल है, वैसे ही आनंद सबका लक्ष्य है। लक्ष्य और उसकी सिद्धि दोनों ही आत्मा में विद्यमान हैं, जो आत्मा को ही लक्ष्य बनाकर आत्मा के ही द्वारा अपने आप को वेधता है, वह उसे पाता भी है। आत्मा ही परमात्मा का अंश है, इसलिए आत्मा का ज्ञान हो जाने पर परमात्मा की प्राप्ति अपने आप हो जाती है।

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